अतुल कनक

सरकारी तंत्र की अपनी विवशताएं और खामियां होती हैं। छोटी नदियों को बचाने के लिए सरकारी योजनाओं से अधिक आवश्यक है लोगों का नदियों के प्रति संवेदनशील होना। स्थानीय जुड़ाव के बिना नदियां उपेक्षित ही रहती हैं। लोग अगर नदी के सांस्कृतिक, सामाजिक, पौराणिक और आर्थिक महत्त्व को समझें तो नदियों को उपेक्षा से मुक्ति मिल सकती है।

हरियाणा के यमुनानगर के कनालसी गांव के निकट से एक नदी बहती है- थापना। लगभग पंद्रह किलोमीटर लंबी यह नदी यमुना की सहायक नदियों में एक है। इस नदी की एक विशेषता यह है कि इसमें कुछ ऐसी प्रजातियों की मछलियां पाई जाती हैं, जो प्रदूषित पानी में नहीं रह पातीं। यानी इस नदी में प्रदूषण की स्थिति देश की कई प्रमुख नदियों जैसी नहीं है।

मगर 2012 में इस नदी का अस्तित्व संकट में आ गया था। एक तो उस साल वर्षा अपेक्षाकृत कम हुई। ऊपर से इलाके में विकास के नाम पर होने वाले कुछ निर्माणों ने सहायक धाराओं से थापना में आने वाले वर्षाजल का प्रवाह बंद कर दिया। नदी की स्थिति ने इलाके के कुछ संवेदनशील लोगों को चिंतित किया। किसी भी बड़ी नदी का प्रवाह तंत्र उसकी सहायक नदियों की स्थिति पर ही निर्भर होता है। अगर सहायक नदियां सूख जाएंगी तो मुख्याधारा का प्रवाह कैसे बना रह सकता है? आज अगर देश की कई प्रमुख नदियों की स्थिति शोचनीय है, तो इसका एक कारण है कि हमने सहायक नदियों, जिनमें बरसाती नदियां प्रमुख हैं- को बचाने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।

किसी नदी का इस तरह दम तोड़ना क्या होता है, यह उसके किनारे रहने वाले लोगों से बेहतर कौन समझ सकता है? आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले तक लोगों के घर तक पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था किसी सरकार या शासक की जिम्मेदारी नहीं हुआ करती थीे। उस समय लोगों को नदियों, कुओं, बावड़ियों, तालाबों या कुंडों जैसे जलस्रोतों पर ही निर्भर रहना होता था। कहते हैं कि गरज बावली होती है। स्वार्थसिद्वि की आशा व्यक्ति के व्यवहार को किसी के प्रति संवेदनशील बना देती है। जिस दौर में लोग जल संबंधी आवश्यकता की पूर्ति के लिए ऐसे जलस्रोतों पर निर्भर हुआ करते थे, उस समय इनकी पूजा की जाती थी, इन्हें प्रदूषित करना पाप माना जाता था। करीब डेढ़ सौ साल पहले नदी का लुप्त होना तो छोड़िए, उसका रास्ता बदलना तक पूरे समाज को चिंता में डाल देता था।

2012 में जब थापना नदी में पानी बहुत कम हो गया, तो नदी के किनारे रहने वाले कुछ संवेदनशील लोगों को उन मछलियों और अन्य जीवों की चिंता सताने लगी, जो नदी के पानी में रह रहे थे। एक पंचायत बुलाई गई। नदी किनारे जिन लोगों के खेत थे, उनसे आग्रह किया गया कि वे सिंचाई के लिए नदी में ऐसी जगह पंप लगाएं, जहां अपेक्षाकृत पानी अधिक हो, ताकि कम पानी में रहने वाले जीवों को बचाया जा सके। हालांकि अकाल की आशंका मुंह बाए खड़ी थी, लेकिन कन्यावाला, मंडोली जैसे गांवों के किसानों ने यह मानते हुए कि मूक जीवों की प्राण रक्षा के लिए ऐसा करना पुण्य का काम होगा, पंचायत के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। फिर एक सेवानिवृत्त अधिकारी के ‘यमुना जियो अभियान’ के तहत इस इलाके में बीस ‘नदी मित्र’ मंडलियां गठित की गर्इं। इन मंडलियों के सदस्यों ने इलाके के पांच सौ से अधिक लोगों को नदी संरक्षण के लिए प्रशिक्षित किया। लंदन की संस्था ‘थेम्स रिवर रेस्टोरेशन ट्रस्ट’ का भी सहयोग इन कोशिशों को मिला। इलाके में रहने वाले नदी के प्रति जुड़ाव महसूस करें, इसलिए हर साल सितंबर के आखिरी रविवार को नदी का जन्मदिन मनाने की शुरुआत हुई। सारे प्रयासों ने रंग दिखाए और थापना नदी को बचा लिया गया।

