हरियाणा के चुनाव नतीजों से कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात एक पुराने कांग्रेसी दोस्त से हुई। उनसे मिलने गई थी यह जानने कि क्या पार्टी के अंदर अहसास होने लगा है कि गांधी परिवार अब कांग्रेस की ताकत न रहकर गले का फंदा बन गया है। कांग्रेस पार्टी विपक्षी दलों में अकेली राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है और देश की सबसे पुरानी। लेकिन सोनिया गांधी के नेतृत्व में ये राजनीतिक दल न रहकर एक परिवार की निजी जायदाद बन गई है। विरासत में मिली थी सोनिया गांधी को उनके पति के देहांत के बाद और विरासत में वे देना चाहती हैं अपने बेटे और बेटी को। यह बात स्पष्ट कई बार हो चुकी है। चुनाव पर चुनाव हारने के बाद दोष कभी राहुल गांधी पर नहीं पड़ा है। हमेशा किसी न किसी और को दोषी ठहराया जाता है।

राहुल गांधी की छवि सुधारने में जुटी है पूरी पार्टी

इन चीजों को ध्यान में रखते हुए मैं मिलने गई थी अपने इस मित्र से। सवाल जब पूछा मैंने तो उसने मेरी तरफ खामोशी से देखा, फिर चाय की एक चुस्की ली और मेरी तरफ देखने लगा। बहुत देर चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘देखो, कई लोग हैं पार्टी के अंदर जो जानते हैं कि पिछले दस सालों में हमने कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के बजाय सारा ध्यान दिया है राहुल गांधी की छवि सुधारने में। हम जानते भी हैं कि देश को जरूरत है एक ऐसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की जो वास्तव में मोदी को टक्कर दे सके। लेकिन समस्या यह है कि गांधी परिवार ने जिस तरह से कांग्रेस को अपनी निजी कंपनी बना कर रखा है, उसको बदलना बहुत मुश्किल है’।

उनकी बातें सुनकर मैं मायूस हुई। मुझे खुद यकीन है कि देश को जरूरत है एक ऐसे विपक्ष की, जो आने वाले विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को टक्कर दे सके और जो ऐसी राजनीतिक और आर्थिक नीतियां पेश कर सके, जो कभी कांग्रेस पार्टी का आधार थीं। मैं उस पुराने समाजवादी दौर की बात नहीं कर रही हूं, जिसमें गुरबत की हम कद्र किया करते थे, संपन्नता की नहीं।

‘परिवर्तन’ का श्रेय मोदी और नरसिंह राव के नाम है

दुनिया के दरबारों में हमारे राजनेता जाकर गर्व से कहते थे कि भारत एक गरीब देश है, जिसको उनकी मदद की जरूरत है। उस दौर में हाल यह था देश का कि हमारे सेना के अधिकारी जब हथियार खरीदने जाते थे पेरिस, लंदन या वाशिंगटन, तो उनको इतने थोड़े पैसे रोजाना खर्च के लिए मिलते थे कि रहते थे किसी रद्दी होटल में और खाना-पीना कम रखते थे। फिर आया आर्थिक सुधारों का दौर, जिसने भारत की शक्ल बदल डाली। मोदी श्रेय लेते हैं ‘परिवर्तन’ का, लेकिन सच तो यह है कि बदलाव आया था नरसिंह राव के समय, जब उन्होंने लाइसेंस राज को समाप्त किया था और विदेशी निवेशकों को भारत की अर्थव्यवस्था में निवेश करने के लिए आमंत्रित किया था।

कांग्रेस का हाल बिगड़ना शुरू हुआ डाक्टर मनमोहन सिंह के दूसरे शासनकाल में, जब सोनिया गांधी ने तय किया कि अब राहुल गांधी अपनी ‘विरासत’ संभाल सकने लायक हैं। राहुल को उस समय राजनीतिक और आर्थिक मामलों की जानकारी कम थी, इसलिए उनको प्रशिक्षित किया जा रहा था, लेकिन आत्मविश्वास इतना था कि भारत को अपनी जन्मसिद्ध जायदाद मानते थे। बेझिझक उन्होंने कई बार भारत के प्रधानमंत्री के फैसलों के खिलाफ बोला। एक बार उनका अध्यादेश पत्रकारों के सामने फाड़ कर फेंक दिया था। जान गए हम सब कि उनकी हैसियत देश के प्रधानमंत्री से बड़ी थी और उनकी माताजी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भारत सरकार के मंत्रिमंडल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण।

इसके बाद गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस दो लोकसभा चुनावों को बुरी तरह हार चुकी है और पिछले लोकसभा में भी केवल निन्यानबे सीटें आईं। नेता विपक्ष तो बन गए हैं राहुल गांधी, लेकिन उनकी बातों, उनके भाषणों में आ गया है इतना अहंकार कि ऐसे पेश आ रहे हैं जैसे कि प्रधानमंत्री बन चुके हैं। विदेश दौरों में कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव में धांधली न होती, तो मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री न बनते। हरियाणा में चुनाव प्रचार करते हुए उन्होंने कई बार प्रधानमंत्री का मजाक उड़ाया यह कहकर कि उनकी ‘छप्पन इंच की छाती सिकुड़ गई है’। फिर उनकी नकल करते हुए अपनी छाती चौड़ी करके कहते हैं कि पहले मोदी ऐसा चलते थे, लेकिन अब उनके कंधे लटक गए हैं।

इस तरह की बातें करके साबित करते हैं नेता विपक्ष कि अभी तक वही बचकानापन है उनमें जिसकी वजह से उनको कभी ‘पप्पू’ कहा जाता था। जब राजनीति पर बात करते हैं तो अक्सर एक ही ‘नीति’ का जिक्र करते हैं और वह है मोदी को किसी न किसी तरह हटाना ‘मोहब्बत की दुकानें’ जगह-जगह खोलकर। जब बात करते हैं अपनी आर्थिक सोच की तो एक ही नीति बार-बार दोहराते हैं और वह है कि जिस दिन उनकी सरकार बनेगी उनका पहला काम होगा बैंकों से वह पैसा जो मोदी ने ‘अरबपतियों को दिया है’, वह सारा पैसा वे मजदूरों, किसानों और गरीबों को दे देंगे। ये नीतियां नहीं, नारे हैं।

मेरा अपना खयाल है कि अगर दस बरस विपक्ष में रहने के बाद राहुल जी यहीं तक पहुंचे हैं तो समय आ गया है कि कांग्रेस पार्टी किसी न किसी तरह गांधी परिवार के दरबार से निकलकर दोबारा एक राजनीतिक दल बनने की कोशिश करे।

मैंने जब यह बात अपने कांग्रेसी दोस्त से कही तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आई, जिसमें खुशी नहीं, मायूसी दिखी और उसने कहा कि ऐसा होना तो चाहिए। ‘कांग्रेस को अपनी जमीनी ताकत को मजबूत करना चाहिए, ताकि गांव-गांव में जो उनके समर्थक और कार्यकर्ता हुआ करते थे, वे फिर से दिखने लगें। ऐसा होना तो चाहिए, लेकिन क्या ऐसा होना मुमकिन है? मैं नहीं जानता।’

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