कई बार जो होना तय रहता है वह अप्रत्याशित मालूम पड़ता है। कई महीने पहले ही शुरुआती संकेतों ने हमें बता दिया था कि असम और केरल में सरकार की पराजय होगी और दोनों जगह नई सरकार बनेगी। पुदुच्चेरी में भी सत्ता परिवर्तन होगा। पश्चिम बंगाल में वाम दलों और कांग्रेस के अपूर्व रणनीतिक गठजोड़ को पछाड़ते हुए तृणमूल कांग्रेस की सत्ता में वापसी होगी।

उलझन सिर्फ तमिलनाडु को लेकर थी। क्या जयललिता (अन्नाद्रमुक) इतिहास का रुख पलटते हुए लगातार दूसरी बार सत्ता में आएंगी? या, क्या करुणानिधि अपनी उम्र को धता बताते हुए बानबे साल में मुख्यमंत्री बनेंगे?

जैसा कि जाहिर है, नतीजे महीनों से लगाए जा रहे कयासों के अनुरूप ही आए हैं- अलबत्ता अब कलाबाजों और कथित चुनावी पंडितों ने इन चुनावों को लेकर एक रहस्य का ताना-बाना बुन दिया है।

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को अपने भीतर झांकने की जरूरत है। कड़वी हकीकत यह है कि दोनों में से किसी का भी वास्तव में राष्ट्रीय प्रभाव नहीं है। हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस की मौजूदगी सीमित है और दक्षिणी तथा पूर्वी राज्यों में भाजपा हाशिये की पार्टी है। काफी सारा स्पेस क्षेत्रीय दलों ने घेर रखा है।

दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस के लिए चिंतित होने की वजहें ज्यादा हैं। जहां तक भाजपा की बात है, अगले तीन साल तक उसे केंद्र की सत्ता में रहना है और वह यह दम भर सकती है कि बिना अपनी कोई राज्य सरकार गंवाए उसने एक प्रमुख राज्य (असम) को फतह कर लिया। दूसरी तरफ, ताजा चुनावों में अपने दो राज्य गंवाने के बाद कांग्रेस के पास अब केवल एक प्रमुख राज्य (कर्नाटक) की सत्ता है।

उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से सबसे बड़े राज्य समेत सात राज्यों की बहुत अहम चुनावी लड़ाई में उतरने से पहले अपनी रणनीति को फिर से मांजने के लिए दोनों पार्टियों के पास सात महीनों का वक्त है। उत्तर प्रदेश में जीत की संभावना, फिलहाल, दो ताकतवर क्षेत्रीय दलों- सपा और बसपा- के बीच बंटी हुई है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास बचाने को तीन-तीन राज्य हैं- भाजपा को गोवा, गुजरात और पंजाब को बचाना है और कांग्रेस को हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और उत्तराखंड को। इस लिहाज से, इस वक्त दोनों के बीच पलड़ा लगभग बराबर है।

‘राष्ट्रीय’ पार्टियों की प्रासंगिकता में मेरा पक्का विश्वास रहा है, क्योंकि मैं मानता हूं कि राष्ट्र-निर्माण और राष्ट्रीयता की भावना को परिपुष्ट करने के लिए कम से कम दो राष्ट्रीय पार्टियों का होना जरूरी है, जो केंद्र में सरकार का गठन या नेतृत्व कर सकें।

भारी भूलें
भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने 2016 के चुनावों के दौरान भारी भूलें की हैं। भाजपा ने एसएनडीपी को तोड़ कर एक राजनीतिक दल को वजूद में लाने और उससे गठजोड़ करने की गलती की, इस उम्मीद में कि केरल के लोगों को धार्मिक आधार पर बांटा जा सके। उसे सिर्फ एक सीट पर जीत मिली। कांग्रेस ने असम में एआइयूडीएफ (और बीपीएफ) से गठजोड़ न करने की गलती की, इस डर से कि ऐसे गठजोड़ के चलते वोटों का ध्रुवीकरण हो जाएगा, और भाजपा की जीत की राह प्रशस्त होगी।