छोटी नदियों को बचाने में स्थानीय लोगों का नदी से जुड़ाव बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। उत्तर प्रदेश के शामली जिले के रामरा गांव में रहने वाले मुस्तकीम मुल्ला नामक युवक ने इस बात को महसूस करते ही यमुना की एक और सहायक नदी कथा को बचाने के लिए ‘एक घर एक लोटा पानी’ अभियान चलाया था, जिसके तहत गांव के परिवारों से आग्रह किया गया था कि वे प्रतीकात्मक तौर पर अपने-अपने घरों से एक एक लोटा पानी नदी को समर्पित करें। इस अभियान ने इस लगभग नब्बे किलोमीटर लंबी नदी के प्रति लोगों की संवेदनाएं जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1830 में जब पूर्वी यमुना नहर का निर्माण किया गया तो सहारनपुर और रामपुर के मध्य एक बड़े हिस्से में नदी का प्रवाह बाधित हो गया। धीरे-धीरे नदी अनदेखी का शिकार होने लगी। नदी मित्र मंडली के सदस्यों ने महसूस किया कि अगर बरसात के दिनों में यमुना की बाढ़ के पानी को अनावश्यक न बहने दिया जाए और उसे किसी तरह कथा नदी की ओर लौटाया जाए या कथा नदी में रोक लिया जाए। शुरुआत एक किलोमीटर के हिस्से में नदीतल में गहरी खुदाई करने से हुई। नदीतल में एक तालाबनुमा रचना बन गई और पानी संचय की मात्रा बढ़ गई। ऐसा नदी के प्रवाह क्षेत्र में कई स्थानों पर किया गया। अतिरिक्त पानी के प्रवाह को रोकने के लिए नदी जल में इन संरचनाओं के पास चेक डैम भी बनाए गए। हालांकि 2017 में कम बारिश होने से लोगों के सपने बाधित हुए, लेकिन अंतत: कथा नदी को बचाने की मुहिम रंग लाई।

सन 2007 में बंगलुरु में अचानक जलसंकट पैदा हो गया। शुद्ध जलापूर्ति का प्रमुख साधन थिप्पागोंडानहल्ली जलाशय में जल स्तर बहुत कम हो गया। इस जलाशय में जलापूर्ति का प्रमुख साधन कुमुदवती नाम की नदी है। मगर कुमुदवती की अपनी हालत पतली थी। ऐसे में कुछ लोगों ने नदी से रेत निकालने और नदी के आसपास के इलाके में भूजल स्तर बढ़ाने के लिए प्राचीन कल्याणियों (बावड़ियों) और अन्य जलस्रोतों के जीर्णोद्वार का काम किया। जब इलाके में जलस्तर बढ़ता है, तो नदी को भी अपना प्रवाह कायम रखने में मदद मिलती है।

केरल के पलक्कड जिले के पल्लसेना गांव के निवासियों ने गायत्रीपुजा नामक नदी को बचाने के लिए नदी के प्रवाह क्षेत्र में जलस्तर बचाने के लिए ऐसे ही उपाय अपनाए। केरल की दूसरी सबसे बड़ी नदी बृहत्तपुजा भी कई स्थानों पर बहुत क्षीण हो गई थी। इस नदी के किनारे बसे पोक्कुटुकावो गांव में स्त्रियों को प्रक्षिशित किया गया, जिन्होंने नदी के पेटे और उसके आसपास जलसंग्रहण के लिए कुएं जैसी संरचनाएं बनार्इं। उत्तर प्रदेश में मंदाकिनी और तमसा नदी को बचाने के काम हुए हैं, जबकि सरकारी स्तर पर तेढ़ी, मनोरमा, पांडु, वरुणा, सासुर, अरिल, मोरवा, नाद, कम्रवती, बाण, सोत, काली, पूरवी, दाढी, ईशान, बूढ़ी गंगा और गोमती नदियों को बचाने के लिए योजनाएं बनाई गई हैं। राजस्थान के जयपुर शहर में द्रव्यवती नाम की ऐतिहासिक नदी एक गंदे नाले में बदल गई थी। उसके ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए उसके जीर्णोद्धार की योजना बनाई गई और उसके किनारे एक रिवर फ्रंट विकसित कर उसे शहर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में जोड़ा गया है।

सरकारी तंत्र की अपनी विवशताएं और खामियां होती हैं। छोटी नदियों को बचाने के लिए सरकारी योजनाओं से अधिक आवश्यक है लोगों का नदियों के प्रति संवेदनशील होना। स्थानीय जुड़ाव के बिना नदियां उपेक्षित ही रहती हैं। लोग अगर नदी के सांस्कृतिक, सामाजिक, पौराणिक और आर्थिक महत्त्व को समझें तो नदियों को उपेक्षा से मुक्ति मिल सकती है। पंजाब की कालीबेई नदी का इतिहास स्वयं गुरु नानकदेव से जुड़ा हुआ था, लेकिन नदियों के प्रति उपेक्षा भाव की प्रवृत्ति ने कालीबेई को भी कुछ सालों पहले एक गंदे नाले में बदल दिया था। संत बलबीर सिंह सिच्चेवाल की पहल पर लोगों का समर्थन मिला और कभी उपेक्षा के अंधेरे में रहने वाली कालीबेई नदी आज लोगों की श्रद्धा और पर्यटन का केंद्र है।
छोटी नदियों को बचाया जा सकता है, बशर्ते स्थानीय लोग उनके प्रति अपनापन महसूस करें।