अनंत विजय
दिल्ली में आम आदमी पार्टी में मचे सियासी घमासान और प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और अजीत झा को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर करने के बाद अचानक राजनीतिक टिप्पणियों और टिप्पणीकारों की बाढ़ आ गई है। आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच कई राजनीतिक विश्लेषक इस बात की डफली बजा रहे हैं कि आंदोलन ने एक बार फिर से जनता को ठग लिया। अलग तरह की राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल भी वैसे ही निकले। आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और जो केजरीवाल कहें वही सही जैसे जुमले भी सुनने को मिले। कई राजनीतिक विश्लेषकों को तो यह कहते हुए भी सुना गया कि केजरीवाल ने जिस तरह जनता का भरोसा तोड़ा है उसने एक बार फिर से भारत में जनांदोलन के उभार की संभावनाओं को खत्म कर दिया है।
उनके तर्क हैं कि उन्नीस सौ सतहत्तर में जेपी आंदोलन के बाद बनी सरकार ने जनता का भरोसा तोड़ा। अपने तर्क के समर्थन में वे जनता सरकार के पतन को गिनाते हैं और कहते हैं कि मोरारजी देसाई की सरकार ढाई साल से ज्यादा नहीं चल पाई। उस वक्त भी जनता पार्टी के नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ गई थीं कि पार्टी और सरकार उनका बोझ नहीं संभाल पाई। इसके अलावा यह भी याद दिलाया जा रहा है कि उन्नीस सौ नवासी में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर जनता को एकजुट कर सरकार बनाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह भी सरकार नहीं चला पाए और उनके भी नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव के चलते जनता दल के साथ सरकार डूब गई। इन दोनों ऐतिहासिक राजनीतिक घटनाओं के आलोक में अब आम आदमी पार्टी के घटनाक्रम की तुलना की जा रही है। इन्हीं तर्कों के आधार पर अरविंद केजरीवाल की नैतिकता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
कल तक जो राजनीतिक पंडित योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ बोलते नहीं थक रहे थे आज वही उनसे हमदर्दी दिखाने लगे हैं। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे करीब डेढ़-दो साल पहले जब भाजपा में नरेंद्र मोदी का उदय हो रहा था तो कुछ राजनीतिक पंडितों को लालकृष्ण आडवाणी अच्छे लगने लगे थे। जबकि वही लोग नब्बे के दशक में आडवाणी को सांप्रदायिक या ‘हार्डलाइनर’ आदि कहते नहीं थकते थे। दरअसल, हमारे राजनीतिक विश्लेषकों को इतिहास-बोध थोड़ा कम है, वे अपनी राय तात्कालिकता के आधार पर बनाते हैं और फिर उसको अपने लेखों में पिरो कर पेश कर देते हैं। टेलीविजन पर बैठने वाले विशेषज्ञों को तो कुछ भी कह कर बच निकल जाने की छूट होती है। राजनीतिक विश्लेषकों को याद दिलाना जरूरी है कि उपरोक्त दोनों उदाहरण आम आदमी पार्टी के घटनाक्रम से मेल नहीं खाते हैं।
जनता पार्टी और जनता दल की सरकारें, दोनों बेमेल संभावनाओं का संगम थीं, जबकि आम आदमी पार्टी एक विचार की पार्टी है। जेपी की शख्सियत ने भले सबको एक छतरी के नीचे ला खड़ा किया था, लेकिन नेताओं के बीच विचारधारा की दीवार टूट नहीं पाई थी। विचारधारा की वही दीवार, मोरारजी देसाई की जिद और जेपी को लेकर उनके मन में नफरत, जनता पार्टी के प्रयोग को विफल कर रही थी। दरअसल जेपी से मोरारजी की चिढ़ पुरानी थी। 27 अगस्त 1978 के ‘रविवार’ पत्रिका के अंक में संतोष भारतीय ने इस पर विस्तार से लिखा और बताया कि कैसे गुजरात छात्र आंदोलन के दौरान जब जेपी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ी तो मोरारजी ने उसको गिराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। एक बार तो मोरारजी के बयान से खिन्न होकर जेपी ने गुजरात जाने से मना कर दिया था। तब नारायणभाई देसाई जेपी को समझा-बुझा कर वहां ले गए थे।
