प्रेमपाल शर्मा

संसद के मौजूदा सत्र में एक प्रश्न के जवाब में बताया गया कि साढ़े छह हजार शिक्षकों के पद भरे जाने हैं और केंद्र सरकार ने उसकी प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसका फायदा आरक्षित वर्ग समेत सभी को मिलेगा, लेकिन पारदर्शिता और विश्वविद्यालयों को बुनियादी रूप से बेहतर बनाने का रास्ता यही होगा कि भर्ती प्रक्रिया लिखित परीक्षा से हो और संभव हो तो साक्षात्कार पूरी तरह से समाप्त किया जाए।

दिल्ली विश्वविद्यालय ने अगले वर्ष से सभी पाठ्यक्रमों में प्रवेश परीक्षा के आधार पर दाखिले का निर्णय किया है। यह स्वागतयोग्य कदम है, बशर्ते इसमें कोई धांधली की गुंजाइश न रहे। अच्छी बात यह भी है कि यह सत्र शुरू होते ही विश्वविद्यालय ने अगले वर्ष के दाखिले की घोषणा कर दी है, जिससे यह शिकायत भी न रहे कि विद्यार्थियों को पर्याप्त समय नहीं दिया गया। इससे मौजूदा विद्यार्थियों की शिक्षा, मूल्यांकन में भी बुनियादी रूप से बदलाव की संभावना है।

मगर क्या विश्वविद्यालय सिर्फ प्रवेश और परीक्षा के लिए होते हैं? क्या शिक्षा या उच्च शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ इन दोनों के बीच तक सीमित है? दिल्ली विश्वविद्यालय में केरल, तेलंगाना, तमिलनाडु से लेकर पूरे देश के छात्र दाखिले के लिए लालायित रहते हैं, लेकिन कुछ दिनों के बाद ही उन्हें एहसास होने लगता है कि यहां नाम बड़े और दर्शन छोटे हैं। बावजूद इसके, दिल्ली में आने वालों की संख्या इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि उन्हें यहां सिविल सेवा से लेकर एमबीए तक के लिए कोचिंग का सर्वश्रेष्ठ बाजार उपलब्ध है।

पर सबसे बड़ा प्रश्न है कि देश की सर्वश्रेष्ठ युवा पीढ़ी और सुविधाओं के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दुनिया के विश्वविद्यालयों के बीच अपनी पहचान क्यों नहीं बना पा रहे? क्यों एशिया के विश्वविद्यालयों में जहां ताइवान, चीन, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया दुनिया भर के छात्रों को आकर्षित करते हैं, भारतीय विश्वविद्यालयों की तरफ अफ्रीका के चंद देशों को छोड़ कर कोई नहीं आता।

इसके उलट इस साल के आंकड़े बताते हैं कि लगभग छह लाख भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने गए, खासकर अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोप। अगस्त 2021 के आंकड़ों के मुताबिक आजादी के बाद सबसे अधिक विदेशी मुद्रा इनकी फीस के रूप में बाहर गई है। पूर्णबंदी की वजह से 2020 में विदेशी मुद्रा की बचत से भारत में विदेशी मुद्रा पांच सौ अरब को पार कर गई थी। पूंजी केवल शिक्षा के लिए विदेश जा रही है, क्या यह आत्मनिर्भर भारत की पहचान है?

सत्तर के दशक से ही प्रतिभा पलायन पर बहस हो रही है, लेकिन ऐसे प्रभावी कदम नहीं उठाए जा सके कि हमारी प्रतिभा देश में ही रहे। चंद भारतीयों के बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया बन जाने से हमें संतोष के बजाए अपराधबोध होना चाहिए। उनको वहां तक पहुंचने में विदेशी विश्वविद्यालयों का ज्यादा योगदान रहा है।

ऐसा भी नहीं कि इन विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियां गोपनीय रही हों। इंटरनेट और मीडिया के जमाने में हर तरह की सामग्री और सूचना उपलब्ध है, लेकिन अफसोस कि भारतीय विश्वविद्यालयों ने मानो न बदलने की कसम खा रखी है। देश की दूसरी संस्थाओं में परिवर्तन की आहट हो रही है। वह चाहे जमीन के रिकार्ड हों, पासपोर्ट प्रक्रिया, हवाई यात्रा हो या किसानों के खातों में लेन-देन। अगर कुछ नहीं बदला, तो विश्वविद्यालयों की तस्वीर। स्कूली शिक्षा के लिए तो समय-समय पर कई समितियां और आयोग बैठाए गए, उनमें बदलाव की कोशिश भी हो रही है, लेकिन विश्वविद्यालय तो मानो केवल दाखिले, चुनाव और परीक्षा पर ही केंद्रित हैं।

आश्चर्य की बात कि सबने एक स्वर से प्रवेश परीक्षा के आधार पर अगले वर्ष दाखिले की बात की, लेकिन शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में बदलाव के लिए एक भी आवाज नहीं उठी। विश्वविद्यालयों की पहचान उनके योग्य शिक्षक, उनके शोध कार्यों से होती है। मगर हमारे यहां दकियानूसी, वंशवाद, भ्रष्टाचार विश्वविद्यालयों की भर्ती में मौजूद है, जहां सिर्फ और सिर्फ साक्षात्कार से पूरे जीवन भर के लिए शिक्षक नियुक्त हो जाता है। कई पीढ़ियां लगातार विश्वविद्यालयों में पढ़ा रही हैं। इतना वंशवाद राजनीति में भी नहीं है।

