जसविंदर सिंह
जो समाज अपने सोच की खिड़कियां बंद कर लेता है, वह न तो स्वस्थ समाज हो सकता है और न ही समय के अनुरूप खुद को ढाल सकता है। भले यह किसी भी समाज के विकास की बुनियादी शर्त है। ‘प्रयोगशाला के लोग’ शीर्षक अपनी टिप्पणी (18 जनवरी) में तरुण विजय बहुसंख्यक समाज की तरफदारी करते हुए इसकी कुरीतियों पर उठने वाली किसी भी आवाज को हिंदू-विरोधी करार देने की हद तक पहुंच जाते हैं।
क्या इसके लिए किसी को दार्शनिक होने की जरूरत है कि अगर भारतीय समाज में अस्सी प्रतिशत हिंदू हैं, तो समाज के विकास के लिए इस बहुसंख्यक समाज को अपनी कुरीतियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों से मुक्ति पानी होगी। उसे आत्ममंथन करना होगा। उसका विकास अल्पसंख्यक समुदायों को भी अपनी कुरीतियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों से पार पाने में मार्गदर्शक की भूमिका निबाहेगा।
संकट यह है कि सोते हुए को ही कोई जगा सकता है। जो सोने का नाटक करते हैं, उन्हें जगाना मुश्किल होता है। तरुण विजयजी, हिंदू समाज पर अंगुली हिंदू-विरोधियों ने नहीं, कबीर, नामदेव, रैदास, तुकाराम, राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर और विवेकानंद ने उठाई है। बेहतर हो कि विवेकानंद का नाम लेने के बजाय उन्हें पढ़ने के लिए भी कुछ समय निकालें। वे कहते हैं, सभी मिथ्या देवी-देवताओं को भुला दो। पचास साल तक उनका कोई स्मरण न करे। ईश्वर को स्मरण करने के लिए देवता के माध्यम की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य खुद देवता है। विश्व मानव को परम पुरुष मान लो। यह सर्वत्र उपस्थित है। सर्वत्र उसके चरण हैं। सर्वत्र उसकी आंखें हैं। सहस्र शीर्ष और सहस्र बाहु वह स्वयं है। तरुणजी, क्या आप विवेकानंद को भी हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने के लिए हिंदू-विरोधी करार देंगे?
क्या विवेक और तर्क के बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है? अगर नहीं, तो फिर तरुण विजयजी को याद रखना चाहिए कि दूसरों की ओर एक अंगुली उठाते ही चार अंगुलियां अपनी ओर भी उठने लगती हैं। उन्हें फिल्म ‘पीके’ में देवताओं का मजाक उड़ाए जाने में हिंदू समाज का अपमान नजर आता है। इस फिल्म ने तीन सौ करोड़ रुपए के कारोबार का लक्ष्य रखा था, विरोध के बाद अब वह एक हजार करोड़ रुपए तक पहुंच रही है। सारे फिल्म देखने वाले क्या हिंदू-विरोधी हैं? आप जब इन हिंदुओं को हिंदू-विरोधी करार देते हैं, तो क्या इनकी भावनाओं को आहत नहीं करते?