इस संदर्भ में यह बताना आवश्यक है कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमाकर जब उस वक्त के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से बात कर रहे थे और बातचीत के क्रम में जब उन्होंने जेपी की तारीफ की तो मोरारजी भड़क गए और उनकी बात को काटते हुए कहा था कि ‘ही हैज डन नथिंग’ (उन्होंने कुछ नहीं किया)। इन प्रसंगों से साफ है कि मोरारजी देसाई के मन में जेपी को लेकर कैसा भाव था। जेपी को अंधेरे में रख कर मोरारजी भाई को प्रधानमंत्री बनाया गया था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। बावजूद इसके जेपी, मोरारजी के खिलाफ लगभग दो साल तक खामोश रहे थे।
यह मोरारजी देसाई की काबिलियत (?) थी कि जिस इंदिरा गांधी को जनता ने सतहत्तर में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था उन्हीं इंदिरा गांधी को ढाई साल बाद गाजे-बाजे के साथ प्रधानमंत्री की गद्दी पर बिठा दिया। उदाहरण अगर देना ही हो तो मोरारजी देसाई की चिढ़ की समानता को देखने की कोशिश करनी चाहिए।
दूसरा उदाहरण विश्वनाथ प्रताप सिंह के वक्त का दिया जा रहा है कि उन्नीस सौ नवासी में जनता ने विश्वनाथ प्रताप सिंह में जो भरोसा दिखाया था वह भी टूटा। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। यहां उदाहरण तो ठीक दिया जा रहा है, लेकिन संदर्भ गलत है। विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर को अगर याद करें तो उस वक्त भी विपक्ष में ऐसे नेताओं की भरमार थी, जिनके पास वैकल्पिक राजनीति का नक्शा हर वक्त मौजूद रहता था। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के वक्त भी सिद्धांतवादी नेता का चोला ओढ़ने वाले उनकी खिंचाई किया करते थे। उस वक्त यह साबित हुआ था कि राजनीति सैद्धांतिकी से नहीं, सादगी और ईमानदारी से चलती है।
विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार अपने अंतर्द्वंद्वों से गिरी थी लेकिन केजरीवाल सरकार के कोई अंतर्द्वंद्व नहीं हैं। किसी और दल के समर्थन की बैसाखी पर वह नहीं टिकी है। जिस तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास सादगी और ईमानदारी का नैतिक बल था उसी तरह की ईमानदारी और सादगी को देखते हुए दिल्ली की जनता ने अरविंद केजरीवाल को सरकार चलाने के लिए प्रचंड बहुमत दिया। आजादी के बाद के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे बड़ी जीत मिली है केजरीवाल को। यहां यह समझने की जरूरत है कि दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को या फिर योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, शांति भूषण के चेहरे पर वोट नहीं दिया। उसने भरोसा दिखाया अरविंद केजरीवाल पर और उनके दिखाए सपनों पर। अब पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता की बात करके दरअसल कुछ लोग पार्टी में अपनी अहमियत साबित करने में जुटे हैं। इसको अहं की नहीं, अहमियत की लड़ाई कहा जा सकता है।
