रवि शंकर

भारत में अस्पतालों में आग लगने की बढ़ती घटनाएं चिंताजनक हैं। इसी महीने महाराष्ट्र और भोपाल के दो अस्पतालों में आग की घटनाओं में एक बार फिर निर्दोष लोग मारे गए। महाराष्ट्र के अहमदनगर के सिविल अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में आग लगने से दस कोरोना मरीजों की मौत हो गई। सात लोग गंभीर रूप से घायल भी हो गए। अहमदनगर में हुए इस हादसे का जख्म अभी भरा भी नहीं था कि चंद दिनों बाद ही भोपाल के हमीदिया अस्पताल में नवजात शिशु कक्ष में आग लगने से चार नवजात शिशुओं की मौत हो गई।

अस्पतालों में आग की इन घटनाओं से एक बार फिर यह सवाल उठा है कि आखिर सुरक्षा में चूक कहां हो रही है। जब अस्पताल ही जान के दुश्मन बन जाएंगे तो मरीज भला किसके भरोसे रहेंगे? हैरत की बात यह है कि पिछली घटनाओं के बाद भी अस्पतालों के प्रबंधन की लापरवाही कम नहीं हुई। लगता है कि हम पिछली घटनाओं से कोई सबक नहीं लेना चाहते। आग लगने की वजह चाहे बिजली संबंधी मामले हो या फिर कुछ कारण, पर इसकी कीमत मरीजों को ही चुकानी पड़ रही है।

हालांकि ऐसी हर घटना के बाद शासन-प्रशासन व्यवस्था को दुरुस्त करने के वादे और दावे करता है, लेकिन फिर भी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं। इससे साफ है कि अस्पतालों में बचाव संबंधी सुरक्षा तंत्र कहीं न कहीं बड़ी खामियों का शिकार बना हुआ है। इस ओर न सरकार का ध्यान जाता है, न अस्पताल प्रबंधन का। हर बड़ी घटना के बाद प्रशासन व सरकार हरकत में आती है, लेकिन अफसोस यह कि सरकार या प्रशासन सामान्य लापरवाही या मानवीय चूक मान कर रफा-दफा कर देता है।

देखने में अब तक यही आया है कि आमतौर पर अस्पतालों में अग्नि सुरक्षा के निर्धारित मानकों का घोर उल्लंघन होता है। आग लग जाने की स्थिति में बचाव उपकरण काम नहीं करते। अधिकतर अस्पतालों में अग्निशमन उपकरण दिखावटी ही होते हैं। इसी तरह अस्पताल परिसरों में बिजली उपकरणों का नियमित रखरखाव को लेकर भी भारी लापरवाही अक्सर देखने को मिलती है। इसी का नतीजा है कि आए दिन अस्पतालों में आग की खबरें देखने को मिलती हैं।

बहरहाल महाराष्ट्र व भोपाल के अस्पतालों में हुई आगजनी की घटना के बाद एक बार फिर अस्पतालों में आग से सुरक्षा के बंदोबस्त को लेकर सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में देखा जाए तो ज्यादातर जिला अस्पतालों या दूसरे सरकारी में आग से बचाव के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। दरअसल सरकारी अस्पतालों को लेकर तो स्थानीय प्रशासन ही गंभीर नजर नहीं आते। न ही ऐसे मामलों को जनप्रतिनिधि उठाते हैं। जबकि सरकारी अस्पतालों में रोजाना बड़ी संख्या में लोग उपचार के लिए जाते हैं। यही कारण है कि हादसा होने पर भारी नुकसान होने का खतरा बना रहता है।

गौरतलब है कि कोरोना महामारी के दौरान निजी अस्पतालों में हुई आगजनी की घटनाओं को लेकर इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की थी। एक सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि अस्पताल अब एक ऐसे बड़े उद्योग में बदल गए हैं जो कि इंसान की जान की कीमतों पर चल रहे हैं। इनमें मानवता खत्म हो गई है। हम इन्हें इंसानी जान की कीमत पर समृद्ध होने की अनुमति नहीं दे सकते। ऐसे अस्पताल बंद किए जाएं। अदालत ने साफ कहा था कि सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करने पर जोर दे। सुप्रीम कोर्ट ने ये बातें देश भर में कोरोना मरीजों के उचित इलाज, शवों के रखरखाव और अस्पतालों में आग लगने की घटनाओं से जुड़ी घटनाओं पर एक सुनवाई के दौरान कही थी।

