उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पिछले हफ्ते ही अपनी कैबिनेट का विस्तार किया। इस विस्तार में चार विधायकों को शपथ दिलाई गई और मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया। सुभासपा प्रमुख ओपी राजभर, बीजेपी के एमएलसी दारा सिंह चौहान, रालोद के अनिल कुमार और बीजेपी के साहिबाबाद से विधायक सुनील शर्मा को मंत्रीपद की शपथ दिलाई गयी। इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि आखिर सीएम योगी पर हमलावर रहने वाले उत्तर प्रदेश में मंत्री क्यों बनाए गए?

हाल ही में योगी मंत्रिमंडल में शामिल हुए ओपी राजभर और दारा सिंह चौहान की सीएम योगी से हमेशा खटपट रही है। जब ओम प्रकाश राजभर समाजवादी पार्टी के लिए 2022 में प्रचार करते थे तो उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में बहुत तीखी बातें कही थीं। राजभर ने तो यहां तक कहा था कि योगी को वापस मठ में चले जाना चाहिए। वहीं, दारा सिंह चौहान भी बीजेपी छोड़ने के बाद योगी आदित्यनाथ पर हमलावर रहते थे।

बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व है सर्वेसर्वा

बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व जो चाहता है उसके नेता और कार्यकर्ता यहां तक कि मुख्यमंत्री भी उसे बिना किसी ना-नुकुर के स्वीकार करते हैं। देवेंद्र फडणवीस, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे इसका ज्वलंत उदाहरण हैं जिन्हें आलाकमान के कहने पर मुख्यमंत्री पद तक का त्याग करना पड़ा। केंद्र का ऐसा मानना था कि अब नए चेहरों को सत्ता में मौका दिया जाना चाहिए। ऐसे में मोदी-शाह की जोड़ी ने नया प्रयोग करते हुए मध्य प्रदेश में मोहन यादव और राजस्थान में भजन लाल शर्मा को सीएम बनाया। ऐसे में योगी सरकार में मंत्री बनने वाले नेता केंद्रीय नेतृत्व से सीधे मिले थे और दिल्ली से अपना रास्ता बनाकर यूपी में आए थे। वह सीएम योगी के माध्यम से नहीं आए हैं। ऐसा इसलिए किया है ताकि प्रदेश का नेतृत्व उनका कोई विरोध ना कर सके।

भाजपा को क्या है फायदा?

रालोद विधायक अनिल कुमार पिछले विधानसभा चुनाव से पहले तक सपा में थे। उन्हें रालोद के सिंबल पर चुनावी मैदान में उतारा गया था। सपा का होने के कारण ही राज्यसभा चुनाव से पहले उनके क्रास वोटिंग की चर्चा भी हो रही थी। रालोद के पुराने और कद्दावर नेताओं को छोड़कर अनिल को मंत्री बनाने के पीछे राज्यसभा चुनाव में भाजपा का साथ देने का इनाम माना जा रहा है। रालोद ने अनुसूचित जाति के मतदाताओं को साधने के लिए सुरक्षित सीट से विधायक अनिल कुमार का नाम मंत्री बनने के लिए आगे किया है।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व यूपी की 80 सीटों में खासतौर पर फोकस कर रहा है। ओपी राजभर का प्रभाव प्रदेश की कुछ सीटों में हैं। वह खुद तो चुनाव जीतने या हारने की क्षमता नहीं रखते लेकिन उनके साथ या खिलाफ होने से राजनीतिक समीकरणों में फर्क पड़ता है। ओपी राजभर और दारा सिंह चौहान के मंत्री बनने की पिछले साल से ही चर्चा चल रही थी। दोनों के मंत्री बनने से लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूर्वांचल में फायदा मिलने की उम्मीद है। अखिलेश यादव के पीडीए की काट भी इन मंत्रियों से निकाला जा सकता है।

सभी वर्गों को साधने की कोशिश

ओपी राजभर और दारा सिंह चौहान जहां पिछड़ी जाति से आते हैं। वहीं अनिल कुमार दलित समाज से हैं। सुनील शर्मा गाजियाबाद और पश्चिमी यूपी में बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं। ऐसे में छोटे से मंत्रिमंडल विस्तार से ही भाजपा ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सभी वर्गों को साधने की बड़ी कोशिश की है। यूपी की ओबीसी जातियों में यादव के बाद सबसे ज्यादा राजभर, चौहान, पटेल बिरादरी के लोगों की संख्या मानी जाती है। राजभर और चौहान के मंत्री बनने से इन वर्गों को साधने में आसानी होगी।

क्या संदेश देना चाहती है BJP?

जानकारों का मानना है कि अमित शाह बीजेपी में सभी जातियों को शामिल करके सामंजस्य दिखाना चाहते हैं। योगी आदित्यनाथ भी इस बात को अच्छे से समझते हैं कि इन जातियों का काफी महत्व है। तो इन नेताओं के पुराने हमलों और उनके बीजेपी सरकारों को छोड़ कर सपा के साथ जाने के फ़ैसलों को कोई व्यक्तिगत रूप से नहीं लेता है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इन जातियों के नेता भले ही अपने दम पर सीटें जिता नहीं सकते पर कुछ सीटों पर हराने का बूता रखते हैं।

ऐसे में इस चुनावी माहौल में इन नेताओं को हाशिए पर धकेलना बीजेपी के ओबीसी जातियों और उनके नेताओं को महत्व देने के दावों को कमजोर कर सकता है। साथ ही अब बीजेपी को इस बात का अहसास है कि अगर वो इन जातियों और ओबीसी नेताओं को उनकी शर्तों पर जगह नहीं देगी तो वो अपने चुनावी लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे। बीजेपी अब ओबीसी वोटर्स को दिखाना चाहती है कि वो उनके भरोसे के लायक है। उत्तर प्रदेश की राजनीति से जुड़ी पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों का मानना है कि बीजेपी यह दिखाना चाहती है कि कोई उससे नाराज़ नहीं है।

बीजेपी आलाकमान के आगे नहीं चलती किसी की!

कहा जाता है कि बड़ी पार्टियों के नेताओं का जब अपनी पार्टी से मोहभंग होता है उसके बाद वे कहीं के नहीं होते हैं। ये बात आज बीजेपी के असंतुष्ट नेताओं के लिए भी कटु सत्य है। बीजेपी के बड़े नेता शिवराज सिंह चौहान को आज भी जीत के बावजूद पांचवी बार सीएम न बनाए जाने का मलाल है। इसी तरह मध्य प्रदेश में 2003 के विधानसभा चुनावों में उमाभारती के नेतृत्व में भाजपा ने तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त किया और वे मुख्यमंत्री बनीं। पर उनका बड़बोलापन और केंद्र से रिश्तों में दरार के चलते अगस्त 2004 में उमा भारती को मात्र 9 महीने बाद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। कुछ ऐसा ही महाराष्ट्र के पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस के साथ भी हुआ जिन्हें पार्टी आलाकमान के कहने पर डिप्टी सीएम की कुर्सी से संतोष करना पड़ा था। राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे भी मुख्यमंत्री पद का दावेदार होते हुए भी कुर्सी पर नहीं बैठ पायीं थीं।