उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के अंत से पहले ही यह चर्चा शुरू हो चुकी थी कि ‘भविष्य के साम्राज्य ज्ञान के साम्राज्य होंगे’। कितने ही शोषित और हर प्रकार से संसाधन-विहीन नव-स्वतंत्र देशों के समक्ष समस्याओं और चुनौतियों के नए-नए परिदृश्य उभर रहे थे और स्वतंत्रता से बड़ी-बड़ी आशाएं लगाए आमजन इनके संपूर्ण समाधान की अपेक्षा अपने नए शासकों से कर रहे थे। जिन देशों को समर्पित और भविष्य-दृष्टि से युक्त नेतृत्व मिला था, वे यह भली भांति समझते थे कि विकास और प्रगति का रास्ता शिक्षा केंद्रों से ही होकर गुजरेगा। जो इस सच्चाई को समझ सके, जिन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार और गुणवत्ता की ओर ध्यान दिया, उच्च शिक्षा और शोध के लिए संस्थान बनाए, वे ही आगे बढ़ सके। भारत इसी दिशा में आगे बढ़ने वाला उदाहरण माना जाता है। यहां के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व समझता था कि शिक्षा ही प्रगति का मार्ग पुन: प्रशस्त कर सकती है, जिसे विदेशी शासकों द्वारा जानबूझ कर अवरुद्ध किया गया था। संविधान में 6-14 वर्ष के हर बच्चे को निश्शुल्क शिक्षा का अत्यंत विषम परस्थितियों में प्रावधान करना एक साहसपूर्ण कदम था।

भारत की वैश्विक श्रेष्ठता: आधुनिक सफलता से प्राचीन ज्ञान की परंपरा तक

आज विश्व में भारत का जो अग्रणी स्थान अंतरिक्ष विज्ञान, संचार तकनीक, नाभिकीय विज्ञान और शोध के क्षेत्र में बना है, उसका श्रेय देश को आजादी के बाद मिले राजनीतिक और वैज्ञानिक नेतृत्व को ही दिया जाना चाहिए। यह भी अब अध्ययन, शोध और विश्लेषण के आधार पर सिद्ध हो चुका है कि प्राचीन भारत को जो वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठता मिली थी, वह उसकी बौद्धिक क्षमता के मूल आधार पर ही स्थापित हुई थी। ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, अध्यात्म जैसे अनेक क्षेत्रों में नव-ज्ञान सृजन की जो परंपरा भारत ने स्थापित की थी, उसी से प्रभावित होकर विदेशों से अनेकानेक जिज्ञासु भारत में अध्ययन करने आते थे। यहां का दर्शन स्पष्ट था: व्यक्ति स्वयं का जीवन सुचारु रूप से निर्वहन कर सके, ‘सर्वभूत हिते रत:’ के लक्ष्य का क्रियान्वयन करे, धनार्जन अवश्य करे, लेकिन सदाचरण यानी धर्म के मार्ग पर चल कर ही करे। इस प्रकार के जीवन निर्वाह के लिए विनयशीलता आधारशिला थी। आज भारत को इसी सोच को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। परिपूर्ण शिक्षा नीति और उसका अनुपालन इसी चिंतन के इर्द-गिर्द व्यवस्थि किया जाना चाहिए।

बुद्धि, विवेक, विश्लेषण और ‘सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय जरूरी

