पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आ चुके हैं और कांग्रेस की राजनीतिक हालत बद से बदतर हो गई है। लगता है कि नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी का कांग्रेसमुक्त भारत का सपना लगभग साकार हो गया है और जल्द ही कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचेगा। मोदी और उनकी पार्टी के लिए यह बड़ी उपलब्धि है। जश्न वाजिब है, पर उसके साथ यह प्रतिबद्धता भी आनी चाहिए कि वे देश को उसी दिशा में ले जाएंगे, जिसकी आस में आम जनता ने उन्हें वोट दिया है।

वैसे मोदी सरकार ने अपने पिछले दो सालों के शासनकाल में बहुत सारे ऐसे कदम उठाए हैं, जिनसे लोगों को भाजपा में कांग्रेस का विकल्प ही नहीं दिखने लगा है, बल्कि कांग्रेसी विचार और नीति से एकदम अलग नई सोच और तौर-तरीके के प्रति उनका आकर्षण बढ़ा है। मोटे तौर पर भाजपा का राजनीतिक कार्यक्रम बहुमतवाद (मेजॉरिटीइज्म) से प्रेरित है। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी तबके के विरोध के बावजूद मोदी सरकार अपने एजेंडे पर कायम रही है। उसका विश्वास है कि देश का बहुमत यही चाहता है और इसी वजह से भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी बन कर उभरी है और आज तक की राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टी बन कर रह गई है। यह विषम स्थिति सिर्फ कांग्रेस के लिए नहीं, देश के लिए भी है, क्योंकि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कम से कम दो राष्ट्रीय पार्टियों का होना जरूरी है। अपने लिए न सही, पर राष्ट्रीय हित के लिए कांग्रेस को फिर से अपने को परिभाषित करना होगा, नई रिवायत गढ़नी होगी।

फिलहाल कांग्रेस के सामने दो बड़ी समस्याएं हैं। पहली नेतृत्व की है और दूसरी सोच की। राहुल गांधी राजनीतिक परिवार से जरूर हैं, पर प्रभावशाली नेता होने का कोई गुण उनमें नहीं है। असिलयत यह है कि वे न तो अपनी बात समझा पाते हैं और न ही वे दूसरे की बात समझ पाते हैं। वे संवाद-विहीन नेतागिरी कर रहे हैं और उसके परिणाम हमारे सामने हैं। अब कांग्रेस को ऐसा दिमाग और ऐसी जुबान ढूंढ़नी है, जो तत्परता से सीधा संवाद करे। माना कि कंग्रेसी मानस पटल पर वंशवाद हावी है और इसी की वजह से ऐनक लगा कर भी वे गांधी परिवार से आगे नहीं देख पाते हैं, पर अब उन्हें पार्टी के अंदर से ही नया नेता टटोल कर निकालना चाहिए। प्रियंका गांधी अपने भाई का विकल्प नहीं हैं। सोनिया गांधी भी नहीं हैं। दस-पंद्रह साल पहले वे थीं, पर उन्होंने सीधे तौर पर सत्ता संभालने से इंकार कर दिया था। पार्टी की अध्यक्षता जरूर की और दो बार मनमोहन सिंह की सरकार भी बनवाई, पर वे दिन और थे।

नरेंद्र मोदी के उदय ने कांग्रेस की ऊहापोह की राजनीति को जड़ से उखाड़ दिया है। वे आक्रामक और बहुमतवाद के प्रखर प्रवक्ता हैं। उन्होंने सोच-समझ कर अपना कथानक रचा है, जो कांग्रेस के ढुलमुल रवैए को कठघरे में खड़ा करता है। इसके विपरीत बदलते वक्त और नई चुनौतियों के सामने कांग्रेस अपनी घिसी-पिटी मानसिकता के चलते मोदी के यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने में विफल है। करिश्माई नेतृत्व के आभाव में शक्तिशाली राजनीतिक कथानक अक्सर काम आ जाता है। पर कांग्रेस के पास आज दोनों ही नहीं हैं।

