अभिषेक कुमार सिंह

इसकी चाहे लाख कसमें क्यों न खाई जाएं और कायदे-कानूनों की लाख दुहाई क्यों न दी जाए, पर गीत-संगीत और फिल्मों की डिजिटल चोरी यानी पाइरेसी की समस्या बढ़ती ही जा रही है। इस डिजिटल चोरी का अभिप्राय यह है कि किसी फिल्म आदि का चुराया या उड़ाया हुआ रूपांतर आसानी से इंटरनेट आदि पर उपलब्ध हो जाए और लोग उस फिल्म को थियेटर में जाकर देखने की बजाय अपने स्मार्टफोन, टीवी या कंप्यूटर पर देख डालें। कई बार चोरी की गई सामग्री गुणवत्ता भी इतनी अच्छी होती है कि मोबाइल-कंप्यूटर पर एक बार देख लिए जाने के बाद उसे सिनेमाहाल में जाकर देखना फिजूल हो जाता है। लिहाजा, फिल्मकार के लिए कमाई करना तो दूर, फिल्म की लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता और इससे उसकी मेहनत पर पानी फिर जाता है।
भारत में फिल्मों की पाइरेसी कोई नई नहीं है। फिल्मों के रिलीज होने के चंद दिनों और कई बार तो कुछ ही घंटों के अंतराल में इंटरनेट पर पूरे-पूरे लिंक के साथ ये आ जाती हैं।

ऐसे असंख्य किस्से देश में हो चुके हैं कि कैसे कोई फिल्म अपनी वास्तविक रिलीज के साथ या उससे पहले ही इंटरनेट पर आ गई और लाखों लोगों ने उसे मोबाइल, कंप्यूटर या टीवी सेटों पर असली परदे पर आने से पहले ही देख डाला। ऐसा करने वालों में आम-खास का फर्क भी मिट चुका है। बॉलीवुड की लगभग हर चर्चित फिल्म पाइरेसी का शिकार हो रही है और देश में अवतरित होने पर हॉलीवुड की सनसनीखेज फिल्मों के साथ भी ऐसा होता है। फिल्मों का शौकीन शायद ही कोई शख्स बचा होगा, जो यह कह सके कि उसने किसी फिल्म का डिजिटली चुराया हुआ रूपांतर अपने मोबाइल या टीवी-कंप्यूटर पर नहीं देखा है। देश में जिस तेजी से मोबाइल उपभोक्ताओं की तादाद बढ़ रही है और इंटरनेट लोगों की पहुंच में आ रहा है, फिल्मों की चोरी का मर्ज एक लाइलाज बीमारी में तब्दील होता जा रहा है। इस कारण हो रहे नुकसान की जो तस्वीर उभर कर आई है, उसके मुताबिक पाइरेसी से हमारा सिनेमा जगत सालाना सोलह हजार दो सौ चालीस करोड़ की आर्थिक क्षति झेलता है। दूसरा नुकसान रोजगारों का है, जिसका कोई अनुमान ऊपर से नहीं लगता, पर आकलन बताते हैं कि पाइरेसी की बदौलत सिनेमा और गीत-संगीत उद्योग में आठ लाख रोजगार खत्म हो गए।

यों तो फिल्म उद्योग से जुड़े लोग इस चोरी के खिलाफ लंबे समय से आवाज उठाते रहे हैं। वे इस बारे में एक सख्त कानून बनाने और उस पर प्रभावी अमल की मांग भी करते रहे हैं। एकाध मौकों पर संबंधित पक्षों के बीच यह सहमति भी बनी है कि इस चोरी को रोकने का कोई उपाय किया जाएगा- जैसे पाइरेसी के स्रोत को पकड़ा जाएगा और सजा दी जाएगी। वर्ष 2015 में तिरुवनंतपुरम में आयोजित केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ‘पाइरेसी और मूल रचना’ विषय पर आयोजित एक चर्चा-सत्र में भी पाइरेसी के खिलाफ कठोर कदम उठाने की मांग की गई थी। इससे पहले वर्ष 2012 में देश के कॉपीराइट कानून में संशोधन करके गीतकार, संगीतकार, संवाद और पटकथा लेखक के स्वत्वाधिकार के संरक्षण के लिए नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान किया गया था। इधर, प्रधानमंत्री भी जब मुंबई में नेशनल म्यूजियम आॅफ इंडियन सिनेमा का उद्घाटन करने पहुंचे तो उन्होंने पाइरेसी को फिल्मकारों की मेहनत की बेइज्जती करार देते हुए संबंधित कानून सिनेमैटोग्राफी एक्ट, 1952 को और सख्त बनाने की बात कही। पर क्या कानूनी सख्ती समस्या का इलाज कर सकेगी?

