बिहार के गोपालगंज शहर से करीब 25 किलोमीटर दूर, जब लाइन बाजार से दाईं ओर मुड़ते हैं तो ‘फुलवरिया’ लिखा एक बोर्ड दिखता है – यह राजद नेता लालू प्रसाद का गांव है। इस बोर्ड पर नीली बैकग्राउंड पर सफेद अक्षर अब काफी फीके पड़ चुके हैं। फुलवरिया जाने वाली पक्की सड़क भी जगह-जगह से टूटी हुई दिखती है। गांव के अंदर की सड़क पर गड्ढे तो नहीं हैं, लेकिन किनारे की नालियां अक्सर ओवर फ्लो हो जाती हैं।
अपने घर के बाहर बैठे 60 साल के परसनाथ यादव बताते हैं कि गांव में जो भी विकास हुआ, वह लालू प्रसाद के शासन के समय, करीब बीस साल पहले हुआ था। परसनाथ कहते हैं, “उसके बाद से गांव को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर स्कूल तक, कुछ भी ठीक से नहीं चलता। हाल ही में गांव की सड़क फिर से बनी है, वो भी हमारे स्थानीय आरजेडी विधायक की वजह से।”
वे उस समय को याद करते हैं, जब लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान अक्सर साथ में गांव आते थे और पास के ही एक घर में खाना खाते थे। परसनाथ कहते हैं, “वो जनता दल के दिन थे। जब से वो अलग हुए, नीतीश कभी गांव नहीं आए, वो कई बार गोपालगंज आ चुके हैं।”
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परसनाथ कहते हैं कि लालू प्रसाद के शासन में प्रशासन लोगों की परेशानियों को तुरंत सुनता और हल करता था, लेकिन अब काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि ये अफसरशाही की सरकार है। वह आगे कहते है, “भले ही लालू सरकार की आलोचना होती रही हो, लेकिन उस समय का प्रशासन जनता की बात सुनने वाला था।”
कम आमदनी और बढ़ती महंगाई भी मुद्दे
एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाले 38 वर्षीय दुर्गेश यादव के मुद्दे कुछ अलग हैं। वे कहते हैं कि आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में “रुकी हुई आमदनी और बढ़ती महंगाई” सबसे बड़े मुद्दे हैं।
वह कहते हैं, “जमीन के टुकड़े हर दिन छोटे होते जा रहे हैं और खेती से इतनी आमदनी नहीं होती कि बच्चों की पढ़ाई और बाकी जरूरतें पूरी हो सकें। सरकारी स्कूल ठीक नहीं हैं और न ही सरकारी अस्पतालों की हालत अच्छी है। इसलिए लोगों को बेहतर सुविधा के लिए अपनी जेब से पैसा खर्च करना पड़ता है। जो भी सरकार आए, उसे इन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।”
दुर्गेश बताते हैं कि उन्होंने साल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए वोट किया था लेकिन वो इस बार विधानसभा चुनाव में राजद को अपना मत देंगे।
वो कहते हैं, “मुख्यमंत्री नीतीश जी ने अपने पहले पांच साल (2005-10) में अच्छा काम किया था। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि कानून-व्यवस्था थी। वो पुराने दिन कोई दोबारा नहीं देखना चाहता। लेकिन उसके बाद उन्होंने विकास पर ध्यान देना छोड़ दिया। अब बीस साल हो गए हैं, राज्य को नए नेतृत्व की जरूरत है।” उनकी बातों से यह भी झलकता है कि लालू के दौर में कानून-व्यवस्था की स्थिति कमजोर थी।
एक अन्य ग्रामीण प्रकाश यादव (30) राजद की संभावनाओं को लेकर आश्वस्त हैं। वो कहते हैं कि गांव में 2,600 वोट हैं और सभी तेजस्वी को जा रहे हैं।
भूमिहार जाति से संबंध रखने वाले सोनू पांडे नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ नजर आते है। वो दावा करते है, “वो (नीतीश कुमार) आजकल कुछ भी कह रहे हैं। पिछले 15 साल से बुजुर्गों को सिर्फ 400 रुपये दिए जा रहे थे। आप इतने पैसों में क्या कर सकते हो? तेजस्वी और जनसुराज ने जब यह मुद्दा उठाया, तब जाकर इसे 1,100 रुपये किया गया। दारूबंदी भी सिर्फ कागजो पर है, शराब तो हर जगह मिल जाती है।”
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सोनू के पिता प्रमोद सिंह उसे चुप करवाते हुए मुस्कुरा कर कहते हैं, “यह सब बातें मायने नहीं रखतीं। सच्चाई यह है कि लालू हमारे गांव के हैं, इसलिए हम वोट तो उन्हीं को देंगे। उनकी पार्टी के साथ क्या होता है, इससे फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने जो अच्छा-बुरा किया, उसका फल उन्हें मिल चुका है – अब वे विपक्ष में हैं। लेकिन इतना बड़ा नेता हमारे गांव से निकला, यही हमारे लिए गर्व और पहचान की बात है।”
अन्य जातियां क्या सोचती हैं?