कांग्रेसी बहुत है, पर कांग्रेसवाद को परिभाषित करने वाला कोई नहीं है। महात्मा गांधी के होते हुए और उनके बाद कांग्रेस में ही दक्षिणपंथी दिग्गज नेता होने के बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस को फेबियन सोशलिज्म लक्ष्य के तहत परिभाषित किया था। गांधीजी अपनी सभाएं राम के नाम से शुरू करते थे और उन्हीं के नाम पर खत्म करते थे। राम के नाम में भी उनका सर्वधर्म समभाव प्रकट होता था। वे इसीलिए सबके प्रिय थे। नेहरू ने गांधी की तरह राम का नाम कभी नहीं लिया, पर अपने तरीके से धर्मनिरपेक्षता को संविधान में और भारतीय पटल पर स्थापित किया। अपनी प्रभावशाली रचनात्मक सोच और संवेदनशील संवाद की बिना पर ही नेहरू ने कांग्रेसवाद या नए भारत के मूल्यों को रचा था। ये मूल्य गांधीवादी होते हुए भी एकदम आधुनिक थे। उनकी जड़ें भारतीय इतिहास में तो थीं, पर उनके फल विदेशी सूर्य की ताप में पके थे। जैसा नेहरू ने सत्तर साल पहले किया वैसा ही कांग्रेस को आज करना होगा- उसे देशवासियों की महत्त्वाकांक्षा को समझना होगा और नेहरू-गांधी की विरासत को नई दिशा और गति देनी होगी। नेहरू ही कांग्रेस की सोच का लंगर हैं, उन्हीं के सहारे कांग्रेस इस तूफान में अपनी स्थिरता और विश्वसनीयता का फिर से परिचय दे सकती है।

समस्या यह है कि कांग्रेसी नेताओं में इतना साहस नहीं है कि नए नेतृत्व या फिर नया कथानक या फिर दोनों विकल्प एक साथ तलाशने के बारे में ठोस तरीके से सोच सकें। वे नेहरू के राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक दर्शन की माला जरूर जपते हैं, पर उनको यह खयाल नहीं है कि उसके सबसे जरूरी मनके कब के गिर चुके हैं। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, न्याय या समानता अब भी उतनी ही जरूरी है, जितनी पहले थी, पर उनका संदर्भ बदल गया है। संदर्भ को समझाना और अपने को फिर से परिभाषित करना एक नेता का काम है, जैसा नरेंद्र मोदी ने किया है। दुर्भाग्यवश कांग्रेस के पास ऐसी समझ रखने वाला कोई नेता नहीं है, जो आगे आकर अपने साहस और पुरुषार्थ का परिचय दे। दरबारगीरी और सामंतशाही की दीमक उसके अंदर तक पैठ गई है।

अगर कांग्रेस नहीं, तो देश के राजनीतिक विचारकों को सोचना होगा कि बहुमतवाद का वैकल्पिक कथानक/ संलाप क्या हो सकता है। बहुमतवाद का जवाब क्या है? राष्ट्रवाद का मतलब क्या है? हम हिंदुस्तानी हैं या इंडियन? हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व में भेद है कि नहीं? उदारवाद के दिन लद गए हैं या फिर इस पुराने वाद पर नया वाद होना चाहिए? सत्तारूढ़ पार्टी ने जो सोच का खाका दिया है उसकी वाजिब समालोचना क्या हो सकती है?

राहुल गांधी या कांग्रेस इतनी जरूरी नहीं है, जितनी लोकतंत्र के लिए कई तरह की वैचारिक धाराएं जरूरी हैं। क्षेत्रीय स्तर पर कई पार्टियां हैं, जो अपने करिश्माई नेताओं के बूते पर या फिर जोड़तोड़ के बल पर सत्ता में हैं, पर उनमें से किसी में वह विजन नहीं दिखता, जो देश के लिए सुगम हो। एक राष्ट्र, एक मुद्दा, एक ही रास्ता और एक ही पार्टी अपने को स्वयं लील लेने वाला भंवर है, जिससे हमें बचना है। सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते हम कांग्रेस से ही पहली उम्मीद रख सकते हैं, पर वह इस उम्मीद पर खरी उतर पाएगी या नहीं, यह वक्त ही बताएगा।