आजादी के तुरंत बाद ही विश्वविद्यालयों के पतन की इबारत लिखी जानी शुरू हो गई थी। ब्रिटिश सांचे में पले-बढ़े जो शिक्षक-प्रोफेसर अपनी प्रतिभा से आए थे, आजादी के बाद वंशवादी प्रभाव में बहते हुए उन्होंने भी अपने-अपने विभागों में अपने बेटा-बेटी, नातेदार, जाति-धर्म को तरजीह देनी शुरू कर दी। यह लोकतंत्र की आत्मा पर तो प्रहार था ही, उस डाली को भी काटना था जिस पर वे बैठे हुए थे। बीच-बीच में संघ लोक सेवा आयोग जैसा बोर्ड बनाने की बातें उठती रही हैं, लेकिन मौजूदा राजनीति में इस विचार को किसी ने तरजीह नहीं दी, उल्टा उसे और विरूपित किया है।

शिक्षा के जिन प्रांगण में जाति-धर्म को खत्म करने की ताकत थी, उनमें जाति आधारित विमर्श ने कोढ़ में खाज का काम किया है। जेएनयू में हाल में शोध के लिए जो इंटरव्यू हुआ, उसमें नंबर कम देने की बात उठाई गई है। ऐसा ही इलाहाबाद के झंूसी संस्थान में भर्ती पर प्रश्न चिह्न लगाए गए। सवाल उठाने वाले ज्यादातर प्रोफेसर हैं और वे स्वयं भी ऐसी ही सिफारिशों के रास्ते से आए हैं।

यह सच है कि साक्षात्कार की प्रक्रिया संदेह के घेरे में सदा से रही है, लेकिन यह गिरोह राजनेताओं की तरह जातिवादी राजनीति में इतना डूबा रहता है कि कभी साक्षात्कार के नंबरों को पूरी तरह से समाप्त करने की बात नहीं करते। विश्वविद्यालयों के शिक्षक तो केवल साक्षात्कार पर भर्ती होते हैं। वहां तो शत-प्रतिशत बेईमानी की गुंजाइश रहती है। जब केंद्र सरकार की प्रथम श्रेणी नौकरियों को छोड़ कर हर वर्ग में भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर होती है और साक्षात्कार कर्मचारी चयन आयोग, रेलवे भर्ती बोर्ड में पूरी तरह से समाप्त कर दिए गए हैं तो ईमानदारी का रास्ता यही बचता है यहां भी साक्षात्कार समाप्त हो और विश्वविद्यालयों की भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर हो।

देश के ज्यादातर राज्यों ने अपने विश्वविद्यालयों-कालेजों की शिक्षक भर्ती लिखित परीक्षा के आधार पर शुरू कर दी है। साक्षात्कार के सिर्फ पंद्रह से बीस प्रतिशत अंक। शिक्षा मंत्रालय को चाहिए कि मौजूदा केंद्रीय विश्वविद्यालय भर्ती के लिए अलग बोर्ड बनाए। संसद के मौजूदा सत्र में एक प्रश्न के जवाब में बताया गया कि साढ़े छह हजार शिक्षकों के पद भरे जाने हैं और केंद्र सरकार ने उसकी प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसका फायदा आरक्षित वर्ग समेत सभी को मिलेगा, लेकिन पारदर्शिता और विश्वविद्यालयों को बुनियादी रूप से बेहतर करने का रास्ता यही होगा कि भर्ती प्रक्रिया लिखित परीक्षा से हो और संभव हो तो साक्षात्कार पूरी तरह से समाप्त किया जाएं।

विदेशी विश्वविद्यालयों की तर्ज पर शोध और परीक्षा पद्धति को भी तुरंत बदलने की जरूरत है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस बार शिक्षकों की पदोन्नति में भी रिकार्ड कायम किया है। दिल्ली के अस्सी कालेजों के हर विभाग में प्रोफसर के वेतनमन दे दिए गए हैं। हजारों शिक्षकों को इसका फायदा हुआ है। अब उनके वेतन और सुविधाएं भी सिविल सेवा परीक्षा के वेतनमान की तर्ज पर हैं।

इसलिए उचित होगा कि उनकी भर्ती और पदोन्नति पर भी वैसे ही मानदंड लागू हो। पिछले वर्ष तदर्थ शिक्षकों को नियमित करने की मांग को लेकर भी छह महीने तक कक्षाएं नहीं चली थीं। यह अनुचित मांग है और कर्नाटक हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसे शिक्षकों को नियमित करने की मांग इसलिए नहीं मानी कि उनकी भर्ती विधिवत चयन बोर्ड द्वारा नहीं हुई थी और यह नई मेधावी पीढ़ी को आने से रोकेगा।

नई शिक्षा नीति भविष्य के विद्यार्थियों को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से निपटने की बात तो करती है, लेकिन उसका कोई नक्शा अभी तक सामने नहीं आया। जब तक दूसरे सुधार लागू हों, शिक्षकों की भर्ती शोध और पाठ्यक्रम में बदलाव की शुरुआत तो तुरंत हो ही सकती है।