अशोक वाजपेयी

यह लगभग अभूतपूर्व है, कम से कम हमारे आधुनिक समय में: प्रसिद्ध उद्योगपति नारायणमूर्ति के बेटे ने अपनी संपदा में से एक बड़ी राशि अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय को दी है, जिससे ‘मूर्ति क्लासिकल लायब्रेरी ऑफ इंडिया’ के अंतर्गत भारतीय शास्त्रीय साहित्य का मूल संस्कृत, पाली, प्राकृत, ब्रज, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं के गौरव-ग्रंथों का अनुवाद अंगरेजी में विश्व भर से चुने गए विशेषज्ञों द्वारा किया जा रहा है। इस ग्रंथमाला के प्रधान संपादक हैं प्रसिद्ध भारतविद् शेल्डन पोलाक। पहली कुछ पुस्तकों को बहुत सुंदर-सुघर ढंग से पेपरबैक और वाजिब दामों पर द्विभाषिक संस्करणों में प्रकाशित किया गया है और वे अब हमारे यहां सुलभ हैं। सभी सुशोधित और सु-अनूदित हैं। जयपुर साहित्य समारोह में मैंने इस ग्रंथमाला की दो पुस्तकें खरीदीं: ‘थेरीगाथा’ चार्ल्स हेलीसी अनूदित और ‘सूरसागर’ कैनेथ ई ब्रायण्ट द्वारा संपादित और जान स्ट्रैटन हाले द्वारा अनूदित। पहली में तीन सौ पृष्ठ हैं और दूसरी में एक हजार। पहली में मूल रोमन लिपि में ही है, पर दूसरी में मूल देवनागरी में।

इन दिनों जब हम शास्त्रीयता की बात करते हैं तो प्राय: हमारा संदर्भ संस्कृत होती है। इस नए प्रयत्न की विशेषता यह है कि वह संस्कृत के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में विपुल शास्त्रीयता को हिसाब में ले रहा है और हमारी शास्त्रीयता की बहुलता को बहुत ठोस और स्मरणीय ढंग से प्रस्तावित और प्रसिद्ध कर रहा है। चूंकि अनुवाद आधुनिक अंगरेजी में किए जा रहे हैं, उनमें पठनीयता का गुण विशेष है। यह सोच कर थोड़ा क्लेश होता है कि स्वयं भारत में हम अपनी भाषाओं में शास्त्रीयता की ऐसी विशद प्रस्तुति नहीं कर पाए हैं। हम तो इन दिनों या तो सांस्कृतिक विस्मरण में चल रहे हैं या हमें अपनी ही संस्कृति की अनेक दुष्ट और चालाक दुर्व्याख्याएं हर स्तर पर घेर रही हैं और हम उनके लगातार शिकार हो रहे हैं।

हालांकि मूर्ति लायब्रेरी का अधिकांश तो संभवत: साहित्य पर ही एकाग्र होगा, वह विचार को भी कवर करेगी। विचार और साहित्य में हमारी परंपरा, सौभाग्य से, लगभग आरंभ से ही बहुवचन रही है और उसे एकवचन बनाने के सभी प्रयत्न अंतत: विफल हुए हैं। इन दिनों वैसा प्रयत्न अब सत्ता के समर्थन से होना शुरू हुआ है। उम्मीद करनी चाहिए कि बहुवचन फिर एकवचन को परास्त करेगा, भले ही उसकी विजय के लिए लंबा और कड़ा सांस्कृतिक और बौद्धिक संघर्ष और आत्मसंघर्ष जरूरी होगा। बढ़ते अंधेरों में हमारे गौरवग्रंथ ही हमारी सच्ची मशाल होंगे: हम उनकी रोशनी में ही अपनी सही पहचान कर पाएंगे। इसलिए मूर्ति लायब्रेरी जैसे प्रयत्नों का बहुत सामाजिक महत्त्व भी है।

सूर के एक प्रसिद्ध पद की ओर बरबस ध्यान जाता है: ‘हरि है,/ राजनीति पढ़ि आए,/ समुझी बात कहत हौ ऊधो/ समाचार सब पाए…’ समापन होता है: ‘राज धरम सुनि इहै सूर जिहि/ प्रजा न जाहि सताये, हरि है।’

 

कड़ियल आधुनिक:

