हाल ही में राजस्थान के मानगढ़ धाम में भील जनजाति के लोग बड़ी संख्या में इक्कठा हुए। बांसवाड़ा के सांसद राजकुमार रोत ने एक बार फिर स्वतंत्र ‘भिल राज्य’ की लंबे समय से लंबित मांग को उठाया। सांसद राजकुमार ने मंगलवार को कहा, “बड़ी रैली के बाद एक प्रतिनिधिमंडल प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलेगा।”

राज्य की भाजपा सरकार में आदिवासी क्षेत्र विकास मंत्री बाबूलाल खराड़ी ने एक बयान में जवाब दिया, “लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। हर व्यक्ति को मांग करने का अधिकार है और छोटे राज्य होने चाहिए क्योंकि यह विकास के लिए अच्छा है। हालांकि जाति के आधार पर राज्य बनाना उचित नहीं है। अगर आज आदिवासी हैं, तो कल आपको अन्य समुदाय भी अपनी जाति के आधार पर यही मांग करते दिखेंगे, जो समाज और देश के लिए अच्छा नहीं है। जबकि हम सामाजिक समरसता की बात करते हैं।”

राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक आदिवासी राज्य बनाने के विचार पर पहले भी चर्चा हो चुकी है। उस मांग का आधार क्या है और इसे फिर से क्यों उठाया गया है? जानें

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‘भिल प्रदेश’ क्या है?

पश्चिमी भारत में एक अलग आदिवासी राज्य की मांग पहले भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने रखी थी। BTP का गठन 2017 में गुजरात में हुआ था, जिसका मुख्य एजेंडा यही था।

भील समुदाय की मांग है कि चार राज्यों में से 49 जिले अलग करके भील प्रदेश बनाया जाए। बीटीपी राजस्थान के अध्यक्ष डॉ. वेलाराम घोगरा (जो अब बीटीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं) ने पहले इंडियन एक्सप्रेस से कहा था कि भील समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता गोविंद गुरु ने पहली बार 1913 में आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग उठाई थी।

यह जलियांवाला बाग से छह साल पहले हुए मानगढ़ हत्याकांड के बाद हुआ था और इसे कभी-कभी ‘आदिवासी जलियांवाला’ के नाम से भी जाना जाता है। इसमें 17 नवंबर 1913 को राजस्थान-गुजरात सीमा पर मानगढ़ की पहाड़ियों में ब्रिटिश सेना द्वारा सैकड़ों भील आदिवासियों को मार डाला गया था। हालांकि बीएपी सांसद राजकुमार रोत कहते हैं कि 1913 में आदिवासियों का बलिदान सिर्फ़ भक्ति आंदोलन के लिए नहीं था, बल्कि भील प्रदेश की मांग के लिए था।

वेलाराम घोगरा ने कहा, “स्वतंत्रता के बाद भील प्रदेश की मांग बार-बार उठाई गई।” दशकों से यह मांग कई अन्य लोगों के अलावा, दाहोद से कई बार कांग्रेस के सांसद रहे सोमजीभाई डामोर, रतलाम के पूर्व सांसद दिलीप सिंह भूरिया (जो कांग्रेस के ही हैं) और राजस्थान विधानसभा के पूर्व सीपीआई सदस्य मेघराज तवार द्वारा उठाई और बढ़ाई गई।”

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आदिवासी अलग राज्य क्यों चाहते हैं?

वेलाराम घोगरा ने कहा, “पहले राजस्थान में डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर क्षेत्र और गुजरात, मध्य प्रदेश आदि एक ही इकाई का हिस्सा थे। लेकिन आजादी के बाद आदिवासी बहुल क्षेत्रों को राजनीतिक दलों ने विभाजित कर दिया, ताकि आदिवासी संगठित और एकजुट न हो सकें।”

2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान की आबादी में आदिवासी लगभग 14% हैं और मुख्य रूप से वागड़ क्षेत्र में केंद्रित हैं, जिसमें प्रतापगढ़, बांसवाड़ा डूंगरपुर और उदयपुर जिले के कुछ हिस्से शामिल हैं।

वेलाराम ने पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 का उदाहरण दिया, जो आदिवासी क्षेत्रों में शासन का विकेंद्रीकरण और ग्राम सभाओं को सशक्त बनाने के लिए बनाया गया था। उन्होंने कहा, “यह कानून 1996 में बनाया गया था। राजस्थान सरकार ने 1999 में इस कानून को अपनाया और 2011 में इसके नियम बनाए। लेकिन डूंगरपुर में मेरे गांव पालदेवल में 25 साल बाद भी लोगों को इस कानून के बारे में पता नहीं है। यहां तक कि भाजपा और कांग्रेस के विधायकों और मंत्रियों को भी इस कानून के बारे में उचित जानकारी नहीं है।”

इस क्षेत्र में कई आदिवासी पार्टियां पिछले कुछ सालों में अपने समुदाय को सशक्त बनाने के नाम पर उभरी हैं। कुछ लोग भाजपा और कांग्रेस के मुखर विरोधी भी रहे हैं। उनका दावा है कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियां भीलों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ रही हैं और उन्हें सिर्फ राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करती रही हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिद्वंद्वी होने के बावजूद दिसंबर 2020 में राजस्थान जिला परिषद चुनावों में तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्षी भाजपा के डूंगरपुर जिला परिषद सदस्यों ने बीटीपी द्वारा समर्थित जिला प्रमुख उम्मीदवार को हराने के लिए हाथ मिला लिया। बीटीपी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों ने डूंगरपुर जिला परिषद की 27 सीटों में से 13 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा और कांग्रेस ने क्रमशः 8 और 6 सीटें जीती थीं।

अब मांग की स्थिति क्या है?

2023 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले बीटीपी नेताओं के बीच मतभेदों के बीच भारत आदिवासी पार्टी (BAP) का गठन किया गया था। बीटीपी के अधिकांश राज्य नेता और कार्यकर्ता नए संगठन में शामिल हो गए और इसने मतदाताओं के बीच काफी समर्थन हासिल किया। राजस्थान में सिर्फ़ दो विधायकों वाले अपने मूल बीटीपी के समान विचारधारा रखने वाली बीएपी के पास वर्तमान में राज्य में तीन विधायक और एक सांसद हैं।

बीएपी नेताओं ने हिंदू धर्म और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रभाव के विरोध में एक अलग आदिवासी संस्कृति पर भी जोर दिया है। राजकुमार रोत ने पहले इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, “हमारे अपने पारंपरिक कानून हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने कुछ फैसलों में कहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। हम धर्मपूर्वी लोग हैं।”

हाल ही में मानगढ़ धाम रैली में भी आदिवासी एक्टिविस्ट मेनका दामोर ने कहा कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं और उन्होंने आदिवासी महिलाओं से मंगलसूत्र न पहनने और सिंदूर न लगाने को कहा। बीएपी के उदय के साथ यह देखना बाकी है कि भविष्य में भील प्रदेश की मांग किस तरह से सामने आती है। भविष्य में राज्य में भी आदिवासी मुद्दों को उठाया जा सकता है।