भारत में गठबंधन की राजनीति के तौर-तरीके कठिन हैं। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि बिहार आज विरोधाभासों से भरा ऐसा विचित्र परिदृश्य पेश कर रहा है। जबकि इस प्रमुख राज्य में आगामी विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। जहां नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला एनडीए (जिसकी कमान भाजपा के हाथ में है) सत्ता में हैं, वहीं विपक्षी महागठबंधन (जिसमें आरजेडी और कांग्रेस शामिल है) एनडीए सरकार को हटाने के लिए पूरी तरह तैयार दिख रहा है।
प्रशांत किशोर ने बढ़ाई दिलचस्पी
राजनीतिक रणनीतिकार से राजनेता बने और जन सुराज पार्टी (JSP) के संस्थापक प्रशांत किशोर की चुनावों में भूमिका भी दिलचस्प है। पिछले कुछ वर्षों में अपनी पदयात्राओं के बाद वे बिहार में एक जाना-पहचाना नाम बन गए हैं। उनका चुनावी प्रदर्शन इस बात की ओर इशारा करेगा कि हमारी राजनीति में अभी भी नई ताकतों के लिए जगहें मौजूद हैं। राज्य में कई लोगों के बीच एक बात आम है कि उन्हें (किशोर को) खारिज मत करो या हम अब पुराने चेहरों से थक चुके हैं।
हालांकि यह सर्वविदित है कि नीतीश कुमार (जो वर्तमान में नौवीं बार मुख्यमंत्री पद संभाल रहे हैं) स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। भाजपा उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए बाध्य है क्योंकि वह नीतीश के फिर से पाला बदलने और एनडीए को अस्थिर करने का जोखिम नहीं उठा सकती। अपनी ओर से जेडीयू चाहती है कि वह सरकार का संचालन जारी रखे, उसने भाजपा के हिस्से से एक सीट ज़्यादा की मांग की है। एनडीए की जीत की स्थिति में भाजपा को फिर से नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। हालांकि बिहार में सरकार का नेतृत्व करना उसके ड्रीम प्रोजेक्ट्स में से एक रहा है।
बीजेपी नीतीश के नेतृत्व में क्यों लड़ रही?
भाजपा नेतृत्व नीतीश को मुख्यमंत्री पद से वंचित करके उन्हें आरजेडी के पाले में नहीं भेजना चाहेगा। आख़िरकार, उन्होंने पहले भी कई मौकों पर पाला बदला है, यहां तक कि महागठबंधन को सरकार बनाने में भी मदद की है। हालांकि सब कुछ अगली विधानसभा में आने वाले विधायकों की संख्या पर निर्भर करेगा।
अगर भाजपा नीतीश को किनारे लगाती है, तो उसे उन निर्वाचन क्षेत्रों की साख भी गंवानी पड़ सकती है जहां अभी भी नीतीश का प्रतिनिधित्व है। गैर-यादव ओबीसी, महादलित, पसमांदा मुसलमान और खासकर बिहार की महिलाएं नीतीश कुमार का बड़ा वोट बेस है। गिरते स्वास्थ्य और कई बार पलटी मारने के बावजूद पुराने ‘सुशासन बाबू’ का समर्थन आधार अभी भी क्यों है, इसकी वजह हाल ही में उनके द्वारा विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का ऐलान, जिसमें हर परिवार की एक महिला को अपना व्यवसाय शुरू करने के लिए 10,000 रुपये प्रति माह का आवंटन भी शामिल है।
जहां तक भाजपा का सवाल है, नीतीश कुमार द्वारा गढ़ी गई एनडीए की जीत का एक दूसरा पहलू भी हो सकता है। यह दिल्ली में अपने वरिष्ठ सहयोगी के साथ उनकी सौदेबाजी की स्थिति को मज़बूत कर सकता है। भाजपा के पास केंद्र सरकार 3.0 के लिए अपना बहुमत नहीं है और वह जेडीयू (12 सीटें) चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी (16) और चिराग पासवान की एलजेपी (आरवी) (4) जैसे एनडीए सहयोगियों पर निर्भर है। नीतीश के प्रमुख भूमिका में होने से चिराग को दिल्ली में अपनी ताकत दिखाने का मौका मिल सकता है। हालांकि अब बिहार चुनावों के लिए उन्हें जेडीयू के साथ उनके मनमुटाव के बावजूद अपने कार्यकर्ताओं को मौजूदा गठबंधन के पक्ष में एकजुट होने के लिए राजी करना होगा।
NDA की हार पर बीजेपी को होगा फायदा?
