सरकारी बैंकों द्वारा चालू वित्तवर्ष की तीसरी तिमाही में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों यानी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) के मद में ज्यादा प्रावधान करने से इनके शुद्ध मुनाफे में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई है। कुछ सरकारी बैंक घाटे में आ गए हैं, तो कुछ के मुनाफे में भारी गिरावट आई है। सरकारी बैंकों के शेयरों में बारह से पंद्रह प्रतिशत तक की गिरावट के बाद इनके शेयरों की बिकवाली जारी है। निवेशकों के बीच हाहाकार मचा हुआ है।

चालू वित्तवर्ष की तीसरी तिमाही में पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में भारतीय स्टेट बैंक के शुद्ध मुनाफे में इकसठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। दिसंबर, 15 तिमाही में बैंक ने 20692 करोड़ रुपए के नए एनपीए का खुलासा किया है, जिसके कारण उसे बैलेंस शीट में एनपीए के लिए 7645 करोड़ रुपए का प्रावधान करना पड़ा है। इसके शेयरों में लगभग तीन प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। इधर सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, देना बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स, सिंडिकेट बैंक आदि को दिसंबर,15 की तिमाही में शुद्ध घाटे का सामना करना पड़ा है, जबकि बैंक आॅफ वडोदरा को दिसंबर, 15 तिमाही में 3342.04 करोड़ रुपए का घाटा हुआ, जो देश में किसी भी बैंक का अब तक किसी भी तिमाही में हुआ सबसे बड़ा घाटा है। इस बैंक का सकल एनपीए दिसंबर, 14 में 15452 करोड़ रुपए था, जो दिसंबर, 15 में दोगुने से भी ज्यादा बढ़ कर 38934 करोड़ रुपए हो गया।

भले ही निवेशकों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है, लेकिन बैंकों की सेहत को दुरुस्त करने की दिशा में उठाया गया यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिसके सूत्रधार रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन हैं। राजन ने बैकों को साफ तौर पर कहा है कि वे मार्च, 2017 तक अपनी बैलेंस शीट की हालत दुरुस्त कर लें। राजन के मुताबिक बैंकों को क्रेडिट ग्रोथ की जगह एनपीए कम करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। राजन का मानना है कि बैंक, बैलेंस शीट को साफ-सुथरा करने के बाद ही क्रेडिट ग्रोथ बढ़ाने में सक्षम हो सकते हैं, क्योंकि एनपीए पर काबू पाने के बाद बैंक अपनी आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने में समर्थ हो सकते हैं।

इधर, रिजर्व बैंक के ताजा रुख से छोटे बैंकों को पूंजी इकठ्ठा करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि एनपीए वसूली आसान कार्य नहीं है। अधिकतर चूककर्ता (डिफाल्टर) जान-बूझ कर कर्ज नहीं लौटाना चाहते हैं। कुछ डिफाल्टर वाकई कर्ज लौटने में असमर्थ हैं। कुछ कर्ज वसूली की निरंतर कोशिश न होने के कारण एनपीए हुए हैं। मानव संसाधन की कमी के कारण इस मोर्चे पर अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। बहरहाल, घाटे में आने के बाद छोटे बैंकों के लिए बाजार से पूंजी इकठ्ठा करना आसान नहीं होगा। हां, बड़े बैंकों को जरूर पूंजी की दिक्कत नहीं है।

गौरतलब है कि सरकारी बैंक अपने कामकाज में सुधार व अपने को अंतरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष खड़ा करने के लिए लंबे अरसे से प्रयास कर रहे हैं। बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता लाने तथा अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप भारतीय बैंकों के कार्यकलाप में बदलाव लाने के इरादे से 1991 में गठित की गई एम नरसिंहम समिति की रिपोर्ट के आधार पर एनपीए के विविध मानकों का निर्धारण 31 मार्च, 1993 में किया गया था। इसके तहत ऋण खातों में यदि दो तिमाही (180 दिनों) तक ब्याज व किस्त या फिर दोनों जमा नहीं होने पर उन्हें एनपीए में स्थानांतरित कर दिया जाता था।

एनपीए के मामले में 1990 के पूर्व भारतीय बैंकों का रुख सख्त नहीं था, लेकिन 1995 में एनपीए के मानक को सख्त बनाया गया और यह निर्धारित किया गया कि अगर किसी खाते में नब्बे दिनों तक ब्याज या किस्त या फिर दोनों तरह की रकम नहीं जमा होती है तो उसका वर्गीकरण एनपीए के रूप में किया जाएगा। स्पष्ट है नए सिद्धांत या नियम के अस्तित्व में आने के बाद से बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता का सूत्रपात हुआ है और विश्व का भारतीय बैंकों पर विश्वास भी बढ़ा है। इस लिहाज से रघुराम राजन द्वारा एनपीए के मामले में उठाए गए कदम को बैंकिंग प्रणाली में सुधार की दिशा में उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।

बैंक के कार्य को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला, लोगों का पैसा जमा के रूप में स्वीकार करना, और दूसरा, उस जमा पैसे को ऋण के रूप में जरूरतमंद लोगों के बीच वितरित करना। ऋण एक निश्चित अवधि के लिए स्वीकृत किया जाता है, जिसे तय समय-सीमा के अंदर ब्याज व किस्त के रूप में ऋणी को चुकाना होता है। जब तक ऋणी समय पर ब्याज और किस्त अपने ऋण-खाते में जमा करता रहता है, तो उसे स्टैंडर्ड खाता कहते हैं, पर जैसे ही उस खाते में ब्याज या किस्त या फिर दोनों तरह की रकम जमा होना बंद हो जाए, तो उसे एक निश्चित अवधि (जो फिलहाल नब्बे दिन निर्धारित है) के बाद एनपीए खाता कहा जाता है। पर कृषि ऋण के संबंध में यह नियम नहीं लागू होता। एनपीए के नियमों में खातों के वर्गीकरण के हिसाब से बदलाव होता है। जैसे, सरकार को दिए जाने वाले ऋण के मामले में एनपीए के अलग मानक हैं। इसी तरह मियादी ऋण, कैश क्रेडिट, ओवरड्राफ्ट आदि खातों के संदर्भ में भी अलग-अलग नियम हैं।