अहम सवाल यह है कि ज्यादातर अस्पतालों में सुरक्षा और बचाव संबंधी मानकों को लागू नहीं किया गया है। हालत यह है कि अस्पतालों के पास आग बुझाने के लिए पानी के हाईड्रेंट जैसे उपकरण तक नहीं है। अस्पतालों की ऊपरी मंजिल से नीचे पहुंचने को केवल संकरी सीढ़ियां एकमात्र रास्ता होती हैं। दीवारों पर आग बुझाने के जो उपकरण लगे दिखते हैं उनमें भी ज्यादातर इतने पुराने मिल जाएंगे कि जरूरत पड़ने पर किसी काम नहीं आते।
भारत के अस्पतालों में इस साल आश्चर्यजनक रूप से आग लगने की कई घटनाएं हुर्इं हैं। एक के बाद एक हादसे इस बात का प्रमाण हैं कि हम पिछले किसी हादसे से सबक नहीं लेते। इसका बड़ा कारण यह है कि किसी भी हादसे की पूरी तरह गहराई से जांच नहीं होती। जांच में लीपापोती से पता ही नहीं चल पाता कि असली कारण क्या रहे और भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों, इसके लिए क्या कदम उठाए जाएं। होना यह चाहिए कि किसी भी अग्निकांड के बाद जांच में जो कारण सामने आएं, उनसे बचाव के पुख्ता इंतजामों पर काम हो। लेकिन ऐसा देखने में आता नहीं है।

अग्निकांड की घटनाओं को लेकर बरती गई अस्पताल प्रबंधनों और स्थानीय प्रशासन का लापरवाही भरा नई चुनौतियों को जन्म दे रहा है। अस्पतालों में आग की घटनाएं न हों, इसके लिए तात्कालिक उपायों के रूप में आग बुझाने के लिए पर्याप्त अग्निशमन यंत्रों, जल की उपलब्धता व आपूर्ति की व्यवस्था को समय रहते दुरुस्त करना होगा। ध्यान रहे, अक्सर विपत्ति एक साथ कई मोर्चे पर आती हैं। संकट के समय चुनौतियों से मुंह फेरने के बजाय उनका समाधान ही सबसे अच्छा विकल्प है।

ऐसा नहीं है कि आग से बचाव को लेकर देश में नियम और मानकों का कोई अभाव है। भारतीय मानक ब्यूरो ने तो बाकायदा भवन निर्माण संहिता तैयार बना रखी है। हालांकि अनिवार्य न होने के कारण इन मानकों को लागू करना या न करना राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। दो साल पहले यह मुद्दा लोकसभा में उठ भी चुका है। तब राष्ट्रीय भवन निर्माण संहिता को अनिवार्य बनाने की मांग की गई थी। 1970 में तैयार राष्ट्रीय भवन संहिता में 1983, 1987, 2005 में संशोधन कर उसे प्रभावी बनाया गया। फिर 2016 में इसे संशोधित किया गया।

इस संहिता के भाग-4 में अस्पताल जैसे संस्थानों में आग के हादसों से बचाव के लिए विस्तार से उपाय बताए गए हैं। इसके लिए भवन सामग्री और उसकी परीक्षण पद्धतियों के मापदंडों के लिए लगभग एक हजार तीन सौ मानकों का उल्लेख है। एक साधारण व्यक्ति भले ही भवन निर्माण संहिता के प्रति जागरूक न हो, लेकिन अस्पतालों और सार्वजनिक भवनों के निर्माण के दौरान इसे अनिवार्यता के साथ लागू करना अनिवार्य होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से राज्यों के लोक निर्माण विभागों को राष्ट्रीय भवन संहिता के प्रावधानों के प्रति जो गंभीरता दिखानी चाहिए, वह नदारद ही नजर आती है। कुछ मुठ्ठीभर सरकारी और निजी अस्पतालों को छोड़ दें, तो इनके निर्माण के दौरान अग्नि सुरक्षा की रस्मअदायगी के अलावा यहां राष्ट्रीय भवन निर्माण संहिता के प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है।

अस्पतालों में आग की घटनाओं को फारेंसिक विशेषज्ञ मानवीय लापरवाही और नियमों के प्रति उदासीनता का नतीजा करार देते हैं। बावजूद इसके कुछ मामलों को छोड़ दें तो राज्यों की एजंसियों से मिलीभगत के कारण दोषियों पर सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है। यदि सक्षम प्राधिकार ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई करे तो निश्चित रूप से मानवीय जीवन को संकट में डालने वाले लोगों व संस्थानों की जवाबदेही तय की जा सकेगी।