साहित्य और विचार के क्षेत्रों में आधुनिक को अब व्यतीत माना जाता है: नई स्थिति को बहुत दशकों तक उत्तर-आधुनिक कहा गया और अब वह भी लगभग बीत चुका है। कई तरह के नए नाम और अवधारणाएं हवा में हैं। हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि उत्तर-आधुनिक पद सबसे पहले वास्तुकला के संदर्भ में इस्तेमाल किया गया था। जो भी हो, कम से कम भारतीय ललित कला के क्षेत्र में अब यह विभाजन लगभग सभी मानने लगे हैं: आधुनिक और समकालीन। दोनों की सीमाएं रूढ़ और सख्त, अलबत्ता नहीं हैं: वे जब-तब एक-दूसरे में घुलती-मिलती रहती हैं।

पिछले सप्ताह संपन्न हुए कलामेला ‘इंडियन आर्ट फेयर’ में दोनों ही साथ थे- बहुत सारी कलावीथिकाओं की प्रदर्शनियों में भी। इससे यह बात एक बार फिर साफ है कि हमारे यहां अभी आधुनिक का सूर्यास्त नहीं हुआ है, भले गगन लोहित हुए काफी अरसा गुजर चुका। इस मेले में भी आधुनिक अपनी पूरी विविधता और शक्ति के साथ मौजूद रहे: मक़बूल फ़िदा हुसेन, फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा, सैयद हैदर रज़ा, रामकुमार, कृष्ण खन्ना, वासुदेव गायतोंडे, तैयब मेहता, सतीश गुजराल आदि। सुखद अचरज की बात यह है कि इनमें रज़ा, रामकुमार, कृष्ण खन्ना और सतीश गुजराल अभी तक सृजन-सक्रिय हैं और उनके अनेक नए काम देखने को मिले। कृष्ण खन्ना का एक विशाल चित्र विशेष रूप से प्रदर्शित था और रामकुमार के रेखाचित्रों और चित्रों की एक पूरी प्रदर्शनी भी। रज़ा के अनेक हाल में बनाए चित्र कई कलावीथिकाओं में थे।

हरेक आधुनिक अपने मुहावरे और दृष्टि पर टिका हुआ है। वह उसी में अपने समय को चित्रित-रूपायित कर रहा है। वह तेजी से हो रहे परिवर्तन से बेखबर या उससे उदासीन नहीं है। पर उससे आक्रांत भी वह नहीं है। उसकी अपनी लय है, जो परिवर्तन का एहतराम करते हुए भी उसमें विलय और विशृंखल नहीं होती। इसका आशय यह भी है कि आधुनिकता ललित कला में कड़ियल है। यह तर्क दिया जा सकता है कि कला के बाजार में आधुनिकों को अधिक सुरक्षित माना जाता है और यह उनकी बराबर बनी हुई उपस्थिति के लिए जिम्मेदार है। इस बाजार को बनाने में भले आधुनिकों की भूमिका रही हो, समकालीनों को उससे भरपूर लाभ मिला है। उनमें से कइयों की कीर्ति तो बुरी तरह से बाजार की ही उपज है, जबकि आधुनिकों ने कला-मर्मज्ञों और रसिकों के समर्थन से अपना यश अर्जित किया है।

यह भी उल्लेखनीय है कि अनेक वीथिकाएं बंगाल, मुंबई, मद्रास आदि क्षेत्रों में हुए ऐसे कई आधुनिकों को, उनके काम को सामने ला रही हैं, जिन पर उचित ध्यान पहले नहीं दिया गया। विचित्र भले है, पर किसी हद तक सही है कि कला-इतिहास की कई खाली जगहों को अब बाजार के कारण जतन और समझ से भरा जा रहा है।
मेले में तरह-तरह के लोग कला-रसिकता वश नहीं, जिज्ञासावश आते हैं। लोगों की संख्या इस मेले में लगातार बढ़ती जा रही है। यह सुखद है कि अनेक लोग जीवन में पहली बार कलाकृतियां देखने आते हैं और अनेक विचित्र कलाकृतियों को देख कर परेशान, विचलित और किंकर्तव्यविमूढ़ भी होते हैं।

 

चकाचौंध से दूर:

