शीश महलों की बात जबसे चली है दिल्ली में, मुझे हैरानी सिर्फ इस बात को लेकर हुई है कि क्या मेरे पत्रकार बंधु जानते नहीं हैं कि दिल्ली में तकरीबन हर सरकारी कोठी में शीशमहल हैं! माना कि उस व्यक्ति के घर में शीशमहल नहीं होना चाहिए था, जिसके राजनीतिक दल का नाम आम आदमी पार्टी है और जिसने कभी कहा था कि उसको न सरकारी बंगला चाहिए, न गाड़ी। अगर कोई बात अब साबित हो गई है, तो सिर्फ ये कि अरविंद केजरीवाल और अन्य नेताओं के बीच थोड़ा-सा भी अंतर नहीं है आज। लेकिन भारतीय जनता पार्टी जब केजरीवाल के शीशमहल को आने वाले चुनाव में इतना बड़ा मुद्दा बना रही है, तो ध्यान में रखना चाहिए कि शीशमहल और भी हैं बहुत सारे और कुछ उनके अपने मंत्रियों के घरों में।

जिन चीजों को भाजपा के प्रवक्ताओं ने केजरीवाल के शीशमहल में गिनवाई हैं ऐसे जैसे कि उनके होने से साधारण सरकारी बंगला शीशमहल बन जाता है, वही चीजें मैंने देखी हैं अनगिनत सरकारी बंगलों में। मिसाल के तौर पर, मैंने शायद ही कोई सरकारी कोठी देखी है किसी मंत्री की, जिसमें संगमरमर के फर्श न लगवाए हों, महंगे परदे न टंगे हों और डिजाइनर मेज-कुर्सियां न हों। आलीशान जिम भी देखें हैं मैंने और लाखों रुपयों के झूमर भी चमकते हुए। ‘सौना’ और ‘जैकुजी’ नहीं देखी हैं, लेकिन जनता के पैसे से जब खरीदी जाती हैं ऐशो-आराम की चीजें, तो ये भी क्यों न हों?

हमारी बदकिस्मती है कि अपने जनप्रतिनिधियों को इतना बिगड़ने दिया है कि उनको राजा-महाराजाओं की तरह रहने का शौक है अब। नतीजा यह कि कई लोग संसद में पहुंचने के लिए उतावले रहते हैं जनता की आवाज उठाने नहीं, बल्कि सिर्फ इसलिए कि दिल्ली के लटयंस जोन में सरकारी कोठी मिल जाए। कई ऐसे भी हैं कि एक बार ऐसी कोठी मिल जाने के बाद उसको छोड़ना नहीं चाहते हैं। इस आदत को हमारे सियासतदानों ने मार्क्सवादी और समाजवादी देशों की नकल करके लगाई है। लोकतांत्रिक देशों में जनता के प्रतिनिधि रहते हैं उन आम आदमियों के बीच, जिन्होंने उनको अपने वोट दिए हैं। अमेरिका और यूरोप में अपने पैसों से किराए के घरों में रहते हैं राजनीतिक।

अपने इस गरीब देश में तो बिल्कुल ऐसा नहीं होना चाहिए कि जनता के पैसों से शीशमहल बनें, लेकिन हमारी पुरानी समाजवादी आदतें नहीं टूटी हैं। रही बात केजरीवाल के शीशमहल की तो उनको ज्यादा शर्म आनी चाहिए, इसलिए कि उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन को आधारित किया है इस झूठ पर कि वे आम आदमी थे, हैं और रहेंगे। अब मालूम हो गया है कि उनमें भी सत्ता में रहने के बाद वही ऐशो-आराम का चस्का लग गया है जो औरों को है। क्या इस जानकारी के मिलने के बाद दिल्ली के मतदाता उनको अगले महीने निकाल फेंकेंगे, यह नतीजों के आने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन दिल्लीवासी होने के नाते इतना जरूर कहूंगी कि उन्होंने अपने वादे पूरे नहीं किए हैं।
इतनी बेहाल है दिल्ली, कि सांस लेना मुश्किल है इस मौसम में। वायु प्रदूषण कम करने की केजरीवाल की सारी योजनाएं विफल रही हैं।

वादा किया था कि यमुना साफ करेंगे, लेकिन इस वादे को पूरी तरह भूल गए मुख्यमंत्री बनने के बाद। जब महिलाओं ने छठ पूजा की यमुना में खड़े होकर इस साल, पानी इस नदी का इतना जहरीला था कि पानी न रहकर सफेद झाग बन गया था, न जाने किस तरह के जहरीले रसायनों के मिलावट के कारण। जब भी इन चीजों के बारे में केजरीवाल या उनके मंत्रियों से पूछा जाता है तो बहाने हजार सूझते हैं उनको जैसे वायु प्रदूषण तो उत्तर भारत की समस्या है सिर्फ दिल्ली की नहीं और यमुना में जहर भी कहीं और से बहकर आता है। एक पूरे दशक सत्ता में रहने के बाद उनको शर्म आनी चाहिए ऐसे बहाने करते हुए।

निजी तौर पर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ होती है जब हर दूसरी गली के किनारे दिखते हैं सड़ते कूड़े के ढेर, जिनमें लावारिस गाएं प्लास्टिक खाती दिखती हैं और लावारिस कुत्ते भी। उत्तर की तरफ से जब दाखिल होते हैं यात्री देश की राजधानी में तो दिखते हैं कचरे के ऊंचे पहाड़ जिनमें से लगातार दिल्ली की हवाओं में रिसता है जहर। जिन गरीबों को उन बस्तियों में रहना पड़ता है जो इन कचरे के पहाड़ों के आसपास हैं, उनका क्या हाल होता होगा, आप खुद सोचिए।

तो क्या केजरीवाल ने कुछ भी अच्छा नहीं किया है अपने लंबे शासनकाल में? ऐसा भी नहीं कह सकते। मैंने कुछ इलाकों में सरकारी स्कूलों में ऐसे सुधार देखें है कि निजी स्कूल जैसे दिखते हैं। मैंने मोहल्ला क्लिनिक भी ऐसे देखे हैं, जिनमें इलाज और सफाई इतनी अच्छी है कि यकीन करना मुश्किल है कि ये सरकारी स्वास्थ्य केंद्र हैं। इसलिए काम तो हुआ है कुछ क्षेत्रों में जिनकी दाद केजरीवाल को मिलनी चाहिए, लेकिन इतनी नहीं जितनी वे समझते हैं कि उनको मिलनी चाहिए।

दिल्ली वाले तंग आ गए हैं केजरीवाल के तौर-तरीकों से इतना कि जब उनको जेल भेज दिया गया था, एक जुलूस तक नहीं निकला उनके समर्थन में। तो क्या पच्चीस वर्ष सत्ता से बाहर रहने के बाद भारतीय जनता पार्टी को इस बार मौका देंगे दिल्ली के मतदाता? ये तभी मालूम पड़ेगा, जब परिणाम आएंगे, लेकिन इतना जरूर कहना चाहती हूं कि शीशमहल को मुख्य मुद्दा बनाना बेवकूफी है। शीशमहल इतने हैं दिल्ली की सरकारी कोठियों में कि यह कोई मुद्दा ही नहीं है। आंदोलन अगर होना चाहिए, तो यह कि जनप्रतिनिधियों को भविष्य में सरकारी कोठियां नहीं मिलनी चाहिए। उनको रहना चाहिए आम मतदाताओं के बीच आम आदमियों की तरह।