नाई जाति से संबंध रखने वाले सुनील ठाकुर भी प्रमोद की बातों से सहमत हैं। वो कहते हैं कि नौकरियां नहीं हैं। जो भी सरकार आए, उसे इस पर जरूर कुछ करना चाहिए। प्रमोद को भरोसा नहीं है कि तेजस्वी हर परिवार को एक सरकारी नौकरी देने का अपना वादा पूरा कर पाएंगे। वो कहते हैं, “बिहार की आबादी बहुत ज्यादा है, लेकिन तेजस्वी को कम से कम एक मौका तो मिलना चाहिए। अगर वो अच्छा काम नहीं करेंगे, तो लोग उन्हें बदल देंगे। नीतीश को बहुत मौके मिल चुके हैं, अब वे थक चुके हैं।”
कुशवाहा जाति से संबंंध रखने वाले गामा भगत आरजेडी के प्रति अपनी निष्ठा तो जताते हैं, लेकिन नीतीश के खिलाफ नाराज़गी नहीं दिखाते। वे कहते हैं, “गांव की सड़कें सिर्फ लालू के समय में नहीं बनीं। नीतीश के समय में भी विकास हुआ है। लेकिन जब कोई हमारे ही गांव का नेता चुनाव में होता है, तब अच्छा-बुरा कुछ नहीं देखा जाता।”
लालू के गांव के बाहर कैसा है माहौल?
गांव की सीमा पार करते ही राजद के प्रति इतनी खुली वफादारी दिखाई नहीं देती। बाहर के लोग कहते हैं कि वे जाति के आधार पर या उम्मीदवार के कामकाज को देखकर वोट देंगे। हथुआ विधानसभा क्षेत्र में यादव, कुशवाहा, मुस्लिम, भूमिहार, बनिया और दलित मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या है।
फुलवरिया गांव से मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर चंंद्रेश्वर पांडे (भूमिहार) का मकान है। वो कहते हैं कि लालू यादव उनके लिए फैक्टर नहीं हैंं लेकिन वो स्थानीय विधायक राजेश सिंह के साथ अच्छे संबंध होने की वजह से राजद को वोट करेंगे। चंंद्रेश्वर पांडे ने साल 2024 में पीएम नरेंद्र मोदी के पक्ष में वोट दिया था।
लाइन बाजार इलाके में कई मुस्लिम मतदाताओं ने राजद को समर्थन की बात कही, जबकि ओबीसी बनिया और पासवान समुदाय के लोगों ने एनडीए के पक्ष में झुकाव जताया।
प्रमोद साह (मिठाई की दुकान चलाते हैं) कहते हैं कि वे लालू के दौर को कभी नहीं भूल सकते, जब शाम के बाद घर से निकलना मुश्किल होता था। मधेसिया (ओबीसी) समुदाय से आने वाले प्रमोद कहते है, “सड़क बनाने का सामान आता था, फिर गायब हो जाता था और सड़क कभी बनती ही नहीं थी। अब सड़कें हैं, मुफ्त बिजली है, पानी है – इस सरकार में सब ठीक चल रहा है, तो इसे बदलने की क्या जरूरत?”
वो आगे कहते है कि उम्मीद है कि एनडीए जीतेगी और नीतीश कुमार दिल्ली जाएंंगे।
Hathua में कौन जीता था पिछला चुनाव?
साल 2020 बिहार विधानसभा चुनाव में हथुआ विधानसभा सीट पर राजद के राजेश कुमार सिंह ने राजद के रामसेवक सिंह को चुनाव हराया था। ये दोनों ही कुशवाहा जाति से संंबंध रखते हैं और इस बार भी दोनों दलों ने इन्हीं पर दांव लगाया है। हथुआ सीट पर पिछले चुनाव में राजद के राजेश कुमार सिंह को 86731 वोट मिले थे जबकि जदयू के रामसेवक सिंह को 56204 वोटों से संतोष करना पड़ा। इस सीट पर तीसरे नंबर पर लोजपा के राम दर्शश प्रसाद रहे, उन्हें 9894 हासिल हुए थे।
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