कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि ई-गवर्नेंस और कल्याणकारी योजनाओं एवं प्रणालियों तक समावेशी डिजिटल पहुंच आम व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है। मामला तेजाब हमले के एक पीड़ित और दृष्टिबाधित व्यक्ति की ओर से दायर याचिकाओं से जुड़ा था। याचिकाकर्ताओं ने यह मुद्दा उठाया था कि देश के तेजी से विकसित हो रहे डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में तमाम योजनाएं और सेवाएं ऐसी हैं, जिनमें बायोमीट्रिक पहचान से जुड़ी प्रक्रियाएं शामिल हैं।

इन योजनाओं का लाभ उन जैसे लोग इसलिए नहीं उठा पा रहे हैं, क्योंकि चेहरे के घावों, चोटों के निशान या दृष्टिबाधित होने पर तकनीकी बाध्यताओं के कारण वे अपना पंजीकरण कराने में असमर्थ हैं। चूंकि इन लोगों की डिजिटल पहचान अंकित नहीं हो पाती है या फिर डिजिटल पहचान की जांच में ये लोग नाकाम रहते हैं, इसलिए बैंकिंग, ई-गवर्नेंस और सरकार की अनेक कल्याणकारी योजनाओं में उनकी पहुंच सुनिश्चित नहीं हो पाती है।

ऐसे में उनके साथ सतत डिजिटल सेवाओं के मामले में भेदभाव हो रहा है। सर्वोच्च अदालत का फैसला अपने आप में काफी तार्किक और सुविचारित है। मगर अभी भी हमारे देश और समाज में कई चीजें ऐसी हैं, जो डिजिटल क्रांति का लाभ आम जनता तक पहुंचने के रास्ते में मुश्किलें पैदा करती हैं। जैसे कि तकनीक की सही जानकारी न होना और भाषा की बाध्यता।

इस कारण बहुत से लोग डिजिटल सेवाओं का फायदा उठाना तो दूर, उल्टा इसके जरिए फर्जीवाड़े का शिकार हो जाते हैं। हाल में ऐसी कई रपट सामने आई हैं, जिनमें तथ्यों पर आधारित दावा किया गया है कि साइबर धोखाधड़ी का शिकार होने वालों में बुजुर्गों की संख्या काफी ज्यादा है। इसकी वजह यह है कि वे तकनीक के कम जानकार हैं, लेकिन बैंकिंग आदि तमाम सहूलियतें पाने के लिए उन्हें विवशता में डिजिटल तकनीकों का उपयोग करना पड़ता है।

यह मामला सिर्फ तकनीकी दक्षता का नहीं है, बल्कि इससे एक समावेशी समाज का पहलू भी जुड़ा हुआ है। इस नजरिए से देखें तो दुनिया में साढ़े पांच अरब से ज्यादा इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों को हम तकनीकी रूप से समर्थ मान सकते हैं। यह आंकड़ा वैश्विक आबादी का करीब 68 फीसद है। इनमें से लगभग 5.24 अरब लोग सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल करते हैं, जो दुनिया की 64 फीसद आबादी है।

इस संदर्भ में भारत को देखें तो उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2024 में सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या करीब 87 करोड़ थी और इसमें प्रतिवर्ष करीब आठ फीसद की बढ़ोतरी हो रही है। इस आधार पर वर्ष 2025 के अंत तक देश में नब्बे करोड़ लोग इंटरनेट का सक्रिय इस्तेमाल कर रहे होंगे। लेकिन इससे बाहर की आबादी या यों कहें कि उन लोगों की स्थिति क्या है, जो विभिन्न कारणों से डिजिटल तंत्र से नहीं जुड़ पाए हैं।

अगर हम भारत की आबादी 1.40 अरब मानें तो अभी भी करीब पचास करोड़ लोग ऐसे हैं, जो डिजिटल तौर पर शेष देश से कटे हुए हैं। इनमें भी उन लोगों की स्थिति और भी विकट है, जो किसी शारीरिक अक्षमता के कारण डिजिटल साधनों के इस्तेमाल में पीछे छूट जाते हैं। डिजिटल तंत्र के इस असाधारण पहलू की तरफ तब नजर गई, जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि ई-गवर्नेंस और कल्याणकारी योजनाओं एवं प्रणालियों तक समावेशी और सार्थक डिजिटल पहुंच आम व्यक्ति के जीवन तथा स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक हिस्सा है।

