कांग्रेस नेता राहुल गांधी अक्सर नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने का आरोप लगाते हैं। राहुल जी के आरोपों की फेहरिस्त में ‘वोट चोरी’ नई एंट्री है। चुनाव आयोग के अलावा ईडी और सीबीआई इत्यादि संस्थाओं के दुरुपयोग का आरोप भी राहुल जी लगा चुके हैं।

राहुल जी के कुल आरोपों का सार यह निकलता है कि उनके नेतृत्व में पार्टी को ज्यादातर चुनावों में मिली हार का कारण प्रतिकूल जनमत नहीं बल्कि संस्थाओं का दुरुपयोग रहा है। यदि यह एकमात्र कारण नहीं हो तो भी राहुल जी शायद इसे अपनी पार्टी की हार का एक बड़ा कारण मानते हैं।

राहुल जी के आरोपों में कितनी हकीकत है, कितना फसाना है, यह पड़ताल का विषय है मगर जो एक चीज बिना किसी जाँच के सबके सामने है, वह राहुल गांधी और तेजस्वी यादव को शायद नहीं दिख रही है।

राहुल गांधी द्वारा बिहार में आयोजित ‘वोटर अधिकार यात्रा’ के दौरान कई विश्लेषकों ने माना कि दशकों बाद कांग्रेस राज्य में चुनावी एजेंडा सेट कर सकती है। कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले विश्लेषक मान रहे थे कि राहुल गांधी ने इस चुनाव का नरेटिव सेट कर दिया है। भाजपा से सहानुभूति रखने वाले कई विश्लेषक भी दबे स्वर में यह मान रहे थे कि राहुल-तेजस्वी की जोड़ी चुनाव से पहले हावी हो रही है। मगर हुआ क्या?

बिहार चुनाव के लिए नामांकन करने की आखिरी तारीख (20 अक्तूबर) तक राहुल गांधी की कांग्रेस और तेजस्वी यादव आपस में सीटों का समुचित बंटवारा नहीं कर सके। इतना ही नहीं, मीडिया में उन सीटों का ब्योरा छप गया जहाँ महागठबंधन के दलों ने एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतारे हैं!

एक महीने पहले तक लग रहा था कि सीट शेयरिंग को लेकर एनडीए गठबंधन में ज्यादा खींचतान हो सकती है क्योंकि चिराग पासवान और नीतीश कुमार में आपस में पटरी नहीं बैठती है जबकि राहुल और तेजस्वी में बढ़िया ट्यूनिंग है। मगर हुआ उलटा।

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एनडीए गठबंधन ने लास्ट-नाइट ड्रामा के बावजूद नामांकन से पहले सीटों का स्पष्ट बंटवारा फाइनल कर लिया। दूसरी तरफ महागठबंधन के सीट विभाजन के दौरान मीडिया में प्रचारित राहुल और तेजस्वी का ब्रो-कोड नदारद दिखा। एक समय ऐसा आ गया कि बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम की कुटुंबा विधान सभा सीट पर भी राजद द्वारा उम्मीदवार उतारे जाने की आशंका हवा में तैरने लगी।

कांग्रेस के लिए राहत की बात है कि राजद की 143 उम्मीदवारों वाली सीट में कुटुंबा विधान सभा से उम्मीदवार नहीं उतारा गया है मगर इस लिस्ट के आने तक महागठबंधन की एकता की छवि को पर्याप्त नुकसान हो चुका है। अगर नामांकन वापसी के बाद भी ऐसी सीटें बचती हैं जिन पर महागठबंधन के दल आपस में लड़ते दिखेंगे तो ‘आपसी फूट’ के नरेटिव से महागठबंधन को और नुकसान होने की आशंका खारिज नहीं की जा सकती है।

यह कोई छिपी बात नहीं है कि वोटरों का एक हिस्सा हर चुनाव में “जीतने वाले उम्मीदवार” की तरफ झुक जाता है। ऐसे मतदाता मानते हैं कि कोई भी दल सत्ता में आए स्थानीय विधायक-सांसद अगर उनके सम्पर्क वाले होंगे तो उनके लिए स्थानीय स्तर पर सुविधाजनक माहौल रहेगा। ऐसे फ्लोटिंग वोटरों या मौसमी मतदाताओं के लिए यह सन्देश महत्वपूर्ण है कि महागठबन्धन के अन्दर ठोस एकता है या नहीं।

मीडिया का एक धड़ा ऐसी सीटों को ‘फ्रेंडली फाइट’ बता रहा है मगर डिजिटल युग में कोई खबर केवल स्थानीय नहीं रहती। भाजपा ने महागठबंधन की एकता की अत्यधिक चिन्ता शुरू कर दी है। जाहिर है कि राजद-कांग्रेस ने बैठे बैठाए राजद को एक मसालेदार मुद्दा पकड़ा दिया है।

इस मामले में राहुल गांधी या तेजस्वी यादव यह आरोप भी नहीं लगा सकते महागठबन्धन में सुगम सीट बंटवारा न हो पाने के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह जिम्मेदार हैं!

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