देवों के देव महादेव का अभिषेक भांग, धतूरे, फल, फूल और बिल्वपत्र इत्यादि से किया जाता है। माना जाता है कि भगवान शंकर की पूजा बिना बिल्वपत्र के अधूरी होती है। बिल्वपत्र में तीन पत्तियां एक साथ जुड़ी होती हैं। इसे लेकर कई तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। तीन पत्तों को कहीं त्रिदेव यानी सृजन, पालन और विनाश के देव ब्रह्मा, विष्णु और शिव, तो कहीं तीन गुणों जैसे सत्व, रज और तम, तो कहीं तीन आदि ध्वनियों, जिनकी सम्मिलित गूंज से ऊं बनता है, का प्रतीक माना जाता है। बिल्वपत्र की इन तीन पत्तियों को महादेव की तीन आंखें या उनके शस्त्र त्रिशूल का भी प्रतीक माना जाता है।
पार्वती के पूछने पर भगवान ने बताया था कि बिल्वपत्र क्यों है प्रिय
एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार नारद ने भोलेनाथ की स्तुति की और पूछा कि प्रभु! आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे आसान साधन क्या है? नारद की बात सुनकर भगवान बोले कि जो भी भक्त अखंड बिल्वपत्र श्रद्धा से अर्पित करते हैं तो शिव उन्हें अपने लोक में स्थान देते हैं। यह बात सुनकर नारद अपने लोक को चले गए, लेकिन उनके जाने के बाद मां पार्वती ने भगवान से पूछा कि आपको बिल्वपत्र इतना प्रिय क्यों है? इस पर भगवान ने कहा कि बिल्व के पत्ते उनकी जटा के समान हैं। उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं और उसकी शाखाएं समस्त शास्त्रों का स्वरूप हैं। मनुष्य को बिल्ववृक्ष को पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझना चाहिए। स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर बिल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था।
शिव के प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए बढ़ी प्रीति
भगवान के मुख से ऐसी बात सुनकर पार्वती सोच में पड़ गईं कि माता लक्ष्मी ने आखिर बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया? पार्वती को इस तरह दुविधा और आश्चर्य में देखकर भगवान ने कहा कि सतयुग में ज्योतिरूप रामेश्वर लिंग का ब्रह्मा सहित सभी देवों ने विधिवत पूजन-अर्चन किया था। फलत: उनके अनुग्रह से वाग्देवी सबकी प्रिय हो गईं। वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं। शिव के प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति हुई वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं पसंद आई।
अत: लक्ष्मी देवी चिंतित और रुष्ट होकर परम उत्तम श्री शैल पर्वत पर चली गईं। वहां उन्होंने लिंग विग्रह की उग्र तपस्या करनी शुरू कर दी। तपस्या के कुछ समय बाद महालक्ष्मी ने विग्रह से थोड़ा ऊर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया और अपने पत्र-पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं। इस तरह उन्होंने वर्षों तक आराधना की और अंतत: उन्हें शिव का अनुग्रह प्राप्त हुआ। महालक्ष्मी ने श्रीहरि के हृदय में वाग्देवी के प्रति स्रेह को समाप्त करने का वर मांगा। तब भगवान शिव ने देवी लक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है।
वाग्देवी के प्रति तो उनकी केवल श्रद्धा है। यह सुनकर लक्ष्मी बहुत प्रसन्न हो गईं और पुन: विष्णु के हृदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगीं। शिव पुराण के मुताबिक, समुद्र मंथन से निकले विष से संसार संकट में पड़ गया और कोई भी उस विष को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इसके बाद सभी देव और दानव शिव के पास इस समस्या का हल निकालने के लिए पहुंचे। तब भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए उस विष को अपने गले में धारण कर लिया। इससे शिव के शरीर का तापमान बढ़ने लगा और उनका गला नीला पड़ गया।
शिव के शरीर का तापमान बढ़ने से ब्रह्मांड में आग लगने लगी, जिसके कारण पृथ्वी के सभी प्राणियों का जीवन कठिन हो गया। सृष्टि के हित में विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए देवताओं ने भगवान शिव को बिल्वपत्र दिए। बिल्वपत्र खाने से विष का प्रभाव कम हो गया। ऐसा कहा जाता है कि तभी से भगवान शिव को बिल्वपत्र चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई। भगवान शिव को बिल्वपत्र चढ़ाने के लिए शास्त्रों में कुछ नियम बताए गए हैं। बिल्वपत्र हमेशा चिकनी सतह की तरफ से ही चढ़ाना चाहिए। कभी भी कटे हुए बिल्वपत्र नहीं चढ़ाने चाहिए।
भगवान को बिल्वपत्र तीन पत्तों से कम नहीं चढ़ाने चाहिए। हमेशा विषम संख्या जैसे तीन, पांच, या सात ही बिल्वपत्र चढ़ाने चाहिए। बेलपत्र हमेशा मध्यमा, अनामिका उंगली और अंगूठे से पकड़कर ही चढ़ाना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि बिल्वपत्र कभी अशुद्ध नहीं होता है, इसलिए पहले से अर्पित किए हुए बिल्वपत्र को धोकर फिर से चढ़ाया जा सकता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार नारद ने भोलेनाथ की स्तुति की और पूछा कि प्रभु! आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे आसान साधन क्या है? नारद की बात सुनकर भगवान बोले कि जो भी भक्त अखंड बिल्वपत्र श्रद्धा से अर्पित करते हैं तो शिव उन्हें अपने लोक में स्थान देते हैं। यह बात सुनकर नारद अपने लोक को चले गए, लेकिन उनके जाने के बाद मां पार्वती ने भगवान से पूछा कि आपको बिल्वपत्र इतना प्रिय क्यों है? इस पर भगवान ने कहा कि बिल्व के पत्ते उनकी जटा के समान हैं।