Grishneshwar Jyotirlinga: महाराष्ट्र के वेरूल गाँव में स्थित घृष्णेश्वर मंदिर, 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे अंतिम और सबसे छोटा है, लेकिन इसकी महिमा और महत्व में कोई कमी नहीं। यह मंदिर इतिहास, भक्ति और करुणा का ऐसा संगम है, जो हर भक्त को आध्यात्मिकता की गहराइयों तक ले जाता है। यह स्थान भगवान शिव के करुणामय रूप का प्रतीक है और इसे ‘घृष्णेश्वर’ या ‘करुणा के ईश्वर’ के नाम से जाना जाता है। एलोरा की विश्वप्रसिद्ध गुफाओं से मात्र 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर, हर भक्त और इतिहास प्रेमी के लिए एक अद्वितीय अनुभव है।

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इतिहास की परतों में छुपा भक्ति का रंग

घृष्णेश्वर मंदिर का इतिहास लगभग 6वीं शताब्दी तक पुराना है। इसे राष्ट्रकूट वंश के दौरान बनाया गया था। हालांकि, समय-समय पर इस पर हमले हुए और इसे नष्ट करने की कोशिशें भी हुईं। 13वीं और 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत ने इस मंदिर को ध्वस्त कर दिया। इसके बाद, 16वीं शताब्दी में मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज के दादा मालोजी भिसले ने इसे फिर से खड़ा किया। लेकिन आज जो भव्य रूप हम देखते हैं, वह 18वीं शताब्दी में इंदौर की महान रानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा किया गया पुनर्निर्माण है। यह मंदिर केवल पत्थरों और संरचनाओं का प्रतीक नहीं है, बल्कि इसमें इतिहास की परतें, भक्तों की गाथाएँ और भगवान शिव की करुणा समाहित हैं।

वास्तुकला की अनूठी सुंदरता

घृष्णेश्वर मंदिर लाल पत्थरों से निर्मित है और इसकी वास्तुकला में उत्तर और दक्षिण भारतीय शैलियों का अनूठा मिश्रण देखा जा सकता है। मंदिर का पाँच मंजिला शिखर सोने के कलश से सजा हुआ है, जो दूर से ही श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। मंदिर के मुख्य मंडप में 24 भव्य खंभे हैं, जिन पर भगवान शिव की विविध कथाएँ उकेरी गई हैं। इसके अलावा, दीवारों पर भगवान विष्णु के दशावतार भी बेहद खूबसूरती से उकेरे गए हैं। गर्भगृह में स्थित शिवलिंग पूर्व दिशा की ओर मुख किए हुए है, और सभा मंडप में नंदी की भव्य प्रतिमा भक्तों को गर्भगृह की ओर खींचती है।

भक्ति की अमर गाथा: कुसुमा की कथा

घृष्णेश्वर मंदिर से जुड़ी कुसुमा नामक भक्त की कहानी भक्तों के बीच बेहद प्रसिद्ध है। कुसुमा एक शिवभक्त महिला थीं, जो हर दिन भगवान शिव की पूजा करती थीं और शिवलिंग पर जल चढ़ाती थीं। उनकी भक्ति इतनी गहरी थी कि उनके पूजा करने की विधि ने उनकी सौतेली बहन सुदेहा में ईर्ष्या भर दी। सुदेहा ने जलन में आकर कुसुमा के पुत्र की हत्या कर दी। लेकिन इस बड़े दुख के बावजूद कुसुमा ने अपनी पूजा जारी रखी। उनकी अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनके पुत्र को पुनर्जीवित किया और वहीं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर इस स्थान को पवित्र बना दिया। यह कथा हमें भक्ति और विश्वास की शक्ति का एहसास कराती है।

शिव की करुणा और आस्था का केंद्र

घृष्णेश्वर का अर्थ है “करुणा के ईश्वर,” और यह मंदिर भगवान शिव की उस दयालुता और करुणा का प्रतीक है, जो हर भक्त को उसकी आस्था के अनुरूप फल देती है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु भगवान शिव के इस रूप को देखकर भावविभोर हो जाते हैं। गर्भगृह में शिवलिंग की पूजा का अनुभव हर भक्त के लिए आत्मिक शांति का स्रोत बनता है।

यात्रा का अनुभव और विशेष निर्देश

गृष्णेश्वर मंदिर तक पहुँचना बेहद आसान है। यह औरंगाबाद से मात्र 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सुबह 5:30 बजे से रात 11:00 बजे तक खुला यह मंदिर हर भक्त के लिए उपलब्ध है। खास बात यह है कि मंदिर में प्रवेश के लिए किसी शुल्क की आवश्यकता नहीं होती। हालांकि, कैमरे और मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का प्रवेश प्रतिबंधित है। यहाँ की पवित्रता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य है।

घृष्णेश्वर: आस्था और इतिहास का संगम

घृष्णेश्वर मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का जीवंत उदाहरण है। यहाँ आकर आप न केवल भगवान शिव की उपासना कर सकते हैं, बल्कि भारत के उस इतिहास को भी महसूस कर सकते हैं, जो भक्ति और करुणा से ओतप्रोत है। यह मंदिर हर उस व्यक्ति के लिए खास है, जो भगवान शिव के करुणामय रूप को देखना और महसूस करना चाहता है।

जब भी आप महाराष्ट्र की यात्रा करें, घृष्णेश्वर मंदिर को अपनी सूची में जरूर शामिल करें। यहाँ की दिव्यता और भव्यता आपका मन मोह लेगी और आपको शिव की असीम करुणा का अनुभव कराएगी। घृष्णेश्वर , जहाँ शिव की करुणा और भक्त की भक्ति का अनूठा संगम है।

लेखक- पूनम गुप्ता