शीर्ष अदालत ने इन याचिकाओं की विस्तार से जांच की और यह पाया कि याचिकाकर्ताओं में से एक तेजाब हमले का पीड़ित व्यक्ति अपनी आंखें झपकने में अक्षम है, जबकि दूसरा व्यक्ति पूरी तरह से दृष्टिबाधित है। इस वजह से इन दोनों का बैंक खाता खोलने के लिए जरूरी केवाईसी (नो योर कस्टमर) प्रक्रिया संपन्न नहीं कराई जा सकती है।

दृष्टिबाधित याचिकाकर्ता ने तर्क दिए थे कि केवाईसी प्रक्रिया के दौरान सेल्फी लिए जाने, लिखित हस्ताक्षर करने, शीघ्रता से ओटीपी पढ़ने और उसे सही स्थान पर भरने जैसी अड़चनें उनके जैसे लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं। वहीं, तेजाब पीड़ित व्यक्ति ने दावा किया था कि केवाईसी की प्रक्रिया में कैमरे में देखकर पलकें झपकाने का नियम उन जैसे लोगों के लिए भेदभावपूर्ण है। याचिकाकर्ताओं ने इन तकनीकी बाध्यताओं का हवाला देते हुए केवाईसी के नियमों में बदलाव की मांग की थी, जिसे शीर्ष अदालत ने सभी को गरिमा के साथ जीने और आजीविका कमाने के अधिकार की रोशनी में देखा।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक आफ इंडिया और सभी संबंधित पक्षों को केवाईसी की प्रक्रिया में बदलाव का निर्देश दिया है। साथ ही कहा कि यह दायित्व सरकार का है कि वह समाज में हाशिये पर पड़े, वंचित, कमजोर और दिव्यांग वर्गों को एक समावेशी डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करे।

इन निर्देशों के तहत अदालत का उद्देश्य देश में नागरिकों की पहचान सुनिश्चित करने वाली प्रक्रिया- आधार, आनलाइन सेवा वितरण मंच और नेट बैंकिंग के माध्यम से डिजिटल प्रगति की लहर के बीच एक महत्त्वपूर्ण पहलू को रेखांकित करना है, जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। यह पहलू डिजिटलीकरण की प्रक्रिया से संबंधित तकनीकों को अपनाने से जुड़ा है, जिनमें अक्सर इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि क्या ये वास्तव में सभी नागरिकों के लिए समावेशी और सुलभ हैं।

अगर ध्यान से देखें तो हम पाएंगे कि बैंकिंग ही नहीं, बल्कि राशन, चिकित्सा और शिक्षा समेत तमाम तरह की सुविधाएं और सेवाएं किसी न किसी रूप में डिजिटल पहचान के स्रोतों से जुड़ गई हैं। लेकिन कोई व्यक्ति यदि किसी शारीरिक अक्षमता, चोट अथवा विकृति के कारण इससे संबंधित प्रक्रिया संपन्न नहीं कर पाता है, तो वह लगभग सभी सेवाओं और सुविधाओं से वंचित हो जाता है।

इस मामले में शीर्ष अदालत का यह कहना भी प्रासंगिक है कि हर स्तर पर डिजिटल खाई को भरना अब केवल नीतिगत मसला नहीं है, बल्कि यह एक संवैधानिक जरूरत बन गया है, ताकि प्रत्येक नागरिक को सम्मानपूर्ण जीवन, स्वायत्तता और सार्वजनिक जीवन में समान भागीदारी करने का अवसर मिल सके। इस निर्णय का एक उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि इसमें नागरिकों की डिजिटल पहचान करने वाली सरकारी और निजी संस्थाओं (जैसे के निजी बैंकों) पर यह जिम्मेदारी डाली गई है कि कोई भी नागरिक किसी शारीरिक अक्षमता, विकृति अथवा दिव्यांगता के कारण डिजिटल रूप से कहीं पिछड़ न जाए।

इस तरह से कहा जा सकता है कि यह फैसला देश में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक अंतर को पाटने का भी काम करेगा। चूंकि इससे सभी नागरिकों को डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में एक समान मौके मिलेंगे। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी काफी गंभीर है। ऐसे लोग जिन्हें मजबूरी में डिजिटल बैंकिंग का सहारा लेना पड़ रहा है, वे साइबर धोखाधड़ी के आसान शिकार बन रहे हैं। ऐसे में बैंकिंग और केवाईसी आदि के लिए कागज आधारित पारंपरिक पुष्टिकरण की व्यवस्था और वीडियो-आधारित केवाईसी की प्रक्रिया आज के समय की जरूरत है। इसी तरह भाषायी समस्या के समाधान के लिए अनुवाद तथा आडियो को केवाईसी का हिस्सा बनाना चाहिए, जबकि दृष्टिहीनों के लिए ब्रेल लिपि आधारित प्रक्रिया विकसित की जानी चाहिए।