चुनावी गर्दो-गुबार थम जाने के बाद भाजपा और कांग्रेस दोनों को अपने भीतर झांकना है और 2019 की बड़ी चुनौती के लिए खुद को तैयार करना है। अगले तीन साल के मद््देनजर दोनों के सिर पर बहुत बड़ी जिम्मेदारियां हैं। जहां तक भाजपा की बात है, उसे आठ फीसद से अधिक की वृद्धि-दर हासिल करने की क्षमता प्रदर्शित करनी है, करोड़ों बेरोजगारों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने हैं और सामाजिक शांति तथा सौहार्द को बनाए रखना है। कांग्रेस को फिर से यह दिखाना है कि वह शासन चलाने की स्वाभाविक पार्टी है। उसे पार्टी संगठन को गांव/ कस्बे से लेकर ब्लॉक, जिले और राज्य स्तर तक पुनर्गठित करना होगा, जिनमें से बहुत सारी इकाइयां आज केवल कागज पर हैं।

दोनों पार्टियों में से किसी को भी सलाह दे सकने की स्थिति में मैं नहीं हूं। भाजपा के लिए, मैं एक विपक्षी पार्टी का सदस्य हूं, लिहाजा उसके लिए संदेह का पात्र हूं! जहां तक कांग्रेस की बात है, मैं इसका सदस्य हूं, और इस नाते मुझे कुछ कहते हुए सावधानी बरतनी चाहिए!

बिन मांगी सलाह
फिर भी मैं दोनों पार्टियों को सलाह देना चाहूंगा। यहां मैं जो कहूंगा उसे मैं पहले भी कह चुका हूं।

भाजपा के लिए, मेरी राय इस प्रकार है:

*भारत की नई ‘सामान्य’ जीडीपी वृद्धि-दर सात फीसद मालूम पड़ती है। नई ‘सामान्य’ वृद्धि-दर के घेरे से बाहर निकलने के लिए सरकार को नई स्वप्नशीलता और हिम्मत से काम लेते हुए साहसिक ढांचागत सुधार करने होंगे (जैसा 1991-92 में हुआ था)। इसके साथ ही विपक्ष का सहयोग लेने तथा उसके नजरिए का सम्मान करने का बड़प्पन और विनम्रता भी दिखानी होगी। (22 नवंबर 2015)

* मोदी ठिठक कर, हालात का जायजा लेकर, पीछे हट कर, पार्टी को सुशासन और विकास के रास्ते पर ले जा सकते हैं। (15 नवंबर 2015)

कांग्रेस के लिए, मेरी राय इस प्रकार है:

* हमेशा एक सर्वोच्च नेता होगा, पर यह अच्छा होगा कि एक सामूहिक नेतृत्व की तस्वीर पेश की जाए। दूसरे, कांग्रेस को अपने को ब्लाक स्तर तक सुसंगठित या पुनर्गठित करना होगा। इस काम को नए सिरे से शुरू करके कमोबेश साल भर के भीतर अंजाम देना होगा। तीसरे, कांग्रेस को अपनी बात हिंदी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में कार्यकर्ताओं तथा जनता तक रोजाना पहुंचानी होगी। (15 फरवरी, 2015)

* और चौथे, मैं यह जोड़ना चाहूंगा कि कांग्रेस को अहम सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर अपना नीतिगत रुख पुनर्परिभाषित करना चाहिए, इस ढंग से कि पंद्रह से पैंतीस साल के आयुवर्ग को वह प्रभावित कर सके।

दिल्ली और बिहार के बाद, यह माना जा रहा था कि 2016 के पांच चुनाव निर्णायक मोड़ साबित होंगे। वैसा कुछ नहीं हुआ है, अलबत्ता 2016 के नतीजे यह इशारा जरूर करते हैं कि 2017 में होने वाले चुनाव निर्णायक मोड़ हो सकते हैं।