मोहन महर्षि पिछली अधसदी से लगातार सक्रिय प्रयोगधर्मी रंगकर्मी रहे हैं। पिछले सप्ताह वे पचहत्तर वर्ष के हो गए और उन पर एकाग्र एक आत्मीय आयोजन हुआ। उनके साथ काम करने वाले अनेक अभिनेताओं आदि ने एक सुनिर्मित फिल्म के माध्यम से महर्षि के रंगकार्य, उनकी निर्देशन-पद्धति, प्रशिक्षण आदि पर बहुत सारगर्भित और अंतरंग बातें कहीं। इस सिलसिले में मीता वशिष्ठ, भास्कर घोष, कमल तिवारी, इला अरुण आदि शामिल थे। इसमें संदेह नहीं कि मोहन महर्षि ने प्रयोगधर्मिता का लंबा रंगजीवन बिताया है और वे रंगभाषा के यायावर कहे जा सकते हैं। उनके यहां विचार अपनी रंग-ऐंद्रियता में विन्यस्त होता है। अगर हम कभी इस पर कुछ खोजबीन करें कि हिंदी रंगमंच में भाषा को लेकर गहरी सजगता और रंगवैचारिकता का वृत्तांत क्या बनता है, तो उसमें मोहन महर्षि का काम महत्त्वपूर्ण साबित होगा।

मिथिलेश्वर को इस बार श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान प्रदान किया गया। वे आरा में रह कर भारतीय ग्रामीण जीवन का सर्जनात्मक अन्वेषण करते रहे हैं। उन्हें भारतीय भाषाओं को हाशिये पर ढकेले जाने की व्यथा सताती है। उनके सम्मान-समारोह में कई बड़े हिंदी लेखक मौजूद थे। लेकिन इस समारोह की कोई रिपोर्ट किसी अंगरेजी अखबार में नहीं छपी और हिंदी में भी कई अखबारों के लिए यह खबर नहीं बनी। मीडिया का जो सांस्कृतिक क्षरण तेजी से हो रहा है, उसका यह ताजा और दुखद उदाहरण है। चोर-उचक्के, अपराधी, लगातार झूठ बोलते या पाखंड करते राजनेता आदि ही खबरों में छाए रहते हैं- उनमें एक सच्चे विनम्र और गांव-देहात की व्यथा-कथा कहने वाले हिंदी लेखक के लिए जगह कहां!

चित्रकार सूरज घई उन चित्रकारों में से हैं, जिनका ललित कला के अलावा साहित्य, संगीत, रंगमंच आदि की दुनिया से लंबा और उत्तेजक संबंध रहा है। संबंधों का यह सिलसिला प्रयाग शुक्ल, कृष्ण गोपाल वर्मा, गिरिधर राठी आदि से लेकर पंकज सिंह, मंगलेश डबराल, सविता सिंह आदि लेखकों तक फैला रहा है। सूरज अस्सी के हो गए और उन्हें लेकर एक आयोजन में शिरकत करना प्रीतिकर था। यह जानना भी कि साठ-सत्तर के दशकों के उत्तरार्द्ध और पूर्वार्द्ध दिल्ली में ऐसे थे, जिनके दौरान साहित्य और कलाओं के बीच, कम से कम उसके प्रयोक्ताओं के बीच, संपर्क-संवाद-सहकार सभी थे। आज की दिल्ली उनसे बहुत दूर चली गई दिल्ली है। उनमें साधन-सुविधा-अवसर सभी तेजी से बढ़े और बढ़ रहे हैं, पर संपर्क और संवाद कम हो गए हैं। देश की राजधानी में, जो संस्कृति का बड़ा और गतिशील केंद्र भी है, ऐसी सांस्कृतिक बेखबरी और संवादहीनता आश्चर्यजनक और दुखद एक साथ है।

वैसे सच तो यह है कि जो दिल्ली में हो रहा है वही कमोबेश सारे हिंदी संसार में हो रहा है। यह सोच कर लगभग स्तब्ध रह जाना पड़ता है कि हमने हिंदी में इतने शोरगुल और आलोचनात्मक आपाधापी के बाद भी कलाओं को लेकर कोई सजग रसिकता विकसित नहीं की। संगीत, नृत्य, ललित कलाओं, रंगमंच, लोककलाओं की हिंदी आलोचना बहुत विपन्न है। यह तब जबकि इनमें से अनेक क्षेत्रों में बहुत सृजन-सक्रियता हिंदी अंचल में रही है, भले अब दुर्भाग्य से सूख रही है।

 

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