अशोक सिंघल विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने फरमाया था कि आठ सौ साल बाद देश में कोई सच्चा हिंदू प्रधानमंत्री बना है। वैसे आजादी के बाद केवल मनमोहन सिंह को छोड़ कर सारे प्रधानमंत्री हिंदू थे। मगर संघ परिवार से असहमति रखने वालों को अगर आप हिंदू नहीं मानते तो एक बात है, अटल बिहारी वाजपेयी का क्या करेंगे? अगर वे भी हिंदू-विरोधी हैं, तो फिर एक हिंदू-विरोधी को भारत रत्न देने का अपराध करने की नरेंद्र मोदी सरकार को क्या आवश्यकता थी।
संघ परिवार के लोगों से तर्क करना निरर्थक है। शायद वह दुनिया का एकमात्र संगठन होगा, जो घोषणा करता है कि आस्था के मामले में तर्क, कानून या साक्ष्य नहीं चलेगा। अब प्रवीण तोगड़ियाजी ने कह दिया है कि एक समय दुनिया में हिंदुओं की जनसंख्या सात सौ करोड़ थी, तो मानना ही होगा? क्या तरुण विजयजी प्रवीण तोगड़िया से तर्क करेंगे कि ऐसा कब था? वर्तमान में विश्व की आबादी सात सौ करोड़ है। सदियों पहले दुनिया की आबादी सात सौ करोड़ होने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इसके बाद भी अगर थोड़ी देर के लिए तोगड़िया की बात को सही मान लिया जाए तो इतनी बड़ी जनसंख्या के भोजन की व्यवस्था के लिए कृषि का विकसित होना भी जरूरी है। क्या आज से पहले कृषि इतनी विकसित रही है? समस्या
यह है कि यह सब प्रवीण तोगड़िया और अशोक सिंघल ने कहा है, इसलिए तरुणजी को स्वीकार ही करना है।
तमिलनाडु यात्रा का जिक्र भी तरुण विजय अपनी सुविधा के हिसाब से करते हैं। वरना उसी तमिलनाडु में पेरूमल मुरगन जैसे लेखक को अपना उपन्यास वापस लेने और अपने लेखक की मौत की घोषणा करनी पड़ती है, मगर इसे लेकर उनकी चेतना नहीं जागती। सिर्फ इसलिए कि वहां महिला उत्पीड़न की कुप्रथा पर अंगुली उठ रही थी। इसलिए आप शार्ली एब्दो पर हुए हमले की निंदा तो कर सकते हैं, मगर ‘वाटर’ फिल्म के सेट पर हुए हमले की निंदा नहीं कर सकते। यह खामोशी तब भी बरकरार रहती है, जब भाजपा की अभिनेत्री सांसद हेमा मालिनी वृंदावन की असहाय विधवाओं के पास लाखों रुपए का बैंक बैंलेंस होने की बात करती हैं।
इतिहास को लेकर संघ परिवार के पास दंतकथाओं की कमी नहीं है। तरुणजी ने चार्वाक का जिक्र किया है। इतिहास का वह दौर असहमतियों को व्यक्त करने का नहीं, बल्कि उन्हें कुचलने का रहा है। क्या संघ परिवार के लोग बता सकते हैं कि चार्वाक के ग्रंथ अब कहां हैं? उन्हें नष्ट किया गया, क्योंकि वे हिंदुत्ववादी मन से मेल नहीं खाते थे। चार धाम की स्थापना ऐसी किलेबंदी के रूप में इस संकल्प के साथ हुई कि उनके भीतर एक भी बौद्ध को नहीं रहने दिया जाएगा। अब संघ परिवार वही प्रक्रिया दोहराना चाहता है। सच बात तो यह है कि धर्म इनके लिए आस्था नहीं, राजनीतिक एजेंडा है। स्वामी विवेकानंद ने ऐसे धर्मभीरुओं को बेनकाब करते हुए कहा था कि जिनके लिए धर्म एक व्यापार बन गया है, वे संकीर्ण हो जाते हैं। उनमें धार्मिक प्रतिस्पर्धा का विष पैदा हो जाता है और वे अपने स्वार्थों में अंधे होकर वैसे ही लड़ते हैं, जैसे व्यापारी अपने लाभ के लिए दांव-पेच लगाते हैं।
संघ प्रमुख ने तो दोहरा दिया है कि 2021 तक पूरे भारत को शत-प्रतिशत हिंदू राष्ट्र बनाने का लक्ष्य है। बात अभिव्यक्ति की कहां है, आप तो नागरिकों के आस्था के अधिकार को ही छीन लेने पर आमादा हैं। खैर, प्रयोगशालाएं समाज की प्रगति का प्रतीक हैं और बंद खिड़कियां घुटन की। समाज अब बंद किवाड़ें खोल रहा है।
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