दूसरी ओर गठबंधन राजनीति की एक और विचित्र विडंबना यह है कि बिहार में एनडीए की हार वास्तव में केंद्रीय स्तर पर भाजपा की स्थिति को मज़बूत कर सकती है। नीतीश के बाहर होने से भाजपा जेडी(यू) के सांसदों का एक बड़ा हिस्सा अपने पक्ष में करने में सक्षम हो सकती है। वह वैसे भी नीतीश से स्वतंत्र होकर उनसे संपर्क कर रही है।
एनडीए को संभावित झटका बिहार में चुनाव आयोग (EC) द्वारा मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर चल रहे विवाद को भी शांत कर देगा, जिसे आने वाले दिनों में चुनावी राज्य पश्चिम बंगाल जैसे अन्य राज्यों में भी लागू किया जाएगा। इस तरह यह कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक महत्वपूर्ण मुद्दे से वंचित कर देगा, जिसे वे ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं। इसमें जिसमें उन लोगों के बीच एक सकारात्मक प्रभाव पैदा करने की क्षमता है जो अपने शासकों को चुनने के लिए मतदान के अपने अधिकार को गंभीरता से लेते हैं।
राहुल की यात्रा कैसी रही?
राहुल की ‘मतदाता अधिकार यात्रा’ ने पूरे बिहार में भीड़ खींची थी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इसके ‘वोट चोरी’ के आरोपों का मतदाताओं पर कितना असर होगा। लेकिन कई लोग राहुल को नई नज़र से देख रहे हैं।
यह यात्रा मूलतः राहुल का शो थी। आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने चुनावी जंग से पहले अपनी पार्टी के ‘एम-वाई (मुस्लिम यादव)’ आधार को मज़बूत करने के लिए इसमें भाग लिया। फिर भी राहुल को मिली प्रतिक्रिया ने आरजेडी के एक धड़े में खतरे की घंटी बजा दी है। अपनी पदयात्रा के कुछ दिनों बाद तेजस्वी ने अपनी ‘बिहार अधिकार यात्रा’ शुरू की, जिसमें वे उन ज़िलों से गुज़रे जहां पहले यात्रा नहीं हुई थी। इस पांच दिवसीय यात्रा में, तेजस्वी ने ‘वोट चोरी’ के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि बेरोज़गारी, बढ़ती महंगाई, महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध और नीतीश सरकार में कथित भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को उजागर किया।
क्या आरजेडी नेता ‘वोट चोरी’ के महत्व को कम करके आंकने की कोशिश कर रहे थे? या क्या यह अकेले पदयात्रा महागठबंधन में अपनी बढ़त फिर से स्थापित करने की कोशिश थी खासकर मुख्यमंत्री पद के लिए? इससे पहले राहुल इस सवाल का जवाब देने से बचते रहे थे कि क्या तेजस्वी महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, जो आरजेडी कार्यकर्ताओं को रास नहीं आया।
अपने भविष्य के रोडमैप के लिए बिहार के महत्व का संकेत देते हुए कांग्रेस ने बुधवार को पटना में विस्तारित कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) की बैठक आयोजित की। ये 1940 के बाद से राज्य में पार्टी की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था की पहली बैठक थी। हालांकि मुद्दा यह है कि वर्षों से कांग्रेस बिहार में आरजेडी के पिछलग्गू की भूमिका निभा रही है। सीटें जीतने के लिए वह अब भी आरजेडी पर निर्भर है।
राहुल की यात्रा के अंत में एक व्यंग्यकार ने कहा, “अब देखना, कांग्रेसियों का दिमाग़ ख़राब हो जाएगा!” उसे डर था कि कांग्रेस अब चुनावों में आरजेडी पर ज़्यादा सीटें जीतने का दबाव बनाएगी, चाहे वे जीतने लायक हों या नहीं। कांग्रेस सीटों के लिए सौदेबाजी के लिए मुख्यमंत्री के मुद्दे का भी इस्तेमाल कर सकती है। राज्य की 243 सीटों के लिए महागठबंधन में सीटों के बंटवारे पर बातचीत के बीच कांग्रेस ने 70 सीटें मांगी हैं और कहा है कि इनमें से 27 सीटें अच्छी हैं। 2020 के चुनावों में पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था और केवल 19 सीटें ही जीत पाई थी। इसका कमज़ोर स्ट्राइक रेट उन कारणों में से एक था जिनकी वजह से महागठबंधन जीत के बेहद क़रीब पहुंचने के बावजूद चुनाव नहीं जीत पाया।
पाटलिपुत्र की गद्दी पर कौन बैठेगा?
बिहार देश के सबसे राजनीतिक रूप से जागरूक राज्यों में से एक है। 1973-74 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए बिहार आंदोलन के परिणामस्वरूप 1975 में आपातकाल लगा, जिसके बाद 1977 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार और केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के रूप में हुई। इसने लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे नए ओबीसी नेतृत्व के चेहरे भी पैदा किए, जिन्होंने तीन दशकों से ज़्यादा समय तक बिहार पर शासन किया। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि पाटलिपुत्र की गद्दी पर कौन बैठेगा।