पिछले सप्ताह के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को चुनौती देने वाली याचिका पर चुनाव आयोग को दो महत्त्वपूर्ण निर्देश दिए- हटाए गए नामों की कारण सहित सूची प्रकाशित करें और दावों के लिए आधार स्वीकार करें। सुनवाई जारी रहेगी।
असामान्य आंकड़े
हालांकि, एसआइआर के कुछ पहलू ऐसे भी हैं, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हैं। एसआइआर की कुछ विशेषताएं अभूतपूर्व और चिंताजनक हैं। पहला, नाम : पहले पुनरीक्षण को विशेष या संक्षिप्त पुनरीक्षण कहा जाता था। दूसरा, समय : इससे पहले कभी भी लोकसभा या राज्य विधानसभा चुनाव के चार महीने के भीतर ऐसा कोई कार्य नहीं किया गया था। तीसरा, समय-सारिणी : ‘पुनरीक्षण’ केवल 30 दिनों में किया गया तथा ‘आपत्तियों और दावों’ का निपटारा अगले 30 दिनों में किया जाएगा। चौथा, दायरा : पिछले पुनरीक्षणों में पहले की मतदाता सूचियों को आधार डेटा के रूप में रखा गया था और नाम हटाए एवं जोड़े गए थे।
इसके विपरीत एसआइआर ने वर्ष 2024 की मतदाता सूचियों को रद्द कर दिया और बिहार के लिए नई मतदाता सूचियां बनाने का दावा किया (स्रोत : पूर्व चुनाव आयुक्त, अशोक लवासा)। पांचवां, नाम हटाने पर अजीबोगरीब तरीके से जोर देना और नाम जोड़ने पर जानबूझ कर चुप्पी साधना। अंत में, इस पूरी प्रक्रिया में बड़ी संख्या में मतदाता मसविदा सूची से बाहर रह गए : चुनाव आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि 7.89 करोड़ लोगों में से 22 लाख व्यक्तियों की ‘मौत’ हो चुकी थी, सात लाख व्यक्ति ‘कई स्थानों पर पंजीकृत थे’ और 36 लाख व्यक्ति ‘स्थायी रूप से स्थानांतरित हो गए थे या उनका पता नहीं चल पा रहा था’।
कोई नहीं जानता
मृत्यु और जन्म स्वाभाविक हैं। जब यह सही है कि मृत व्यक्तियों के नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाने चाहिए, तो क्या यह भी सही नहीं है कि किसी निश्चित तिथि को 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने वाले युवाओं को मतदाता सूची में शामिल किया जाना चाहिए? बिहार की जन्म दर के मद्देनजर, वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद से 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने वाले व्यक्तियों की संख्या निश्चित रूप से कुछ लाख में होगी। क्या उन्हें मतदाता सूची में शामिल किया गया है? चुनाव आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया, और किसी को पता नहीं।

चुनाव आयोग ने कैसे निष्कर्ष निकाला कि 36 लाख लोग ‘स्थायी रूप से स्थानांतरित’ हो गए हैं या उनका ‘पता नहीं चल रहा’? क्या चुनाव आयोग ने घर-घर जाकर सर्वेक्षण किया? क्या संबंधित लोगों ने स्वीकार किया कि वे बिहार से बाहर किसी अन्य जगह स्थायी रूप से चले गए हैं? क्या चुनाव आयोग ने 36 लाख लोगों के ठिकानों की जांच कराई? चुनाव आयोग ने न्यायिक रूप से व्याख्या किए गए ‘सामान्य निवासी’ के मानदंड को कब और क्यों त्याग दिया और उसके स्थान पर ‘स्थायी रूप से स्थानांतरित’ जैसे बहुअर्थी मानदंड को लागू कर दिया? यह कोई नहीं जानता।
एसआइआर में विश्वसनीयता, पारदर्शिता, प्रामाणिक साक्ष्यों और तर्कपूर्ण निष्कर्षों का अभाव है। ऐसा लगता है कि एसआइआर की शुरुआत पूर्व धारणाओं के आधार पर की गई है और उन्हीं धारणाओं को सही ठहराने के लिए यह कवायद की गई है। जिस देश की जनसंख्या सालाना 0.89 फीसद की दर से बढ़ रही है, वहां मतदाता सूची में किसी भी पुनरीक्षण के परिणामस्वरूप मतदाताओं की संख्या में वृद्धि होगी ही, लेकिन बिहार में एसआइआर का विपरीत प्रभाव पड़ा है।
