‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूं कोई बेवफा नहीं होता।’
-बशीर बद्र
जितिन प्रसाद जी का कांग्रेस पार्टी छोड़ने के लिए धन्यवाद’। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए भागदौड़ शुरू होते ही आइएनसी छत्तीसगढ़ की तरफ से ये ट्वीट किया गया। इसके बाद इसी ट्वीटर हैंडल से कहा गया-यारों के दांत बहुत जहरीले हैं पर/हमको भी सांपों का मंतर आता है। इस ट्वीट के साथ प्रियंका गांधी की तस्वीर लगाई गई जिसमें वे संपेरा समुदाय के व्यक्ति से मिल रही हैं और उनके हाथ में एक सांप है। इसके साथ ही कांग्रेस से जुड़े लोगों का जितिन प्रसाद को गद्दार कहने का सिलसिला शुरू हो जाता है।
मौजूदा राजनीतिक हालात को देखते हुए बशीर बद्र साहब शायद अपने शेर को दुरुस्त करना चाहते। लेकिन हम शायर से माफी मांगते हुए ये जुर्रत कर रहे हैं,
तुमको खोने का मकसद नहीं था मेरा
उसको पाना था इसलिए बेवफा हो गया
राजनीति में खुद को पाने के लिए कांग्रेस को खोने की यही मजबूरी कुछ समय पहले असम में हिमंत बिस्वा सरमा के पास भी रही होगी। जब सरमा ने कांग्रेस छोड़ी थी तो उस समय भी कांग्रेस से ऐसी ही, कोई फर्क नहीं पड़ता जैसी प्रतिक्रिया हुई थी। पिछले महीने हुए विधानसभा चुनावों ने राजनीति के जो दो कद्दवर चेहरे देखे दोनों की राजनीतिक मातृ संस्था कांग्रेस ही थी।
जब हेमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़ी थी तो कांग्रेस के ट्वीटकार ये अंदाजा भी नहीं लगा पाए थे कि वो उस भाजपा शासित राज्य के मुख्यमंत्री बनेंगे जहां बाहर से आए लोगों को इस पद से दूर रखा जाता है। भाजपा के मंझे हुए या संघ की पृष्ठभूमि के लोगों को ही मुख्यमंत्री पद दिया जाता है। लेकिन सरमा ने खुद को इतना बुलंद किया कि भाजपा बता तेरी रजा क्या है जैसे भाव में दिखी। इसी समय ममता बनर्जी ने तीसरी बार बंगाल विधानसभा चुनाव जीत कर, भाजपा के 200 सीटें आने के दावे को धता बता दिया।
आज के दौर की हकीकत यह है कि भारत के छह राज्यों पर वैसे चेहरे शासन कर रहे हैं जो कभी कांग्रेस की मजबूत आस्तीन हुआ करते थे। लेकिन कांग्रेस के ढांचे में इनकी अपनी बेहतर पहचान बनाने की आस टूटती गई और ये अलग रास्ते पर चलते गए। जिस कांग्रेस में राहुल गांधी को स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान लिया जाता है उसी कांग्रेस में जगनमोहन रेड्डी को उनके पिता का उत्तराधिकार नहीं दिया जाता।
बात सिर्फ विरासत की नहीं थी, जगनमोहन में वो योग्यता भी थी। अपने नेताओं की आस टूटते ही अगर कांग्रेसी उन्हें आस्तीन का सांप कहने लगेंगे तो शायद उनके हिस्से वह दृश्य कभी नहीं आएगा जो बंगाल में ममता बनर्जी के हिस्से आया। ममता बनर्जी को पता था कि खुद को बचाने में वो मुकुल राय के स्वार्थ की रक्षा नहीं कर पाई थीं। इसी अहसास में उन्होंने सार्वजनिक रूप से राय के खिलाफ कुछ नहीं बोला। इसी वजह से मुकुल राय की वापसी को लेकर संबित पात्रा ने भी एक टिप्पणी में कहा कि हम उन्हें गद्दार नहीं बोलेंगे।
भारतीय राजनीति के स्कूल में भाजपा अगर अव्वल विद्यार्थी है तो तृणमूल कांग्रेस वो है जो भाजपा के नोट्स पढ़ कर सबक लेती है कि कक्षा में बने रहने के लिए कौन सा परचा कैसे लिखना है। वो कांग्रेस की तरह नहीं है कि किताब-कॉपी ही फेंक दे, जाओ इतनी कठिन परीक्षा में हम पास ही नहीं हो सकते तो पढ़ाई क्यों करें। कांग्रेस अगर चाहती है कि कक्षा से उसका नाम ही न कट जाए तो एक बार उसे बंगाल की कक्षा में ममता बनर्जी का परचा जरूर देख लेना चाहिए।
भाजपा की रणनीति रही है कि वह चुनाव के पहले अपने विपक्षी दल में भगदड़ पैदा करती है। किसी भी दल का मनोबल तोड़ने का यह पहला कदम होता है ताकि इस भगदड़ में वो विकल्प बनने की संभावना ही न देखे। बंगाल में कांग्रेस पहले तृणमूल हुई और फिर उनमें से कई भाजपा के हुए। बंगाल में ममता बनर्जी का जो रवैया था उसमें एक किस्म की अस्तित्व बचाने की छटपटाहट थी। न सिर्फ वो अपने काडर के लिए डटी रहीं बल्कि उनमें से जो नाराज होकर चले गए उनकी वापसी के लिए भी जुट गईं। अपने साम-दाम-दण्ड-भेद को वो एक विचारधारा की शक्ल देने में भी लगी रहीं। ममता बनर्जी ने सबक ले लिया था कि भाजपा का मुकाबला उसके हथियार से ही किया जा सकता है। उन्होंने कांग्रेस की तरह हथियार डाला नहीं।
अपना अस्तित्व बचा लेने के बाद ममता बनर्जी उसके विस्तार के लिए सक्रिय हुईं। जब उन्हें पर्याप्त बहुमत मिल ही गया था तो फिर क्या जरूरत थी भाजपा में गए लोगों की वापसी के लिए मेहनत करने की। लेकिन वो एक क्षण के लिए नहीं भूलीं कि वो दिन दूर नहीं जब उन्हें लोकसभा चुनाव में भाजपा की पहले से ज्यादा सधी हुई रणनीति का सामना करना होगा। कैडरों और वोटरों को अपना बनाए रखने के लिए लगातार मेहनत की जरूरत होती है। यह जीवटता कांग्रेस में दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती है।
कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व शायद अति भलमनसाहत वाला है जिसमें जाने वालों को रोकने की कोई छटपटाहट और बेचैनी नहीं है। अगर कोई सुबह में चला गया तो उसके लिए दो बोल ऐसे बोलें कि वह शाम होने पर लौटने की सोच सके। लेकिन यहां शीर्ष नेतृत्व तो परम संतोषी है ही नीचे के काडर जाने वालों को गद्दार और आस्तीन का सांप बता अपनी निष्ठा जताने और जगह बनाने में जुट जाते हैं। ऐसे में जानेवाला तो और दूर हो ही गया, उन्हें लेकर भी कब तक खुशफहमी पाली जा सकती है जो कह रहे हैं कि जोशी ने मुझसे नहीं सचिन तेंदुलकर से बात की होगी। यह उपनाम कभी भी तेंदुलकर से पायलट हो सकता है।