आखिरकार राष्ट्रपति शासन लगाकर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने उत्तराखंड की राजनीतिक बाजी जीत ली है। यदि केंद्र सरकार सूबे में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाती और हरीश रावत सरकार को विधानसभा में 28 मार्च सोमवार को बहुमत साबित करने का मौका दे देती, तो भाजपा के हाथ से सूबे की राजनीती की बागडोर खिसक जाती। क्योंकि हरीश रावत बागी विधायकों की सदस्यता खत्म होने के बाद बहुमत विधानसभा में साबित कर लेते। रावत बहुमत साबित करने के तुरंत बाद विधानसभा भंग करने की राज्यपाल को सिफारिश करके विधानसभा चुनाव में कूद पड़ते। तब तक काम चलाऊ मुख्यमंत्री के बूते राज्य की सत्ता की बागडोर अपने हाथों में रखते जिसका पूरा फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिलता।
भाजपा और बागी कांग्रेसियों को इसी बात का डर सता रहा था कि रावत सरकार को यदि विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका मिल गया तो उनकी कांग्रेस विधानमंडल दल में कराई बगावत धरी की धरी रह जाएगी। इसीलिए भाजपा ने अपने विधायकों के साथ कांग्रेस के बागी विधायकों को भी दिल्ली ले जाना मुनासिब समझा ताकि रावत का खेल बिगाड़ा जा सके। रावत की छवि तार तार करने के लिए एक सुनियोजित योजना के तहत बागी विधायकों को तोड़ने का स्टिंग ऑपरेशन किया गया था। इसी स्टिंग आॅपरेशन ने सूबे की राजनीति में नया मोड़ लिया। और रावत को मात देने में भाजपा और बागी कांग्रेसी कामयाब रहे।
वैसे तो रावत सरकार को गिराने की योजना केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद ही बन रही थी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सतपाल महाराज रावत सरकार को गिराने के लिए रात दिन एक कर रहे थे। परंतु वे अपने समर्थित कांग्रेसी विधायकों को रावत सरकार के खिलाफ बगावत करने के लिए राजी नहीं कर पाए। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की कांग्रेस हाईकमान द्वारा लगातार की जा रही उपेक्षा के कारण बहुगुणा समर्थक कांग्रेसी विधायक सख्त नाराज चल रहे थे।
बहुगुणा ने राहुल गांधी से कई बार मिलने का समय मांगा, परंतु राहुल गांधी बहुगुणा से बात तक करने को तैयार नहीं थे। सोनिया गांधी ने तो विजय बहुगुणा को मिलने का समय दिया। जनवरी के आखिरी महीने में सोनिया गांधी की पहल पर अंबिका सोनी के संयोजन में एक समन्वय समिति बनाई गई। जिसमें अंबिका सोनी, संजय कपूर, हरीश रावत, विजय बहुगुणा, इंदिरा ह्रदयेश, सरिता आर्य शामिल किए गए। इस समन्वय समिति की बैठक दिल्ली में फरवरी के पहले सप्ताह में हुई जिसमें बहुगुणा समर्थक सुबोध उनियाल को फरवरी के दूसरे सप्ताह में और बजट सत्र से पहले मंत्री बनाने की बात तय हुई। परंतु हरीश रावत ने उनियाल को मंत्री न बनाकर बहुगुणा को गच्चा दे दिया। इससे बहुगुणा समर्थक विधायकों की नाराजगी इतनी ज्यादा बढ़ी कि उन्होंने कांग्रेस को तोड़कर भाजपा से हाथ मिलाकर रावत सरकार को गिराने की ठान ली।
वहीं संघ परिवार और भाजपा हाईकमान ने नाराज कांग्रेसी विधायकों की भावनाओं को समझकर हरीश रावत रावत सरकार को गिराने की योजना बनाई। यह योजना इतनी गुप्त थी कि इसकी भनक हरीश रावत को नहीं लगी। राजनीति के चतुर खिलाड़ी हरीश रावत गच्चा खा गए और उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस हाईकमान भी हरीश रावत से खासा नाराज चल रहा था। रावत दिल्ली में जाकर कभी केंद्रीय मंत्री गडकरी की तो कभी उमा भारती की तारीफों के पुल बांधकर कांग्रेस हाईकमान को चिढ़ाने का काम कर आते थे। जानकारों के मुताबिक रावत बीते एक साल से पार्टी हाईकमान से कन्नी सी काटे हुए थे। पार्टी हाईकमान को आर्थिक मदद भी पहुंचाने से आनाकानी कर रहे थे जिससे पार्टी नेता रावत से चिढेÞ हुए थे।
17 और 18 मार्च को जब रावत सरकार को गिराने के लिए भाजपा और आरएसएस का कुनबा दिल्ली से देहरादून में डेरा डाले हुए था, जिसकी जानकारी होने के बावजूद रावत सरकार को बचाने के लिए दिल्ली हाईकमान से कांगे्रस का कोई भी नेता देहरादून नहीं आया। रावत को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया। रावत अपनों की मार से ही सत्ता के बाहर हो गए। रही सही कसर रावत के स्टिंग आॅपरेशन ने पूरी कर दी। रावत के मुख्यमंत्री पद से हटने पर जितनी खुशी भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों को नहीं है, उससे ज्यादा खुशी दिल्ली में बैठे कांग्रेस हाईकमान के कई बड़े नेताओं को है।
* 17 और 18 मार्च को जब रावत सरकार को गिराने के लिए भाजपा और आरएसएस का कुनबा दिल्ली से देहरादून में डेरा डाले हुए था, जिसकी जानकारी होने के बावजूद रावत सरकार को बचाने के लिए दिल्ली हाईकमान से कांगे्रस का कोई भी नेता देहरादून नहीं आया। रावत को उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया गया। रावत अपनों की मार से ही सत्ता के बाहर हो गए।
* वैसे तो रावत सरकार को गिराने की योजना केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद ही बन रही थी। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सतपाल महाराज रावत सरकार को गिराने के लिए रात दिन एक कर रहे थे। परंतु वे अपने समर्थित कांग्रेसी विधायकों को रावत सरकार के खिलाफ बगावत करने के लिए राजी नहीं कर पाए।