इसका सच यह है कि चूंकि नकली गीत-संगीत-मनोरंजन का कारोबार करने वाली कंपनियों के बारे में एक धुंधली स्थिति छोड़ दी गई थी, जिसकी वजह से इस गोरखधंधे पर पूरी तरह लगाम लगाना मुमकिन नहीं हो सका। आज हालात और बिगड़ चुके हैं। अब तो इंटरनेट पर ऐसी सैकड़ों वेबसाइटें हैं जहां से किसी भी गीत-संगीत या फिल्म की कॉपी डाउनलोड कर ली जाती है या फिर वह कॉपी दूसरों को दोस्ती निभाने के लिए या मामूली कीमत लेकर मुहैया करा दी जाती है। दावा किया जा रहा है कि हर साल पाइरेसी की वजह से फिल्म-संगीत उद्योग अपनी केवल दस प्रतिशत रचनाओं का आर्थिक लाभ उठा पा रहा है। बाकी की नब्बे प्रतिशत रचनाएं पाइरेसी की दुनिया में खप जाती हैं।

पाइरेसी से जुड़े आंकड़े भारत को आॅनलाइन पाइरेसी का एक बड़ा अड्डा भी साबित करते हैं। माना जाता है कि देश की राजधानी दिल्ली के अलावा मुंबई और बंगलुरु जैसे आधुनिक शहरों में अवैध रूप से जम कर पाइरेसी हो रही है। हालांकि फिल्मों को गैरकानूनी रूप से डाउनलोड करने के मामले में भारत पूरी दुनिया में अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा के बाद चौथे नंबर पर है, लेकिन यहां इंटरनेट का तेज विस्तार जल्द ही इस अवैध कारोबार का दायरा भी बढ़ा सकता है। इस समस्या का सबसे मुश्किल पहलू यह है कि अब फिल्मों और उनके गीत-संगीत की चोरी कोई कठिन काम नहीं रह गया है। पहले तो इस धंधे में लगे लोगों को सिनेमाहाल में जाकर वीडियो कैमरे से पूरी फिल्म की कॉपी करनी पड़ती थी। पाइरेसी में लगे लोग आम तौर पर फिल्म रिलीज होने के बाद सिनेमा हॉलों में छिपे कैमरों से टुकड़े-टुकड़े में फिल्में चुराते थे और बाद में उन्हें एडिट करके पूरी फिल्म बना लेते थे। लेकिन अब तो फिल्म को एडिटिंग या डबिंग लैब या सेंसर के पास कराने के दौरान भी चुराया जा सकता है।

वह समय कब का जा चुका जब फिल्मों की रीलें बक्सों में भर-भर कर आती थीं और कैंची-टेप से उनकी एडिटिंग की जाती थी। डिजिटल युग में फिल्मों की चोरी सिर्फ एक क्लिक की बात रह गई है। अब अगर इंटरनेट पर कोई सीधा स्रोत मिल जाए तो सिर्फ एक क्लिक करने भर से उसके हजारों डिजिटल संस्करण तैयार किए जा सकते हैं। हालांकि कई बार इन स्तरों पर सुरक्षा और एहतियात भी कोई काम नहीं आते। जैसे वर्ष 2009 में हॉलीवुड में फॉक्स प्रोडक्शन हाउस की ‘एक्स-मैन आॅरिजिंस वॉल्वराइन’ की सुरक्षा के सारे इंतजाम थे, तो भी उसकी क्लिपिंग रिलीज से पहले इंटरनेट पर आ गई थीं। इससे निर्माता फॉक्स प्रोडक्शन को भारी घाटा सहना पड़ा था। लेकिन वहां एक अच्छी बात यह हुई कि रिपोर्ट मिलने पर एफबीआई ने पाइरेसी के दोषियों को गिरफ्तार कर लिया था।

पाइरेसी फिल्म उद्योग के जीवन-मरण का प्रश्न बन गई है, इसलिए यह उद्योग अपने स्तर पर इससे निपटने का प्रयास कर रहा है। जैसे कुछ साल पहले भारत की बड़ी फिल्म और मनोरंजन कंपनियों ने अमेरिका की मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के साथ एंटी-पाइरेसी गठबंधन बनाया था। लेकिन पाइरेसी से राहत तो तभी मिलेगी जब कॉपीराइट की चोरी के संबंध में कड़े कानून बनाए जाएंगे और बौद्धिक चोरी (पाइरेसी) की घटनाओं की शिकायत पर दोषियों को पकड़ कर उन्हें कड़ा दंड दिया जाएगा। पाइरेसी के कारण फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों की रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो रहा है, इसलिए वहां से तो इसके खिलाफ आवाज उठ रही है और एकजुटता दिखाई पड़ रही है, लेकिन आम समाज में इसे लेकर कोई खास जागरूकता नहीं है। इसकी वजह यह है कि लोगों को पाइरेसी के चलते कोई फिल्म लगभग मुफ्त में हासिल हो जाती है। इसलिए पाइरेसी के खिलाफ चलाई जाने वाली मुहिम में आम लोगों को भी जोड़ने की जरूरत है ताकि वे अपना तात्कालिक लाभ देखने की जगह फिल्म इंडस्ट्री और व्यापक स्तर पर राजस्व के रूप में देश की अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान को भी देख सकें।