कुछ दिन पहले हमने स्वतंत्रता दिवस मनाया और उस बर्बरता तथा हिंसा को भी याद किया जो पाकिस्तान बन जाने के बाद फैली थी। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस हम 14 अगस्त को मनाते आए हैं पिछले पांच वर्षों से। इस बार प्रधानमंत्री ने फिर कहा कि हमको कभी नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान बनने के बाद लाखों परिवार बर्बाद हुए थे। माना जाता है कि इतने बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन न पहले कभी हुआ है और न बाद में। आंकड़े बताते हैं कि कोई डेढ़ करोड़ मुसलमानों को भारत से पाकिस्तान जाना पड़ा और तकरीबन उतने हिंदू और सिख पाकिस्तान छोड़ कर यहां आए थे।

उन परिवारों में एक मेरे पिता भी थे, लेकिन मेरे बचपन में इसके बारे में कोई बात तक नहीं करता था। बरसों बाद 1997 में जब बंटवारे के पचास साल हो गए, तब मैंने अपनी दादी से पूछा उन दिनों के बारे में, इसलिए कि जिस अखबार में मैं काम करती थी, उस समय उसके संपादक ने मुझे बंटवारे पर लिखने के लिए कहा था। दादी से जब मैंने पूछा कि वे कहां थीं चौदह अगस्त को, तो उन्होंने बताया कि उस दिन वे मसूरी में थीं, जहां मेरे सत्रह साल के चाचा का इलाज चल रहा था तपेदिक का।

जब लाहौर पहुंचे, तो देखा कि चारों तरफ आग जल रही थीं

मेरी दादी के शब्दों में यह थी उस दिन की कहानी। ‘हमने रेडियो पर जब सुना कि पाकिस्तान बन गया है, तो फौरन ट्रेन पकड़ी लाहौर के लिए। हम लोगों को पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच चुनने को कहा गया था और हमने पाकिस्तान में रहने का फैसला किया, क्योंकि हमारा घर, हमारी जमीनें सब वहां थीं। जब लाहौर पहुंचे, तो देखा कि चारों तरफ आग जल रही थीं और परेशान लोग इधर-उधर भाग रहे थे। हमारा मुनीम आया था हमें घर ले जाने।

उसने कहा- बीबीजी अब आपके लिए यहां कोई जगह नहीं है। आप अमृतसर के लिए पहली ट्रेन पकड़ लो। दिन भर हम स्टेशन पर ही रहे, लेकिन गाड़ियां इतनी भर-भर के जा रही थीं कि हमको शाम तक जगह नहीं मिली। अमृतसर पहुंचने के बाद पता लगा कि हमसे पहले जितनी भी गाड़ियां पहुंची थीं अमृतसर, उनमें सिर्फ लाशें थीं। हम पता नहीं कैसे बच गए।’ मैंने जब उनसे पूछा कि इनके बारे उन्होंने पहले क्यों नहीं मुझे बताया, तो उन्होंने कहा कि कुछ चीजें इतनी दर्द से भरी होती हैं कि उनको भुलाना बेहतर है।

Jansatta Sarokar, Tavleen Singh Vaqt ki nabz,
तवलीन सिंह का कॉलम वक्त की नब्ज।

इस साल उन दिनों की यादें थोड़ी और कड़वी हो गई हैं, इसलिए कि पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष और असली प्रधानमंत्री एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमें हिंदुओं के लिए नफरत के सिवाय और कुछ नहीं है। पहलगाम हमले से कुछ दिन पहले उन्होंने अपने एक भाषण में स्पष्ट किया कि हिंदुओं के साथ मुसलमानों का शांति से रहना किसी हाल में संभव नहीं है। पिछले सप्ताह अमेरिका की भूमि से उन्होंने इसी किस्म का भाषण दिया और धमकी यह भी दी कि अगर भारत उन नदियों पर बांध बनाने की कोशिश करता है, जिनका पानी पाकिस्तान जाता है सिंधु समझौते के तहत, तो उन बांधों को पाकिस्तान अपनी मिसाइलों से उड़ा देगा। याद दिलाया कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति है और अगर वह डूबता है, तो वह अपने साथ ‘आधी दुनिया’ को भी डुबोएगा।

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इस भाषण से स्पष्ट होता है कि जब तक फील्ड मार्शल आसिम मुनीर के हाथों में पाकिस्तान की बागडोर रहेगी, तब तक भारत के साथ दोस्ती मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। एक बात जो स्पष्ट नहीं है अभी, वह यह कि ऐसे व्यक्ति के साथ डोनाल्ड ट्रंप क्यों इतनी दोस्ती कर रहे हैं इन दिनों? क्या इसलिए कि वह इस धोखे में हैं कि पाकिस्तान में वास्तव में तेल के भंडार हैं, जिनका लाभ वे उठा सकते हैं? क्या भूल गए हैं अमेरिका के राष्ट्रपति कि उसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की एक छावनी में छिपा कर रखा था पाकिस्तान के जनरलों ने? उसको अमेरिका ने ढूंढ़ कर जान से मारा न होता, तो शायद आज भी उसको शरण मिल रही होती।

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ट्रंप यह भी भूल गए हैं कि अपने पहले शासनकाल में उन्होंने मुसलमानों के आने पर पाबंदी लगाई थी, यह कह कर कि उनको जिहादी आतंकवादी नहीं चाहिए अमेरिका में। लगता है कि अपनी इस बात को ट्रंप भूल गए हैं, वरना एक ऐसे जनरल के साथ दोस्ती न करते जिसके देश को दुनिया जिहादी आतंकवाद का केंद्र मानती है।

डोनाल्ड ट्रंप क्या भूलना चाहते हैं, क्या याद करना चाहते हैं, इसके बारे में कोई नहीं जानता है, लेकिन रही बात हमारे याद करने और भुलाने की, तो समझ में नहीं आता है कि बंटवारे की यादें ताजा रखने में हमारा फायदा है या उनको भुलाने में। मेरी दादी के लिए उन यादों में इतना दर्द था कि उन्होंने उनको भुलाना पसंद किया। इसके बावजूद उनके दिल में एक गहरी कड़वाहट हमेशा थी।

रही बात मेरे पिताजी की, तो उनके आखिरी दिनों तक उन्होंने अपने पुराने पाकिस्तानी दोस्तों से वास्ता रखा, भारतीय सेना में आला अफसर होने के बावजूद। ऐसी दोस्तियों का वह जमाना लगता है पूरी तरह गुजर गया है अब। इसकी वजह एक ही है कि पाकिस्तान के सैन्य शासक ऐसे हैं जिनको भारत से इतनी नफरत है कि दूसरे देशों में भी जब जाते हैं, तो इस नफरत को अपने भाषणों में उगल देते हैं।

जितनी भी शांति लाने की कोशिशें हुई हैं हमारे देशों के बीच, वह सारी हुई हैं हमारी तरफ से, लेकिन अब ऐसा दौर आया है जिसमें दोस्ती दूर की बात, दोस्ती की बातें तक करना गद्दारी माना जाता है अपने देश में आपरेशन सिंदूर के बाद। वे दिन चले गए हैं जब शांति लाने के लिए दिल्ली से वाघा जाते थे शांति के दूत हाथों में मोमबत्तियां लिए हुए।