इसके पीछे का मकसद मताधिकार से वंचित करना प्रतीत होता है। इस प्रक्रिया ने बिहार के लोगों के मन में यह डर पैदा कर दिया है कि अक्तूबर में उनमें से हजारों मतदाता अपने मताधिकार से वंचित हो जाएंगे। अगर विशेष गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया अन्य राज्यों में भी लागू की जाती है, तो बिहार के नतीजों को देखते हुए इसका संभावित परिणाम यह होगा कि करोड़ों नागरिकों को अपने मताधिकार से वंचित होना पड़ सकता है।
कर्नाटक में क्या हुआ
कर्नाटक से एक और चौंकाने वाला मामला सामने आया है। बंगलुरु सेंट्रल, कर्नाटक के 28 संसदीय क्षेत्रों में से एक है। इसमें आठ विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं। आइए, बंगलुरु सेंट्रल में लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें। फिलहाल, एक विधानसभा क्षेत्र- महादेवपुरा- को छोड़ देते हैं। कांग्रेस उम्मीदवार चार विधानसभा क्षेत्रों में और भाजपा उम्मीदवार तीन विधानसभा क्षेत्रों में आगे थे। इन सात निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में कुल बढ़त 82,178 मतों से थी। अब महादेवपुरा की बात करें।
‘झूठे आंकड़े दिए जा रहे’, चुनाव आयोग ने खारिज किया पी. चिदंबरम का दावा
अकेले इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार 1,14,046 मतों से आगे था। इसने कांग्रेस की 82,178 मतों की कुल बढ़त को पीछे छोड़कर भाजपा उम्मीदवार को 31,868 मतों से जीत दिला दी। डाक मतपत्रों को जोड़ने पर, भाजपा उम्मीदवार को 32,707 मतों से निर्वाचित घोषित किया गया। यह अपने आप में अंतिम परिणाम को संदिग्ध नहीं बनाता है।
हालांकि, 32,707 मतों के अंतर को कांग्रेस उम्मीदवार और उनकी टीम द्वारा जुटाए गए उन प्रथम दृष्टया सबूतों के साथ जोड़ना होगा, जिनमें मतदाता सूचियों और अन्य दस्तावेज के गहन अध्ययन पर पाया गया कि कई गंभीर त्रुटियां थीं : एक ही घर के पते पर पंजीकृत विभिन्न मतदाताओं की असामान्य संख्या; मतदाता पहचान पत्रों में पिता के नाम की जगह अस्पष्ट शब्द, जैसे कि- ‘एक्सटीकेएपीआरबीएसयू’ लिखा था; और उम्र ‘0’ या ‘124’ लिखी थी। ऐसी प्रथम दृष्टया त्रुटियों की संख्या हजारों में थी।
सवाल यह है कि अगर प्रथम दृष्टया इस तरह के सबूत मौजूद हैं, तो क्या इसकी जांच जरूरी नहीं है? एक सामान्य व्यक्ति कहेगा, ‘हां, बिल्कुल’, लेकिन चुनाव आयोग अब एक सामान्य व्यक्ति या संस्था की तरह व्यवहार नहीं करता। यह खुद के स्वतंत्र होने का दंभ भरता है और निष्पक्ष चुनावों में प्राथमिक हितधारकों- मतदाताओं, उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपनी ‘स्वतंत्रता’ और संसद के दोनों सदनों में चर्चा की अनुमति देने के लिए दोनों पीठासीन अधिकारियों की अनिच्छा से उत्साहित होकर चुनाव आयोग खुद को ‘न्यायालय’ की तरह मानने का दिखावा करता है और हलफनामे तथा शपथपत्र मांगता है!
महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची की विश्वसनीयता का मुख्य मुद्दा किसी भी हाल में शोरगुल में न खोए और बहस को बाहरी मुद्दों की ओर न मोड़ा जाए। मैं फिर से कहना चाहता हूं : ‘मुख्य मुद्दा मतदाता सूचियों की विश्वसनीयता का है’, चाहे वह महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र हो या बिहार राज्य। चुनाव आयोग को निश्चित रूप से आज नहीं तो भविष्य में न्याय के दिन जरूर जवाब देना होगा।