योगेश कुमार गोयल
भारत में प्रतिवर्ष पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य से जुलाई माह के पहले सप्ताह में ‘वन महोत्सव’ मनाया जाता है। वन महोत्सव का अर्थ है वृक्षों का महाउत्सव यानी पेड़ों का त्योहार, जो प्राकृतिक परिवेश तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता अभिव्यक्त करने वाला एक आंदोलन है। दरअसल, प्रकृति के असंतुलन का सबसे बड़ा कारण वनों तथा वन्य जीवों की घटती संख्या है, इसीलिए इनके संरक्षण हेतु दिल्ली में सघन वृक्षारोपण के लिए आंदोलन की अनौपचारिक शुरुआत जुलाई 1947 में ही हो गई थी, लेकिन देशभर में वृक्षारोपण को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से ‘वन महोत्सव’ की शुरुआत 1950 में भारत के तत्कालीन कृषिमंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा की गई थी। दरअसल, वन न केवल जीव-जंतुओं की हजारों-लाखों प्रजातियों के प्राकृतिक आवास हैं, बल्कि प्रकृति और मानव जीवन में संतुलन बनाए रखने में भी इनकी भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
पूरी दुनिया में धरती पर केवल तीस फीसद हिस्से में वन शेष बचे हैं
यही कारण है कि पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा वन क्षेत्रों के विस्तार के लिए गंभीर प्रयासों की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। मानव जीवन में वनों की महत्ता और पर्यावरण संरक्षण में वनों की भूमिका को लेकर आज व्यापक जन-जागरण अभियान की जरूरत है, ताकि आमजन को आभास हो कि मानव जीवन के लिए वन किस प्रकार लाभदायक हैं। विडंबना है कि इस समय पूरी दुनिया में धरती पर केवल तीस फीसद हिस्से में वन शेष बचे हैं और उनमें से भी प्रतिवर्ष इंग्लैंड के आकार के बराबर नष्ट हो रहे हैं।
वनों की कटाई से पर्यावरण पर तो भयानक दुष्प्रभाव पड़ता ही है, वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर इसी प्रकार वनों की कटाई जारी रही, तो अगले सौ वर्षों बाद दुनिया भर में ‘रेन फारेस्ट’ पूरी तरह खत्म हो जाएंगे। दुनिया के कुल बीस देशों में ही चौरानबे फीसद जंगल हैं, जिनमें रूस, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्राजील, फ्रांस, चीन, न्यूजीलैंड, अल्जीरिया, लीबिया, डेनमार्क, नाइजर, मारीशस, माली, नार्वे, भारत, ब्रिटेन, ग्रीनलैंड, मिस्र शामिल हैं।
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय द्वारा वन दायरे का जो मानचित्र जारी किया गया, उसके अनुसार विश्व के पांच देश ऐसे हैं, जिनमें दुनिया के सत्तर फीसद जंगल सिमटकर रह गए हैं। भारत का कुल क्षेत्रफल करीब बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर है, और जंगलों के कम होते जाने के मामले में चिंताजनक स्थिति यह है कि 1993 से 2009 के बीच ही विश्वभर में भारत के क्षेत्रफल के बराबर तैंतीस लाख वर्ग किलोमीटर जंगल खत्म हो चुके हैं।
जहां तक भारत की बात है, वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया में दसवें स्थान पर है। दो-तीन वर्ष पूर्व ‘फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया’ की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में वन क्षेत्र 8,02,088 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है, जो भारत के कुल क्षेत्रफल का करीब 24.39 फीसद है, लेकिन हाल ही में भारत वन स्थिति रिपोर्ट (आइएसएफआर) 2021 में बताया गया है कि भारत में देश के कुल भौगेलिक क्षेत्र का अब केवल 21.72 फीसद वन क्षेत्र है।
‘इंडियन स्टेट आफ फरेस्ट रिपोर्ट 2017’ में बताया गया था कि भारत में 2015 से 2017 के बीच वन क्षेत्र में 0.2 फीसद की वृद्धि हुई, मगर पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक यह वृद्धि केवल ‘ओपन फारेस्ट श्रेणी’ का ही हिस्सा है, जो प्राकृतिक वन क्षेत्र में वृद्धि न होकर वाणिज्यिक बागानों के बढ़ने के कारण हुई है। वर्तमान नीति के अनुसार मृदा क्षरण तथा भू-विकृतिकरण रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का न्यूनतम 66 फीसद हिस्सा वनाच्छादित होना चाहिए, लेकिन अगर आंकड़े देखें तो देश के सोलह पर्वतीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में फैले 127 पहाड़ी जिलों में कुल क्षेत्रफल के चालीस फीसद हिस्से ही वनाच्छादित हैं, जिनमें जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र तथा हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी जिलों का सबसे कम, क्रमश: 15.79, 22.34 तथा 27.12 फीसद हिस्सा ही वनाच्छादित है।
