झारखंड की सियासी अनिश्चितता खत्म होने का नाम नहीं ले रही। चुनाव आयोग की सिफारिश पर राज्यपाल रमेश बैस ने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है। अलबत्ता अब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ही नहीं उनके दूसरे विधायक भाई बसंत सोरेन की भी विधानसभा सदस्यता रद्द करने की चुनाव आयोग ने सिफारिश कर दी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सांसें राजभवन के फैसले को लेकर अटकी हुई हैं। अपनी विधानसभा सदस्यता रद्द होने से तो नहीं घबरा रहे पर सरकार जाने का डर उनके मन में गहरे समाया है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा विधानसभा में सबसे बड़ा दल तो जरूर है पर बहुमत से पीछे। कांगे्रस, राजद और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है उनकी सरकार। बीच में कांगे्रस और झामुमो के विधायकों के पाला बदलने की खबरें फैली तो हेमंत ने अपने और कांग्रेस के विधायकों को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर भेज दिया। कानूनी विशेषज्ञों ने उन्हें सलाह दे दी है कि विधानसभा की सदस्यता रद्द होने से मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे में नहीं पड़ेगी बशर्ते विधायक दल फिर उन्हीं को नेता चुन ले। अपनी ही खाली सीट से छह महीने के भीतर उपचुनाव जीतकर वे फिर सदन के सदस्य बन सकते हैं। शायद इसी सलाह के बाद विधानसभा की सदस्यता से खुद इस्तीफा देने के बजाए उन्होंने सदन में अपना बहुमत साबित करने की रणनीति अपनाई।
सदन में पांच सितंबर को 48 विधायकों ने समर्थन कर भी दिया। मकसद पार्टी में टूट की आशंका को नकारना और विपक्षी भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना था। लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने भी कच्ची गोलियां कहां खेली हैं। उनकी कोशिश तो सोरेन के कुनबे की फूट का फायदा उठाने की बताई जा रही है। हेमंत की एक भाभी भी विधायक है। यानी परिवार के तीन सदस्य विधायक ठहरे।
बसंत को भी मुख्यमंत्री पद बुरा तो लगेगा नहीं। राज्यपाल के लिए समयबद्ध फैसला लेने की कोई कानूनी बाध्यता है नहीं। बेचारे हेमंत को कुछ समझ नहीं आ रहा। तभी तो गुरुवार को पहुंच गए महामहिम से मिलने राजभवन। कह भी आए कि उन्हें जो भी फैसला सुनाना है, उसे सुनाने में देर क्यों कर रहे हैं। अनिश्चय के कारण विरोधी भाजपा को दुष्प्रचार का अवसर मिलने की अपनी शिकायत भी कह दी। भाजपा का झारखंड मोह छूट नहीं रहा है।
रिवाज पर आवाज
हिमाचल प्रदेश में भाजपा मिशन दोबारा के एजंडे पर चल रही है। लेकिन उसे अपनों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। पिछले दिनों शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज का समर्थक मुख्यमंत्री कार्यालय में आरएसएस के कोटे से तैनात एक पदाधिकारी से मिला। भारद्वाज के समर्थक को कोई काम कराना था। लेकिन उक्त कोटे से तैनात पदाधिकारी के साथ मुख्यमंत्री कार्यालय में ही तू-तू मैं-मैं हो गई। मंत्री के समर्थक ने सोशल मीडिया पर लिख डाला कि कार्यकर्ताओं की आवाज तय करेगी रिवाज। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मिशन रिपीट को लेकर लगातार कह रहे हैं कि प्रदेश में एक बार भाजपा, एक बार कांग्रेस का रिवाज बदलेगा।
मंत्री के समर्थक ने लिख डाला कि भाजपा कार्यकर्ता के दो रूप हैं। एक संगठन के लिए काम कर रहा है, दूसरा संगठन से अपना काम करवा रहा है। मामले में न तो मंत्री ने कुछ बोला है और न ही मुख्यमंत्री ने। इससे पहले भाजपा के चुनाव प्रबंधन समिति के अध्यक्ष भाजपा विधायक राजीव बिंदल ने चुनाव प्रबंधन समिति का गठन किया और 2017 में जिन पार्टी पदाधिकारियों ने भाजपा की जीत तय करने के लिए काम किया था, उन्हें समिति में तरजीह दी थी। इन पदाधिकारियों ने बिंदल को कह दिया कि उन्हें पांच साल तक सरकार ने पूछा नहीं। चुनाव आ गए तो सरकार भी व पार्टी को भी उनकी जरूरत महसूस होने लगी। इन पदाधिकारियों ने कह दिया है कि जिन लोगों को तरजीह दी है, उन्हीं से अब काम भी लो और मिशन दोहराओ।
हसरत ही तो है…
भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की नीतीश कुमार और के चंद्रशेखर राव की कोशिश अभी कोई वैसा रंग नहीं दिखा पाई है, जैसी उम्मीद जगाई गई थी। भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के मंसूबे रखने वाले कुछ दलों ने पहले भी की थी ऐसी कोशिश। तब कमान संभाली थी ममता बनर्जी ने। इस बार ममता पटल से गायब हैं। नीतीश को भी सुर बदलने पड़े हैं। प्रधानमंत्री बनने की अपनी हसरत को फिलहाल जुबान पर नहीं ला पा रहे हैं। एक ही मिशन बता रहे हैं अपना। विपक्ष को एकजुट करना और 2024 में भाजपा को सत्ता से हटाना।
इस दलील में बेशक दम है कि समूचा विपक्ष मिलकर चुनौती दे तो भाजपा पर भारी पड़ सकता है। लेकिन सबसे बड़ी अड़चन तो यही है कि मिले कैसे। ऊपर से भाजपा यह सवाल उछाल देती है कि चेहरा कौन होगा? दलील नीतीश ने भी दी है कि 1996 में कौन चेहरा था जब देवगौड़ा कर्नाटक का मुख्यमंत्री पद छोड़ देश के प्रधानमंत्री बने थे। नीतीश भूल रहे हैं कि वह दौर हरकिशन सिंह सुरजीत और विश्वनाथ प्रताप सिंह का था। जिनकी खुद की प्रधानमंत्री बनने की कोई हसरत नहीं थी। चाहें तो शरद पवार अदा कर सकते हैं वह भूमिका। पर प्रधानमंत्री बनने की हसरत तो उनकी भी जरूर होगी।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)