जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में हुए विवाद की जहां तमाम गैर-भाजपाई राजनीतिक दलों ने आलोचना की है, वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने इस मुद्दे पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साध रखी है। उनकी इस चुप्पी पर सवाल भी उठने लगे हैं। ममता ने हैदराबाद विश्वद्यिालय में एक दलित छात्र की आत्महत्या पर उभरे विवाद के तुरंत बाद पार्टी प्रवक्ता व सांसद डेरेक ओ ब्रायन समेत दो लोगों को वहां भेज दिया था। लेकिन डेरेक ने भी अब तक इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
राज्य में ज्यादातर कालेज छात्र संघों पर काबिज तृणमूल की छात्र शाखा तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद ने भी जेएनयू मुद्दे पर सरकार के रवैए के बचाव का संकेत दिया है। उसकी दलील है कि पार्टी राष्ट्रीय सुरक्षा व संप्रभुता के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करती। दूसरी ओर, इस विवाद के विरोध में सोमवार को कांग्रेस व वाममोर्चा कार्यकर्ताओं ने एक साझा जुलूस निकाल कर इस बात के पर्याप्त संकेत दे दिए कि उन दोनों के बीच तालमेल अब महज एक औपचारिकता ही है। हालांकि दोनों दलों के नेताओं की दलील है कि यह रैली गैर-राजनीतिक थी। इसमें किसी भी पार्टी के झंडे या बैनर नहीं थे। लेकिन उन्होंने साथ ही तृणमूल कांग्रेस के किसी प्रतिनिधि के इसमें शामिल नहीं होने को लेकर भी सवाल उठाए हैं। कांग्रेस व माकपा का दावा है कि ममता की चुप्पी से साफ है कि नरेंद्र मोदी और उनके बीच गोपनीय तालमेल है। वैसे, माकपा पहले से ही यह आरोप लगाती रही है।
यहां राजनीतिक हलकों में उम्मीद की जा रही थी कि अपने चरित्र के मुताबिक ममता जेएनयू के छात्रों के समर्थन में खड़ी होंगी। लेकिन शायद राजनीति की जरूरतों ने उनको चुप्पी साधने पर मजबूर कर दिया है। राजनीतिक पर्यवेक्षक ममता की इस चुप्पी की दो वजहें गिनाते हैं। पहली यह है कि राज्य में विधानसभा चुनावों से पहले ममता केंद्र की भाजपा सरकार से कोई पंगा नहीं लेना चाहतीं। शारदा चिटफंड घोटाले और राज्य में आतंकी नेटवर्क के खुलासे के बाद पहले के मुकाबले उनकी स्थिति कुछ कमजोर हुई है और वे संतुलन साधते हुए आगे बढ़ना चाहती हैं। दूसरी ओर, भाजपा को ऊपरी सदन में तृणमूल के समर्थन की जरूरत है।
यानी राजनीतिक हितों के चलते दोनों पार्टियां संतुलन बनाने के खेल में जुटी हैं। इस खेल में जेएनयू विवाद की कोई जगह नहीं बनती। इसके अलावा दूसरी बात यह है कि जेएनयू शुरू से ही वामपंथियों का गढ़ माना जाता रहा है। अप्रैल, 2013 में वामपंथी कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में योजना भवन के सामने ममता व उनके वित्त मंत्री का घेराव किया था। उसमें जेएनयू के वामपंथी छात्र भी शामिल थे। शायद ममता अब तक उस कड़वाहट को नहीं भुला सकी हैं। हकीकत चाहे जो हो, ममता की इस चुप्पी ने कई राजनीतिक मजबूरियों का खुलासा तो कर ही दिया है।