प्रेम प्रकाश
हर दौर अपने लिए सरोकारों की नई जमीन तैयार करता है। इस लिहाज से इस साल की बात करें तो महामारी के खौफ के बीच समाज और संवेदना से जुड़ा एक ऐसा सच सामने आया, जो यह दिखाता है कि विकास और तकनीक महाप्रभावों के बीच महिलाओं के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं। अलबत्ता तमाम तरह के लैंगिक दुराग्रहों के खिलाफ स्त्री मन और चेतना ने इस साल जितना विस्तार पाया है वह नए दौर में महिला संघर्ष और हौसले की नई दास्तान है।
रोजा लक्जमबर्ग की दास्तान डेढ़ सौ साल पीछे ले जाती है। पर शब्द और संघर्ष की उनकी दुनिया तब-तब हमारी चेतना को उस गरमाहट से भर देती है, जिसके बिना महिलाओं के बारे में बात करना आज भी कोरी भावुकता है, सर्द आहें भरने जैसा है। रोजा साम्यवादी खयाल की थीं तो श्रम के आधार पर उसने महिलाओं की स्थिति को देखा और कहा कि जिस दिन महिलाओं के श्रम का हिसाब होगा, इतिहास की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी।
रोजा के बाद की दुनिया में बदलाव की तमाम आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच लैंगिक समकोण पर समय और समाज को देखने का आग्रह खासा मजबूत हुआ है। इस आग्रह के साथ इस बीतते साल को देखें तो उन कुछ उपलब्धियों और घटनाओं की बात करनी जरूरी है, जिससे यह तय होगा कि लैंगिक तुला का झुकाव मौजूदा दौर में किस ओर है। कोविड-19 के कारण यह साल भी बीते साल की तरह तमाम तरह की चुनौतियों से भरा रहा। महामारी की दूसरी लहर ने न सिर्फ हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था की परतें उधेड़ीं बल्कि पूरा सामाजिक ढांचा चमरमरा गया। बहरहाल, इसी दौरान कुछ उपलब्धियों का सुनहरापन दिखा, तो कुछ कालिख भी हमारे हिस्से आई।
न्याय का आसन
सबसे पहले बात उस न्याय तंत्र की जहां महिलाओं के लिए स्थिति पहले से आज ज्यादा अहम और निर्णायक स्थिति में पहुंची है। इस साल सुप्रीम कोर्ट में 33 जजों में से चार महिला जज की नियुक्तिहुई जिनमें जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस बीवी नगरथना और जस्टिस बेला त्रिवेदी शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में यह पहली बार हुआ है, जिसे न्यायिक व्यवस्था में लैंगिक समानता की ओर बढ़ते हुए कदम की तरह देखा गया। बहरहाल, यह उपलब्धि अपने साथ उन जड़ताओं को भी जाहिर करती हैं, जिस पर ज्यादा गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। हाशिया से मुख्यधारा की दूरी महिलाओं के लिए आज भी हमारे संवैधानक ढांचे के तहत काम कर रही संस्थाओं में काफी है। जाहिर है कि इसे पाटने में जितना वक्त लगेगा, लैंगिक और सामाजिक गैरबराबरी की जमीन पर मजबूती के साथ भारत के खड़े होने की सूरत भी उतनी ही दूर है।
जाति का खेल
तोक्यो ओलंपिक में महिलाओं की उपलब्धियों पर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में काफी गर्वीली बातें कही गर्इं। ऐसा लगा कि भारत रातोंरात दुनिया का एक ऐसा देश बन गया है, जो अपनी बेटियों पर दिल से नाज करता है, उनके जन्म को उत्सव मानता है। पर सामाजिकता के धरातल पर यह सब कहासुनी ऊपरी साबित हुई। तोक्यो में कुल सात ओलंपिक पदक भारत के नाम आए जिनमें एक स्वर्ण, दो रजतऔर चार कांस्य पदक शामिल हैं। महिला हाकी टीम सेमी फाइनल तक पहुंची लेकिन ब्रिटेन से कांस्य पदक का मैच हार गई। इस खेल में टीम प्लेयर वंदना कटारिया ने हैट्रिक लगाई थी। हरिद्वार में वंदना कटारिया के परिवार को कुछ लोगों ने जातिसूचक गालियां यह कहते हुए दीं कि हार की जिम्मेदार वंदना और उन जैसी दलित खिलाड़ी हैं। वंदना को उसके खेल और खेल के मैदान पर उसकी उपलब्धियों से नहीं बल्कि जाति से पहचाना गया। अपने देश और परिवेश के बीच वंदना जब जातीय ताने सह रही थीं, उसे प्रताड़ित किया जा रहा था, तो कोई हैशटैग ट्रेंड नहीं किया, कोई सामाजिक-सांस्कृतिक समूह खुलकर सामने नहीं आया।