हालांकि देशभर में सर्वाधिक जंगल महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में हैं, लेकिन विकास कार्यों में तेजी, कृषि भूमि तथा डूब क्षेत्र में वृद्धि, खनन प्रक्रिया में बढ़ोतरी आदि कारणों से पिछले कुछ वर्षों में इन राज्यों में भी जंगल घटे हैं।
भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2021 के अनुसार देश के पूर्वाेत्तर में वन लगातार घट रहे हैं और इसमें मणिपुर में सर्वाधिक कमी दर्ज की जा रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक पूर्वाेत्तर वन आवरण 2017 के मुकाबले 1785 वर्ग किलोमीटर कम हुआ है। हालांकि कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन आवरण के मामले में पूर्वोत्तर के शीर्ष पांच राज्यों में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर और नगालैंड शामिल हैं, लेकिन पूर्वाेत्तर के वन सघन इन राज्यों में भी वन आवरण कम हो रहा है।
आइएसएफआर 2021 रिपोर्ट के अनुसार 2017 में अरुणाचल प्रदेश में 66,964, असम में 28,105, मणिपुर में 17,346, मेघालय में 17,146, मिजोरम में 18,186, नगालैंड में 12,251, त्रिपुरा में 7,726 और सिक्किम में 3,344 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र था, जो 2021 में क्रमश: 66,431, 28,312, 16,598, 17,046, 17,820, 12,489, 7,722 और 3,341 वर्ग किलोमीटर रह गया। पूर्वोत्तर में केवल असम ऐसा राज्य है, जहां पिछले चार वर्षों में 207 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र बढ़ा है, बाकी राज्यों में अरुणाचल में 533, मणिपुर में 748, मिजोरम में 366, नगालैंड में 238, मेघालय में 100, त्रिपुरा में 4 और सिक्किम में 3 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हुआ है।
आइएसएफआर की 2011 और 2021 की रिपोर्ट की तुलना करें तो पता चलता है कि इन दस वर्षों में अहमदाबाद में तो वन आवरण आधा रह गया है, जबकि दिल्ली, चेन्नई, हैदराबाद और मुबई के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है। दिल्ली में इस अवधि में वन क्षेत्र 2011 के 174.33 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 194.24, हैदराबाद में 33.15 से 81.81, मुंबई में 101.54 से 110.77, चेन्नई में 18.02 से 22.70 वर्ग किलोमीटर हो गया है, जबकि अहमदाबाद में 2011 के 17.96 वर्ग किलोमीटर से घटकर 9.41, बंगलुरू में 94 से 89.02 और कोलकाता में 2.52 से घटकर 1.77 वर्ग किलोमीटर रह गया है।
भारतीय वन सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सघन वनों का क्षेत्रफल घट रहा है। 1999 में सघन वन 11.48 फीसद थे, जो 2015 में घटकर मात्र 2.61 फीसद रह गए। सघन वनों का दायरा सिमटते जाने के चलते ही वन्यजीव शहरों-कस्बों का रुख करने पर विवश होने लगे हैं और इसी के चलते जंगली जानवरों की इंसानों के साथ मुठभेड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं। भारत में स्थिति बदतर इसलिए है, क्योंकि एक तरफ जहां वृक्षों की अवैध कटाई का सिलसिला बड़े पैमाने पर चलता रहा है, वहीं वृक्षारोपण के मामले में उदासीनता और लापरवाही बरती जाती रही है।
किसी भी विकास योजना के नाम पर पेड़ काटे जाते समय विरोध होने पर सरकारी एजेंसियों द्वारा तर्क दिए जाते हैं कि जितने पेड़ काटे जाएंगे, उसके बदले दस गुना वृक्ष लगाए जाएंगे, पर वृक्षारोपण और रोपे जाने वाले पौधों की देखभाल के मामले में सरकारी निष्क्रियता जगजाहिर है। वायु प्रदूषण हो या जल प्रदूषण अथवा भू-क्षरण, इन समस्याओं से केवल ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाकर ही निपटा जा सकता है। स्वच्छ प्राणवायु के अभाव में लोग तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी प्रभावित हो रही है। मौसम चक्र तेजी से बदल रहा है, जलवायु संकट गहरा रहा है। ऐसे में पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने का एक ही उपाय है, वृक्षों की सघनता यानी वन क्षेत्र में बढ़ोतरी।