कर्नाटक के चुनाव नतीजों में कई संदेश छिपे हैं। मेरी नजर में सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए यह है कि राजनीति में अहंकार बड़े-बड़े राजनेताओं को इतनी जोर से धरती पर पटकता है कि होश उड़ जाते हैं। कर्नाटक में जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे महारथी प्रचार करने गए थे, तो इतना घमंड, इतना अहंकार था उनके भाषणों में कि जैसे उनके सामने कोई मुकाबला ही नहीं था। गृहमंत्री अंत तक पत्रकारों से कहते रहे कि पूर्ण बहुमत से जीतने वाली है भाजपा। अपनी जीत पर इतना विश्वास था गृहमंत्री को कि एक भाषण में कह दिया कि कांग्रेस अगर जीतेगी कर्नाटक में तो दंगे हो जाएंगे। शायद इरादा था मतदाताओं को सावधान करना, लेकिन उनकी यह बात धमकी जैसी लगी।

कर्नाटक में सबसे ज्यादा प्रचार किया प्रधानमंत्री ने। इतना प्रचार कि ऐसा लगा कि मुद्दा इस चुनाव में नरेंद्र मोदी खुद थे। उनके हर भाषण में उन्होंने अपने आप को केंद्र में रखा, कभी यह कह कर कि उनको गालियां देने के अलावा कांग्रेस कुछ और नहीं करती है। एक बार तो गालियों का हिसाब भी लेकर गए मतदाताओं के पास, यह कह कर कि उनके अफसरों ने गालियों की सूची बनाई है, जिससे पता लगा कि इक्यानबे गालियां दी गई हैं उनको। जब इस शिकायत ने कोई असर नहीं किया, तो अपने भाषणों में काल्पनिक बातें सुनने को मिलने लगीं। कभी बजरंग दल का सीधा नाता जोड़ा हनुमान भगवान से, तो कभी यह कह डाला कि सोनिया गांधी कर्नाटक को भारत से अलग करना चाहती हैं।

कर्नाटक में असली मुद्दे थे भ्रष्टाचार, कुशासन, महंगाई और बेरोजगारी, जिनको भारतीय जनता पार्टी के महारथियों ने पूरी तरह अनदेखा किया अपने अहंकार के नशे में। नतीजा यह कि जिस राज्य को भारत की यह अति-ताकतवर पार्टी अपने लिए दक्षिण का दरवाजा मानती थी, उसमें इतनी बुरी तरह हारी है कि मोदी भक्त भी इन दिनों मौन और मायूस दिख रहे हैं। जो लोग सोशल मीडिया पर रोज हल्ला मचाया करते थे, आजकल उनका कोई शोर नहीं सुनाई देता।

अहंकार का रोग एक दौर में कांग्रेस पार्टी में इतना दिखता था कि इस दल के छोटे-मोटे कार्यकर्ता भी रोब दिखाया करते थे। गांधी परिवार के सदस्य तो ऐसे पेश आते थे जैसे कि भारत पर राज करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। भुलाने पर भूल नहीं सकती हूं मैं सोनिया गांधी की वह बात, जो उन्होंने मुंबई में 2017 में ‘इंडिया टुडे कानक्लेव’ में कही थी। उनसे जब किसी ने सवाल किया कि क्या मोदी दुबारा प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो उनका जवाब था, ‘नहीं। हम उनको बनने नहीं देंगे।’

कर्नाटक में इतनी शानदार जीत हासिल करने के बाद भय है कि अहंकार का नशा फिर से न चढ़ने लगे गांधी परिवार पर। इस देश के मतदाता बेशक शिक्षित न हों, लेकिन दूर से पहचान जाते हैं अहंकार के आसार। मगर इस बात को बहुत जल्दी भूल जाते हैं हमारे राजनेता। कभी इतने अनपढ़ और नासमझ थे मतदाता कि किसी राजनेता की शक्ल पसंद आए, तो उसको वोट दे दिया करते थे। मगर देश जैसे बदल गया है वैसे मतदाता भी समझदार हो गए हैं। समझ गए हैं कि जो लोग उनका वोट लेने के बाद भी उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं लाते हैं, उनको चुनाव आने पर कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए।

कर्नाटक में कई महीनों से भ्रष्टाचार को लेकर इतना परेशान थे लोग कि सरकारी ठेकेदारों ने टीवी कैमरों के सामने कहा था कि उनको अपने हर सरकारी सौदे का चालीस फीसद हिस्सा अधिकारियों और राजनेताओं की जेबों में डालना पड़ता है। यह मुद्दा बनाया कांग्रेस ने इस चुनाव में, तो भारतीय जनता पार्टी का अहंकार इतना था कि उन्होंने राजीव गांधी के दशकों पुराने एक भाषण का उल्लेख करके जवाब दिया कि कांग्रेस के दौर में पचासी फीसद खा जाते थे अधिकारी।

मैंने जब यह बात सुनी भाजपा के प्रवक्ताओं से, तो हैरान रह गई, इसलिए कि मैं राजीव गांधी की उस सभा में थी, जहां उन्होंने स्वीकार किया कि सरकारी योजनाओं में इतने छेद हैं कि रुपए में से सिर्फ पंद्रह पैसे लाभार्थियों तक पहुंचते हैं। उनकी इस बात को तोड़-मरोड़ कर मुद्दा बनाया भाजपा के प्रचारकों ने। इससे भी कुछ हासिल नहीं हुआ।

जब ये चालें नहीं चलीं, तो टीपू सुल्तान को मुद्दा बनाया गया, जैसे कि कर्नाटक का हर मुसलमान दोषी हो आज भी टीपू सुल्तान की गलतियों के लिए। नतीजा यह कि मुसलमानों का तकरीबन सारा वोट कांग्रेस की झोली में गया। दलित और पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का भी वोट कांग्रेस को गया इस बार, इसलिए कि महंगाई ने गरीब वर्गों की ऐसी कमर तोड़ डाली है कि गैस सिलिंडरों की कीमत भी मुद्दा बन गई।

कांग्रेस पार्टी के लिए 2014 के बाद यह सबसे बड़ी जीत है, लेकिन इतनी शानदार जीत के बाद भी कर्नाटक के बड़े नेता मुख्यमंत्री पद के लिए ऐसे लड़ने लगे कि कुछ दिनों के लिए ऐसा लगा कि अपनी थाली में वे खुद छेद कर डालेंगे। गलती कुछ कांग्रेस के ‘आला कमान’ की भी थी। लोकतंत्र जब मजबूत होता है, तो उसूलों से चलता है, यानी उसी को मुख्यमंत्री बनने का अधिकार होता है, जिसके लिए अधिकतर विधायकों का मत पड़ता है। ऐसा न करके फैसला कांग्रेस अध्यक्ष ने ‘आला कमान’ पर छोड़ दिया यह भूल कर कि पार्टी अध्यक्ष के ऊपर कोई आला कमान नहीं होना चाहिए।

हकीकत मगर यह है कि कांग्रेस को दशकों से गांधी परिवार ने ऐसे चलाया है जैसे कि राजनीतिक दल नहीं, उनके परिवार की निजी कंपनी हो। दो बार लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस का अहंकार का रोग कम हुआ। अब यही रोग भारतीय जनता पार्टी को लग गया है।