अतुल कनक
देश के अनेक हिस्सों में तालाबों की दुर्दशा से जनजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है। कुछ समय पहले जब बुंदेलखंड को अकाल का सामना करना पड़ा, तो उसकी भयावहता के लिए उस भूभाग के तालाबों की दुर्दशा को भी जिम्मेदार माना गया था। 2017 में उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि पिछले चार दशक में बुंदेलखंड में चार हजार से अधिक तालाब खत्म हो गए।
जब लोगों को उनकी जरूरत का जल नलों के जरिए घरों में मुहैया नहीं होता था, तब कुंए, बावड़ी, टांके, कुंड, तालाब, जोहड़ या झील लोगों की जरूरत पूरी किया करते थे। आकार और शैली के दृष्टि से इन जलस्रोतों की संरचना अलग-अलग होती थी, लेकिन सबके निर्माण का उद्देश्य वर्षा जल संग्रहण था। इससे न केवल धरती के अंतस को पानी भंडारण का मौका मिलता था, बल्कि जिन दिनों बरसात नहीं होती थी, उन दिनों भी लोगों को जीवन की जरूरतें पूरी करने के लिए पानी आसानी से मिल जाया करता था। सार्वजनिक उपयोग के लिए जलस्रोत बनवाना पुण्यदायक माना जाता था।
अत्रि स्मृति, वामन पुराण, स्कंद पुराण जैसे ग्रंथों में तालाबों को पाटने या उनके पानी को गंदा करने वालों को पाप का भागी बताया गया है, लेकिन आजादी के बाद जब शहरों का विकास हुआ, नई बस्तियों और बाजारों की जरूरत हुई तो विकास के नाम पर अधिकांश तालाबों को या तो पाट दिया गया या फिर उन्हें उपेक्षा के साथ दुर्दशा के हवाले कर दिया गया। इस उपेक्षा का एक बड़ा कारण यह भी था कि जिस जल की जरूरत इन प्राचीन जलस्रोतों से जीवन का रिश्ता बनाए रखती थी, वह जल तो पाइपलाइन के जरिए आदमी के आंगन तक पहुंच गया। कई बार किसी व्यक्ति या वस्तु का सहजता से उपलब्ध हो जाना भी उसकी उपेक्षा का कारण बनता है। पानी के साथ यही हुआ।
चूंकि नलों के माध्यम से घरों में जलापूर्ति के बाद अपनी आवश्यकता के जल संग्रहण के लिए प्राचीन जलस्रोतों तक नियमित जाने की सामान्य अनिवार्यता खत्म हो गई तो तालाबों, कुओं, बावड़ियों और कुंडों की ही नहीं, नदियों तक की उपेक्षा के दिन शुरू हो गए। नदियों का पानी प्रदूषित होने लगा, बावड़ियों और कुंडों में गंदगी जमा होने लगी और तालाबों को काट या पाट कर नए निर्माण होने लगे। देश के अनेक शहरों में प्राचीन तालाबों की जमीन पर नई कालोनियां खड़ी कर दी गई हैं।
इस संबंध में राजस्थान के कोटा नगर का उदाहरण उल्लेखनीय है। भौगोलिक दृष्टि से कोटा उस हाड़ौती के पठार के सबसे निचले हिस्से पर बसा हुआ है, जो कभी ऐतिहासिक गोंडवाना पठार का हिस्सा हुआ करता था। जब कभी पठार के ऊपरी हिस्से में बारिश होती थी, पठार पर इकट्ठा हुआ पानी तेजी से नीचे की ओर दौड़ता था और बस्तियों में अफरा-तफरी मचा देता था। सन 1326 में तत्कालीन बूंदी रियासत के राजकुमार धीरदेह ने इस पठार पर तेरह तालाब बनवाए, ताकि पठार के पानी को संग्रहित किया जा सके। साल भर ये तालाब न केवन लोगों को सिंचाई और घरेलू जरूरतों का पानी उपलब्ध कराते थे, बल्कि भूजल का स्तर बनाए रखने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
मगर समय के साथ वे तालाब कथित विकास की भेंट चढ़ गए। रंगतालाब, अनंतपुरा तालाब, काला तालाब आज भले बस्तियों के नाम हैं, लेकिन कभी इन बस्तियों के स्थान पर यहां भरे-पूरे तालाब हुआ करते थे। छोटा तालाब में एक बाजार बना दिया गया, तो डकनिया तालाब को पाट कर उस पर एक उपनगरीय रेलवे स्टेशन बना दिया गया। अब हालत यह है कि चंबल नदी के किनारे बसे इस शहर के कई इलाकों में भूजल का स्तर खतरनाक तरीके से नीचे चला गया है।