एनपीए ऐसी रकम है जो बैंकों द्वारा ऋण के रूप में दी जाती है लेकिन इसके वापस आने की संभावना नहीं होती। संपत्ति की गुणवत्ता के मुताबिक, एनपीए को तीन भागों में विभाजित किया गया है। मसलन, 1.मानक पर खरी न उतरने वाली आस्तियां, 2. संदिग्ध आस्तियां, और 3. डूब जाने वाली (लॉस) आस्तियां। कोई खाता एनपीए न हो, इसके लिए बैंकों में स्पेशल मेंशन अकाउंट (एसएमएस) का प्रावधान किया गया है। जिन खातों में एक महीने की किस्त व ब्याज देय रहता है, उनका वर्गीकरण एसएमएस में किया जाता है और उसे अर्ली वार्निंग सिग्नल के रूप में देखा जाता है, ताकि समयानुसार सतर्कता बरती जाए व संभावित एनपीए खातों को एनपीए में तब्दील होने से बचाया जा सके।

रिजर्व बैंक के मुताबिक सितंबर, 15 में कुल बैंक कर्ज में सकल एनपीए, बट््टे खाते में डाल दिए गए एनपीए और पुनर्गठित कर्ज की हिस्सेदारी 14.1 प्रतिशत थी, जबकि मार्च, 15 में यह 13.6 प्रतिशत थी। गौरतलब है कि सरकारी बैंकों में यह सत्रह प्रतिशत है, जबकि निजी बैंकों में 6.7 प्रतिशत है। मौजूदा समय में मध्यम दर्जे के कारोबारियों को दिए गए कर्ज सबसे ज्यादा एनपीए हुए हैं। इस वर्ग को दिए गए कुल कर्ज का 31.5 प्रतिशत कर्ज एनपीए है, जबकि बड़े कारोबारियों को दिए गए कुल कर्ज का 23.7 प्रतिशत कर्ज एनपीए है। शेष 44.8 प्रतिशत एनपीए में कृषि, खुदरा कारोबारियों व अन्य कर्जदारों की हिस्सेदारी है।

गौर करने वाली बात है कि सरकारी बैंकों में ज्यादा एनपीए होने का मूल कारण बड़ी परियोजनाओं व सरकार द्वारा प्रायोजित विभिन्न योजनाओं की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए दिया गया कर्ज है। सरकारी बैंकों में अक्सर राजनीतिक हस्तक्षेप के मामले देखे जाते हैं, जबकि निजी बैंक इस तरह के तामझाम व दबाव से मुक्त रहते हैं। एनपीए केवल बैंकों के लिए नहीं, समूची अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। बहरहाल, आज की तारीख में विमानन, कोयला, बिजली, सड़क, दूरसंचार आदि क्षेत्रों में बैंकों के कॉरपोरेट्स कर्ज फंसे हैं। कर्ज-माफी के बाद कृषि क्षेत्र में भी एनपीए की स्थिति गंभीर हुई है। आज भी किसान अगली कर्ज-माफी का इंतजार कर रहे हैं।

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि बैंकों के लिए एनपीए कैंसर के समान जरूर है लेकिन लाइलाज नहीं। बैंकों के लिए एनपीए जरूर बड़ा मर्ज बन गया है, लेकिन अब सरकारी बैंक इसे छुपाने के मूड में नहीं हैं। वे इसका इलाज करने के लिए तैयार हैं। यह एक अच्छा संकेत है। इसलिए इस पर ज्यादा हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं है। हां, एनपीए का स्तर तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक होने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि आज किसी काम की नहीं है। अगर इस राशि की वसूली की जाती है तो सरकारी बैंकों की लाभप्रदता में इजाफा, लाखों लोगों को रोजगार, नीतिगत दर में कटौती का लाभ कारोबारियों तक पहुंचना, आधारभूत संरचना का निर्माण, कृषि की बेहतरी, अर्थव्यवस्था को मजबूती, विकास को गति आदि मुमकिन हो सकेगा। पड़ताल से साफ है कि एनपीए को कम करने का उपाय उसके मर्ज में छुपे हैं। बैंक में व्याप्त अंदरूनी तथा दूसरी खामियों का इलाज, बैंक के कार्यकलापों में बेवजह दखलंदाजी पर रोक, मानव संसाधन में बढ़ोतरी आदि की मदद से बढ़ते एनपीए पर निश्चित रूप से काबू पाया जा सकता है।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए एनपीए का संज्ञान लिया है। बकाया कर्जों में करीब सत्तर फीसद हिस्सेदारी कंपनियों की है। अदालत ने रिजर्व बैंक से उन कंपनियों की सूची पेश करने को कहा है जिन पर पांच सौ करोड़ से ज्यादा का बकाया है। सुप्रीम कोर्ट के इस रुख ने यह उम्मीद जगाई है कि एनपीए की बाबत की कोई सख्त फैसला होगा और उसे लागू भी किया जाएगा। यही नहीं, ऐसी नीति बन पाएगी, जो एनपीए पर अंकुश लगाने में सक्षम होगी।