विवादों से दीदी का नाता पुराना है। पश्चिम बंगाल की ममता सरकार एक बार फिर विपक्ष के निशाने पर है। इसकी वजह दोपहर के भोजन में मुर्गे का गोश्त और मौसमी फलों वाली नई खानपान सूची लागू करना है। सूबे की तृणमूल कांग्रेस सरकार ने तीन जनवरी को आदेश जारी कर दिया कि सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में दोपहर के भोजन में बच्चों को हर हफ्ते मांस और मौसमी फल दिए जाएंगे। जो शाकाहारी हैं उन्हें फल और जो शुद्ध शाकाहारी नहीं हैं उन्हें गोश्त दिया जाएगा।

राज्य सरकार का इस पर 372 करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च आएगा। कांग्रेस और वाम मोर्चे को मांस परोसने पर तो एतराज नहीं है पर यह फैसला पंचायत चुनाव के मौके पर किया जाना चुभ रहा है। भाजपा तो खैर मांस तो दूर स्कूलों में अंडा तक परोसने के खिलाफ रही है। ममता सरकार के शिक्षा मंत्री का दावा है कि इस योजना पर होने वाला खर्च प्रधानमंत्री पोषण योजना से अलग होगा। राज्य सरकार खुद उठाएगी यह खर्च। ममता बनर्जी तो कल्याणकारी योजनाओं के लिए सदैव ही प्रयत्नशील रही हैं। पैसे का संकट न होता तो इसे बारह महीने भी लागू कर देती।

रही पंचायत चुनाव की बात तो स्कूली बच्चे तो वोट डालते नहीं। कौन नकार सकता है कि दोपहर का भोजन योजना के कारण स्कूलों में बच्चों का पढ़ाई के लिए आना बढ़ा है। योजना का फायदा 1.16 करोड़ बच्चों को होगा। वैसे, देश के दूसरे 11 राज्यों में भी दोपहर के भोजन के तहत बच्चों को अंडे तो परोसे ही जा रहे हैं। हां, भाजपा ने जरूर कर्नाटक और मध्यप्रदेश में पहले की सरकारों की शुरू की गई अंडा योजना को बंद कर दिया। पाठकों को बता दें कि अपने जनाधार की चिंता दीदी कभी नहीं छोड़तीं।

प्रधानमंत्री ने पिछले महीने सूबे के लिए एक वंदे भारत रेलगाड़ी शुरू की थी तो उद्घाटन के मौके पर प्लेटफार्म पर मौजूद भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा जयश्री राम के नारे लगाने से वे नाराज हो गई थीं। वे पहले भी कई बार कह चुकी हैं कि सरकारी कार्यक्रमों को पार्टी या किसी मजहब का कार्यक्रम बनाना उन्हें मंजूर नहीं। नाराजगी में वे समारोह के लिए बने मंच पर भी नहीं गई थीं।

राहुल का चल-चित्र

राहुल गांधी को भी भरोसा नहीं रहा होगा कि भारत जोड़ो यात्रा को अपार जन समर्थन मिलेगा। यात्रा ने राहुल गांधी की गंभीर नेता की छवि बना दी है। कांग्रेस के नेता कह भी रहे हैं कि भाजपा ने हजारों करोड़ रुपए खर्च कर राहुल की जो छवि बिगाड़ी थी, कड़ाके की ठंड में केवल एक टी-शर्ट में अपनी अब तक की तीन हजार किलोमीटर से ज्यादा की पदयात्रा से उसे एक झटके में धो दिया। यात्रा को उत्तर प्रदेश में महज तीन दिन तक ही सीमित रखने पर भी खूब नुक्ता चीनी सुनाई पड़ी।

पर, कांग्रेसियों का कहना है कि एक चक्र में सारे देश की पद यात्रा संभव नहीं। यह कन्याकुमारी से कश्मीर यानी दक्षिण से उत्तर की यात्रा है। इसके बाद संसद का बजट सत्र भी है। लिहाजा यात्रा को जनवरी में खत्म करना मजबूरी थी। जयराम रमेश ने फरमाया है कि हो सकता है कि अगली यात्रा पूरब से पश्चिम की निकालें। राजनीतिक यात्राओं के इतिहास में राहुल गांधी इतनी लंबी दूरी की पैदल यात्रा करने वाले पहले नेता बन गए हैं। राहुल गांधी की यात्रा की सरगर्मी के बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी करीब दो महीने की अपनी समाधान यात्रा गुरुवार को पश्चिम चंपारण के वाल्मीकि नगर से शुरू कर दी।

लगे हाथ भविष्य की योजना भी बता डाली कि लोकसभा चुनाव से पहले वे भारत यात्रा भी जरूर करेंगे। नीतीश कुमार कह चुके हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले वे विपक्ष को एकजुट करके ही रहेंगे। लेकिन, यह लक्ष्य इतना आसान है नहीं। उत्तर प्रदेश को ही देख लीजिए। कांग्रेस के निमंत्रण के बावजूद अखिलेश यादव, मायावती और जयंत चौधरी में से कोई भी राहुल की भारत जोड़ो यात्रा में शामिल नहीं हुआ। हां, रालोद और भारतीय किसान यूनियन के कार्यकर्ता इस दौरान राहुल के हमसफर बने।

चेहरे पर चुप्पी

राजस्थान विधानसभा चुनाव में अब एक वर्ष से भी कम समय बचा तो सूबे की सियासत में उठापटक भी तेज हो गई। उठापटक दोनों ही दलों में दिख रही है। कांग्रेस में सचिन पायलट के लिए करो या मरो की स्थिति है तो भाजपा में भी वसुंधरा राजे सिंधिया ने अभी तक हथियार नहीं डाले हैं। फिलहाल वे आलाकमान की मिन्नत कर रही हैं कि उन्हें ही पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया जाए। सूबे की सियासत से उनका मोह छूट नहीं रहा। पर अभी तक के संकेत तो यही है कि भाजपा इस बार चुनाव में चेहरे के बिना ही उतरेगी।

चेहरा सिर्फ प्रधानमंत्री का होगा। कांग्रेस में भी अशोक गहलोत भले जुगाड़ में हों कि उन्हें ही चेहरा घोषित कर चुनाव लड़ा जाए। पर एक वर्ग इस राय का है कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की सफलता के मद्देनजर चुनाव राहुल गांधी के चेहरे पर लड़ा जाए। उस सूरत में बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी किसी पसंदीदा को देना संभव हो सकेगा। रही गहलोत की बात तो सचिन पायलट के नाम पर तो वे मानने के भाव में दिख नहीं रहे। देखना यह है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के मुख्य चेहरों का क्या होता है?
(संकलन : मृणाल वल्लरी)