हालांकि यह पीड़ा केवल कोटा की नहीं है। देश के अनेक हिस्सों में तालाबों की दुर्दशा से जनजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है। कुछ समय पहले जब बुंदेलखंड को अकाल का सामना करना पड़ा, तो उसकी भयावहता के लिए उस भूभाग के तालाबों की दुर्दशा को भी जिम्मेदार माना गया था। 2017 में उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग की रिपोर्ट में भी कहा गया था पिछले चार दशक में बुंदेलखंड में चार हजार से अधिक तालाब खत्म हो गए। धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में भी बहुत तालाब थे। मान्यता है कि पछिमाहा देव नामक शासक ने वहां सात सौ से अधिक तालाब खुदवाए थे। राजा बालंद के बारे में कहा जाता है कि वह आम आदमी से कर के रूप में लोहा वसूलता था और फिर तालाब खुदवाता था। हमारे सामाजिक जीवन की कई परंपराएं तालाबों से जुड़ी हैं। 1947 में भारत में तालाबों की संख्या चौबीस लाख थी।
कुछ तालाबों के निर्माण की कथा तो बहुत रोचक है। भोपाल का तालाब, जिसे भोज तालाब भी कहते हैं, संभवत: देश का सबसे बड़ा तालाब है। कहते हैं कि एक बार धार जिले के परमार शासक को कोई रोग हुआ। बहुत इलाज लिए लेकिन फायदा नहीं हुआ। किसी संत ने कहा कि अगर राजा 365 जलस्रोतों के जल से एक साथ स्नान करेंगे तो ही ठीक होंगे। परिणाम स्वरूप इस तालाब का निर्माण हुआ। मध्यप्रदेश के ही सागर में स्थित लाखा बंजारे के तालाब के बारे में जनश्रुति है कि राजा ने तालाब तो खुदवा दिया, लेकिन उसमें जल की एक बूंद नहीं निकली।
किसी ने कहा कि अगर कोई नवदंपति तालाब की जमीन में झूला झूलें तो जमीन से जल निकलेगा, लेकिन झूला झूलने वाले उसमें डूब जाएंगे। कोई इस बलिदान के लिए तैयार नहीं हुआ। तब लाखा नामक बंजारे ने जनहित के लिए अपने पुत्र और बहू से कहा कि वे तालाब की जमीन पर झूला झूलें। राजस्थान के बूंदी जिले के हिंडौली कस्बे में स्थित एक तालाब के बारे में कहा जाता है कि जब एक बंजारे की बेटी ने अपनी सासू से कहा कि सासू मां गंदे पैर लेकर घर में क्यों आ गई, तो सासू ने ताना मारा कि कौन-सा तेरे पिता ने यहां हमारे लिए पैर धोने के पानी का इंतजाम कर रखा है? यह बात बहू के पिता को पता चली तो उसने गांव में एक तालाब ही बनवा दिया। मध्यप्रदेश में नरवर के ऐतिहासिक किले में एक तालाब है। नल दमयंती के महल के निकट स्थित इस तालाब के अंदर आठ कुएं और नौ बावड़ियां हैं। इस तालाब का निर्माण इसलिए कराया गया था ताकि युद्ध काल में परिस्थितियां कितनी ही विकट क्यों न हो जाएं, किले के अंदर रहने वालों को पानी की समस्या का सामना न करना पड़े।
तालाबों के साथ दंतकथाएं, परंपराएं और अनेक संस्कार कर्म जुड़े हैं, लेकिन कथित विकास ने अधिकांश तालाबों का गला घोंट दिया है। ऐसे में कर्नाटक के मांड्या जिले के दासनदोड््डी गांव के बयासी वर्षीय चरवाहे कामेगोडा ने जो कर दिखाया, वह कइयों के लिए प्रेरक हो सकता है। कामेगोडा ने अपने प्रयासों और पैसों से अपने गांव के पास स्थित कुडिनीबेट्टा पहाड़ी पर चौदह तालाब बनवा दिए। करीब चार दशक पहले जब कामेगोड़ा इस पहाड़ी पर अपनी भेड़ें चराने जाता तो पशुओं और पक्षियों को पानी के लिए परेशान होते देखा। वे केवल उस पानी पर निर्भर थे, जो बरसात में गिरने के बाद इधर-उधर किसी खड््डे में रह जाता था।
कामेगोड़ा ने इस पानी को संग्रहित करने के लिए तालाब बनाने का निश्चय किया। अपनी कुछ भेड़ें बेच कर औजार खरीदे और फिर अकेले ही पहाड़ी पर तालाब खोदना शुरू कर दिया। इससे न केवल पशु-पक्षियों को पानी मिलने लगा, बल्कि पहाड़ी पर हरियाली भी लौटने लगी। बाद में तो जैसे कामेगोड़ा को तालाब खोदने का नशा ही हो गया। इस काम के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा मिले सम्मान की राशि उसने इसी काम पर खर्च कर दी। शुरू में जो गांव वाले उसे पागल कहते थे, अब वे उसका बहुत सम्मान करते हैं।
तालाबों को बचाने के लिए समाज में ऐसे ही तो जुनून की जरूरत है।