योगेंद्र यादव तो मंथन के बाद निकले विष के बाद भी अमृत की आशा कर रहे हैं। प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की जोड़ी के बयानों से अरविंद केजरीवाल की छवि पर कोई फर्क पड़ेगा इसमें संदेह है। दिल्ली की जनता को इससे कतई मतलब नहीं है कि पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक कौन है या कौन होगा। उसके लिए केजरीवाल की अहमियत है और उसकी नजर केजरीवाल के वादों और उनके कामों पर रहेगी। जिस तरह केजरीवाल ने बिजली और पानी पर आनन-फानन में अपना वादा पूरा किया, उसको चलाए रखने की चुनौती है। जनता की अपेक्षा है कि दिल्ली भ्रष्टाचार-मुक्त हो और यहां महिलाएं बेखौफ होकर बाहर निकल सकें। चुनावों में केजरीवाल ने पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगाने और बसों में मार्शल तैनात करने का वादा किया था, उस वादे को पूरा करने का वक्त है। जून में जब सरकार अपना पूर्ण बजट पेश करेगी तो चुनाव के दौरान किए गए वादों पर उनके इरादों का पता चलेगा।
करीब तीन साल पुरानी पार्टी पर यह आरोप लग रहा है कि वहां आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और विरोध के स्वर को दबा दिया जाता है। दरअसल, आंतरिक लोकतंत्र बहुत ही आत्मगत (सब्जेक्टिव) है। क्या अराजकता को आंतरिक लोकतंत्र माना जा सकता है? मतदान से फैसला करने से बेहतर आंतरिक लोकतंत्र का उदाहरण और क्या हो सकता है। शनिवार को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से जब प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और अजीत झा को निकालने का फैसला लिया गया तब भी मतदान की बात सामने आई। यह अलहदा है कि योगेंद्र यादव ने बाहर निकल कर लोकतंत्र की हत्या का जुमला उछाला। पार्टी के दोनों खेमों से जिस तरह की बात सामने आई वह अच्छा संदेश नहीं दे रही है, लेकिन जिस तरह अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेताओं के तरह-तरह के स्टिंग लाकर भ्रम फैलाने की कोशिश हुई वह भी अच्छा संकेत नहीं है। यह राजनीति का निम्नतम स्तर है।
आम आदमी पार्टी से चारों को निकालने के बाद अब केजरीवाल सरकार के सामने दिल्ली को बेहतर बनाने की जबर्दस्त चुनौती है। उसके सामने शिक्षा को दुरुस्त करने से लेकर राशन की दुकानों और वृद्धा और विधवा पेंशन में घपले को रोकने का भी काम है। दिल्ली में इस तरह के घपलों का जबर्दस्त रैकेट सालों से चल रहा है, लेकिन उस पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। दिल्ली के स्कूलों में जिस तरह दाखिले के वक्त मारामारी होती है उसके मद््देनजर सरकारी स्कूलों की संख्या और वहां पढ़ाई की गुणवत्ता बढ़ाना केजरीवाल सरकार के सामने बड़ी चुनौती है, जिस पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है।
दरअसल, अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता की अपेक्षाएं इतनी ज्यादा बढ़ा दी हैं कि वे किसी भी सरकार के लिए परेशानी का सबब हो सकती हैं। उसको पूरा करने के लिए, गरीबों और मेहनतकशों में जिस तरह की नई आशा का संचार हुआ है उसको पूरा करने के लिए अगले कम से कम दो साल सारे संसाधन गरीबों के हितों में लगाने होंगे। केजरीवाल ने राजनीति की जिस काली कोठरी में कदम रखा है उससे बेदाग बच कर निकल जाना भी बड़ी चुनौती है। राजनीति में विचारधारा के संघर्ष का स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन अंत सिर्फ एक वाकये से करना चाहूंगा जो खुद बहुत कुछ कह जाता है।
शनिवार को टैक्सी से घर लौट रहा था। ड्राइवर से पूछा कि दिल्ली में सरकार कैसी चल रही है और प्रशांत और योगेंद्र के मसले पर मचे घमासान का क्या असर होगा, तो उसने कहा कि सर ये बड़ी-बड़ी बातें आप लोग जानो, हमें तो सिर्फ यह चाहिए कि पुलिस वाला उगाही न करे और अपनी कमाई से जब हम दाल-रोटी-सब्जी खरीदने जाएं तो खरीद सकें। यही अपेक्षा केजरीवाल की चुनौती है।
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