वंदना के साथ जो हुआ वह यह दिखाता है कि देश में सामाजिक जड़बंदी कितनी मजबूत है और इसके खिलाफ संघर्ष की चुनौती कितनी बड़ी है। बहरहाल, संतोष की बात यह है कि संघर्ष के इस मोर्चे पर अब महिलाएं पहले से ज्यादा सक्रिय और तार्किक दरकारों पर ज्यादा खरी दिख रही हैं। इस लिहाज से जिस संघर्ष का जिक्र सबसे जरूरी है, वह है किसान आंदोलन। इस आंदोलन को छोटे और औसत शिनाख्तों में बांधने की खूब कोशिश हुई। सवाल महिला किसानी का भी आया। पर इस आंदोलन ने अपनी रचना और रणनीति में महिलाओं को जिस तरह स्थान दिया, वह काबिले तारीफ है। वार्ता की मेज से संघर्षस्थल तक खेतिहर महिलाओं की मौजूदगी ने यह दिखाया कि देश में महिला संघर्ष का रकबा कितना विस्तृत और उर्वर है।
विरोध की शिक्षा
देश में सामाजिक न्याय की सैद्धांतिकी तय करने वाले डा आंबेडकर ने इस दरकार पर हमेशा जोर दिया कि हाशिए पर धकेला गया समाज तब तक अपने लिए बराबरी का हक नहीं पा सकता जब तक तालीमी तौर पर पर वो अपने को सशक्त न करे। लिहाजा, महिलाओं की स्थिति पर बात करते हुए देश के शैक्षणिक परिसरों की भी बात करनी होगी जहां एक तरफ महलाओं के लिए ढेर सारे अवसर हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके आगे बढ़ने की राह खासी दुश्वार भी है। आल इंडिया सर्वे आन हायर एजुकेशन के अनुसार लड़कियों का कुल दाखिला अनुपात 27.3 फीसद है जो पुरुषों के 26.9 फीसद के आंकड़े से जाहिर तौर पर बेहतर है। यह अच्छी खबर तो है ही, भविष्य के लिए अच्छा संकेत भी है। पर यहीं यह बात भी गौरतलब है कि शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं का फीसद तो बढ़ रहा है पर उनके लिए वहां हालात खासे मुश्किल हैं।
इस बारे में ‘द स्टडी ड्रमबीट आफ इंस्टीट्यूशनल कास्टिज्म’ शीर्षक से हुए हालिया अध्ययन में संस्थानों में लैंगिक भेदभाव की स्थिाति पर रोशनी डाली गई है। ऐसे ही एक मामले में महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टायम (केरल) की दलित पीएचडी स्कालर दीपा मोहनन को ग्यारह दिन की भूख हड़ताल करनी पड़ी। इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फार नैनोसाइंस एंड नैनोटेक्नोलाजी डिपार्टमेंट के डायरेक्टर डाक्टर नंदकुमार कालरिक्कल ने खुलेआम दीपा के साथ जातिगत भेदभाव एक दशक तक जारी रखा और जब दीपा के लिए यह सब असह्य हुआ तो उसने मुखरता के साथ इसके विरोध का फैसला किया। दीपा के भूख हड़ताल को जब देश की मीडिया ने दिखाया तो यह सवाल नए सिरे से चिह्नित हुआ कि हमारी व्यवस्थागत जड़बंदी में महिलाओं के लिए हर कदम पर कितनी मुश्किलें हैं, उसे यातना के कितने पड़ावों से गुजरना होता है।
संघर्ष का पैनापन
इन सारी स्थितियों के बीच एक बार फिर रोजा लक्जमबर्ग को याद करें जिसने जिंदगी में प्रेम और बराबरी दोनों को समान महत्व दिया। संवेदना और समानता के इसी नजरिए ने उनके संघर्ष को पैना किया। यह पैनापन तब भी लोगों को अखरा था और रोजा की हत्या कर दी गई थी। यह पैनापन आज भी चारों तरफ एतराज के जंगल की तरह फैला है। अच्छी बात यह है कि इस जंगल के बीच रास्ता निकालने का हौसला महिलाओं के पास आज पहले से ज्यादा है।