राजनीति में कौन अपना है और कौन पराया है, यह समझ पाना बहुत मुश्किल है। राजनीति में सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही होती है। कई बार स्थितियां उलटती हैं तो कई बार पक्ष में होती हैं, अंतत: क्या होगा, वह अंत में ही पता चलता है। ऐसा ही एक किस्सा मध्यप्रदेश से भी जुड़ा है।
बात 1993 की है, जिस साल दिग्विजय सिंह राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। वे एक दशक यानी दस साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। बतौर सीएम उनका कार्यकाल निर्बाध रहा, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उनका मुख्यमंत्री बनना भी आसान नहीं था। उनके सामने उस समय पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव, विद्याचरण शुक्ल, अजीत जोगी और मोतीलाल वोरा जैसे बड़े नाम थे। इन सबके होते हुए सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना बेहद मुश्किल था।
1993 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीन ली थी। 320 सीटों वाले तत्कालीन मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 174 सीटों पर सफलता मिली थी। उस समय प्रदेश कांग्रेस में ऐसे दिग्गजों की भरमार थी, जिनका दखल न केवल राज्य की राजनीति में था बल्कि केंद्रीय राजनीति के आला नेतृत्व से भी उनकी नजदीकियां थीं। इसीलिए जब बहुमत प्राप्त कांग्रेस के सामने अपने विधायक दल का नेता यानी मुख्यमंत्री के चयन का सवाल आया तो सभी दिग्गजों में से अधिकतर की महत्वाकांक्षाएं जाग उठीं। सभी सीएम की कुर्सी पर दावेदारी जताने लगे। उस समय तक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे दिग्विजय सिंह को कोई भी इस रेस में नहीं गिन रहा था।
‘राजनीतिनामा- मध्य प्रदेश’ पुस्तक में लेखक वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी ने लिखा है कि, ‘उस समय श्यामाचरण शुक्ल का भी नाम मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में था। अर्जुन सिंह अपने शागिर्द सुभाष यादव को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। एक वर्ग ऐसा भी था जो माधवराव सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहता था। उस समय विद्याचरण शुक्ल भी प्रदेश के बड़े नेता थे, उनका भी एक अपना गुट था जो श्यामाचरण के साथ तो नहीं था लेकिन दिग्विजय का विरोधी था।
यह भी पढ़ें: उज्जैन में लगे पाकिस्तान समर्थक नारे, सीएम शिवराज बोले- तालिबानी मानसिकता बर्दाश्त नहीं, बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष ने दिग्विजय सिंह को घेरा
पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के सलाहकार रहे वरिष्ठ पत्रकार संजय बारू ने अपनी किताब 1991: हाऊ पीवी नरिसम्हाराव मेड हिस्ट्री में ठीक इसी समय देश की राजधानी में चल रहे एक और किस्से का जिक्र किया है। दरअसल मध्यप्रदेश में सीएम की कुर्सी के लिए जद्दोजहद चल रही थी और दिल्ली में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सब कुछ अपनी सत्ता की राह को लंबा करने में जुटे थे। उन्हें उनके एक विश्वासपात्र ज्योतिषी ने सलाह दी थी कि यदि अर्जुन सिंह को केंद्र सरकार में मंत्री बनाए रखेंगे तो आप लंबे समय तक पीएम की कुर्सी पर बैठे रहेंगे। नरसिम्हा राव ने यही किया, हालांकि वह इसके पहले अर्जुन सिंह को भोपाल भेजकर मुख्यमंत्री बनाने वाले थे। लेकिन ज्योतिषी की सलाह के बाद ऐसा नहीं हुआ।
पीएम राव के लिए यह सलाह अच्छी नहीं साबित हुई। वह दोबारा पीएम नहीं बन सके, लेकिन उनके इस फैसले की वजह से दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री जरूर बन गए। और ऐसे बने कि दस साल तक लगातार इस पद पर रहे। यह तब हुआ था जब मध्य प्रदेश में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे दिग्विजय सिंह 1993 के चुनाव में सीएम पद की दौड़ में कहीं नहीं गिने जा रहे थे।
दिग्विजय सिंह अपने बयानों को लेकर हमेशा सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं। चाहे वह बाटला हाउस मुठभेड़ पर उनके द्वारा सवाल उठाना रहा हो, अमेरिका द्वारा आतंकी ओसामा बिन लादेन का शव समुद्र में फेंकने पर आपत्ति जताना हो या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उनका हमलावर रुख हो। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दौर में एक वक्त ऐसा भी था जब दिग्विजय सिंह की बयानबाजी के संबंध में कहा जाता था कि दिग्विजय कांग्रेस के ऐसे हथियार हैं जिसे पार्टी चारों ओर से घिरने पर चलाती है और उनका एक विवादित बयान हर मुद्दे से देश का ध्यान भटका देता है।