स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में गहन विचार-विमर्श और बौद्धिक चर्चाओं में बर्ट्रेंड रसेल जैसे चिंतकों का यह विचार भी चर्चित रहा कि मनुष्य अगर केवल ज्ञान प्राप्ति के पीछे पड़ा रहा, तो अपने को समाप्त कर लेगा! ज्ञान प्राप्ति के प्रयास पवित्र प्रेरणा का परिणाम माने जाते रहे हैं। ज्ञान का सदुपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए बुद्धि और विवेक का प्रश्रय अवश्य लेना होगा। जिस कालखंड में आधुनिक विज्ञान में ज्ञान प्राप्ति की पराकाष्ठा थी, परमाणु विखंडन से ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता पाना, वह मिली, लेकिन उसके विवेकहीन दुरुपयोग का परिणाम था हिरोशिमा और नागासाकी। बुद्धि, विवेक, विश्लेषण और ‘सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय’ के लिए ज्ञान के उपयोग की समझ अगर विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ बढ़ी होती, तो आज मनुष्य और प्रकृति के संबंधों में घोर बिगाड़ आने के कारण उत्पन्न समस्याएं इस पृथ्वी के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न न लगा रही होतीं!

इस समय जब विद्वत वर्ग में चर्चा इस वैचारिकता की ओर मुड़ती है, तो इसकी ‘अव्यावहारिकता’ को लेकर ही अधिकाधिक विचार सामने रखे जाते हैं। अनेक व्यक्तिगत अनुभव यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो सकते हैं कि जहां शिक्षा केवल अधिकाधिक धनार्जन के अर्जुन-लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ाई जाती है, वहां इस सोच को स्वीकार्यता कैसे मिलेगी? एक उदाहरण जो सबसे अधिक दोहराया जाता है वह है किसी भी युवा के डाक्टर बनने का। कितनी स्कूली पढ़ाई, कितनी कोचिंग, कितनी भारी-भरकम फीस, कठिन प्रतियोगी परीक्षा, सफलता को लेकर कितना लंबा असमंजस, कितने वर्ष, तब मिलती है पहली डिग्री। फिर परा-स्नातक उपाधि पाना तो इससे कठिन होगा ही! इस सबमें परिवार पर कितना बोझ पड़ता होगा? यह समस्या केवल मेडिकल तक सीमित नहीं है। यह स्थिति हर शिक्षित युवा के समक्ष किसी न किसी ढंग से अनेक प्रकार के तनाव और आशंकाएं पैदा कर रही है।

इस स्थिति से निपटने के लिए भारत की प्राचीन संस्कृति और साहित्य में बहुत कुछ उपलब्ध है। भारत की आध्यात्मिक समझ उसके विचारकों और दार्शनिकों की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में गिनी जा सकती है। जहां लालच नहीं होगा, वहां ईर्ष्या, द्वेष तथा अनावश्यक मनमुटाव स्वत: कमजोर हो जाएंगे। समाज को हिंसा और संघर्ष में अपनी ऊर्जा व्यय नहीं करनी होगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इस मूलभूत मूल्यों और दर्शन-तत्त्व को देश की नीतियों में समुचित स्थान मिला होता, प्राचीन परंपराओं में जो व्यावहारिक थीं उन्हें भी कृत्रिम आधार पर छोड़ न दिया गया होता, तो संभवत: पिछले सात दशक में सामाजिक परिदृश्य तेजी से सकारात्मकता की ओर बढ़ा होता। आज ऐसा नहीं है, हर ओर अविश्वास पसरा हुआ है, व्यग्रता और उग्रता अनेक प्रकार से लगातार हर तरफ बढ़ते ही दिखाई दे रहे हैं। इनके परिणामस्वरूप हिंसा बढ़ी है। महिलाओं के खिलाफ जो दरिंदगी की घटनाएं सामने आती हैं, उसका मुख्य कारण सार्वभौमिक स्तर पर नैतिकता और मूल्यों के ह्रास तथा परंपरागत संस्कृति तथा उससे लगातार बढ़ती दूरी ही है।

सामस्याओं के तात्कालिक समाधान आवश्यक हैं, लेकिन दीर्घकालीन तथा सशक्त समाधान की रणनीति भी बनाने की आवश्यकता है। केवल शिक्षा-व्यवस्था या कानून-व्यवस्था के अनुपालन पर सारा उत्तरदायित्व नहीं डाला जा सकता, इसमें समाज का उत्तरदायित्व प्रथम स्थान पर स्वीकार करना होगा।