चुनाव आते हैं, चुनाव जाते हैं, लेकिन कुछ चीजें हैं अपने भारत महान में जो कभी नहीं बदलती हैं। एक पत्रकार की हैसियत से मैंने पहला लोकसभा चुनाव देखा था 1977 में। उस चुनाव में मतदाताओं में आपातकाल की वजह से कांग्रेस के खिलाफ इतना गुस्सा था कि इंदिरा गांधी को रायबरेली से हरा दिया और संजय गांधी को अमेठी से।

इंटरनेट और सेलफोन उस समय थे नहीं, तो जिस दिन परिणाम आने थे हम पत्रकार दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर देर रात तक खड़े रहे अखबार के दफ्तर के बाहर। वहां एक बड़ा-सा बोर्ड था, जिस पर नतीजे दिखाए जा रहे थे। हजारों लोग इकट्ठा हुए थे उस जगह और जब इंदिरा गांधी और उनके बेटे के हारने की खबर दिखाई गई उस बोर्ड पर तो ढोल बजने लगे और लोग नाचने लगे थे।

लोगों ने दिल लगा कर जिताया था जनता पार्टी को, सिर्फ इसलिए नहीं कि उनको नसबंदी और झुग्गी बस्तियों के उजाड़े जाने जैसी नीतियों से गुस्सा था। इतना गुस्सा था कि पुरानी दिल्ली में लोगों ने मतदान केंद्रों में ‘जय नसबंदी, जय बुलडोजर’ जैसे नारों की गूंज के बीच वोट किया था। मगर इस गुस्से में एक उम्मीद भी थी कि नई सरकार जब बनेगी तो आम लोग अपने जीवन में परिवर्तन देख सकेंगे। उम्मीद थी कि जिस गरीबी और गंदगी में वे जी रहे थे, उसे कम करने का काम करेगी नई सरकार।

जब ऐसा नहीं हुआ और जनता पार्टी की सरकार मुश्किल से दो वर्ष चली तो मायूस होकर फिर से भारत के मतदाताओं ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया। जानते थे लोग कि इंदिराजी का ‘गरीबी हटाओ’ वाला नारा खोखला साबित हो चुका था, लेकिन जिताया उनको इसलिए कि कम से कम शासन चलाना जानती थीं। उसके बाद कांग्रेस का लंबा दौर चला और इस दौरान मैंने कई लोकसभा चुनाव होते देखे, जिनमें परिवर्तन की आशा कम नहीं हुई।

जबसे मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, ‘परिवर्तन’ और ‘विकास’ की बातें ज्यादा हुई हैं। आज भी होती रहती हैं मोदी की ‘गारंटियों’ के बीच। लेकिन जब मैं निकलती हूं ग्रामीण भारत में परिवर्तन और विकास ढूंढ़ने, तो पाती हूं कि जमीन पर इतना कुछ हुआ नहीं है जितना मोदी की गारंटी वाले इश्तिहार बताते हैं। इस बात को मैंने जब ‘इंडिया टुडे कान्क्लेव’ में भारत सरकार के एक आला अधिकारी से कही, तो उसने कहा, ‘पहले से तो बेहतर हाल है कि नहीं?’ यथार्थ यह है कि पहले से बेहतर हाल कुछ क्षेत्रों में जरूर दिखता है। सड़कें बन गई हैं, इंटरनेट आ गया है, सबके पास मोबाइल फोन आ गए हैं, लेकिन सच यह भी है कि हमारी नदियां प्रदूषित अब भी हैं। हमारे शहरों की हवा इतनी प्रदूषित है कि दुनिया के पचास सबसे प्रदूषित शहरों में से बयालीस भारत में हैं।

उसी ‘कान्क्लेव’ में ‘इंडिया टुडे’ के संपादक अरुण पुरी ने अपने भाषण में स्वीकार किया कि गरीबी रेखा से ऊपर निकल कर आए हैं बीस करोड़ लोग पिछले दशक में, लेकिन मापदंड बदलने की जरूरत है अब। गरीबी रेखा के नीचे वे गिने जाते हैं, जो दिन में दो अमेरिकी डालर (160 रुपए) पर जीवन गुजारते हैं। इतना तो मुंबई में फुटपाथ पर रहनेवाले लोग भी कमा लेते हैं। इसलिए उनका सुझाव था कि अब गरिमा की रेखा होनी चाहिए, गरीबी की नहीं। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जिनको अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है, जिनके जीवन में आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है, जिनको रोजगार के लिए अपने घर छोड़ कर दूर शहरों में जाना पड़ता है, उनको अब भी गरीब माना जाना चाहिए।

उनके फौरन बाद बोलीं वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण। उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि सरकार की पूरी कोशिश है लोगों को गरिमा के साथ जीने के लिए हर सुविधा दी जाए। इसी प्रयास में दी गई हैं ग्रामीण भारत में उज्ज्वला योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी चीजें। आने वाले लोकसभा चुनाव में माना जाता है कि इन योजनाओं के लाभार्थियों की एक अलग श्रेणी होगी, जिनका वोट भाजपा को ही जाएगा इस उम्मीद से कि तीसरी बार जीतने के बाद मोदी की गारंटियां और भी मजबूत जो जाएंगी।

क्या ऐसा होगा? सच पूछिए तो मेरे शुरुआती दौरों ने मुझे काफी निराश कर दिया है। मैं जब नए, आधुनिक, आलीशान हाइवे से उतर कर गई गांवों में तो ज्यादातर मुझे लोग ऐसे मिले जो मानते हैं कि मोदी जीतेंगे जरूर, लेकिन उनके अपने जीवन में पिछले पांच सालों में इतना थोड़ा परिवर्तन आया है कि न होने के बराबर। मोदी को पसंद करते हैं फिर भी ग्रामीण भारत के लोग, इसलिए कि उनको पसंद है कि अयोध्या में राम मंदिर बन गया। उनको पसंद है कि अनुच्छेद 370 हटा दिया गया और पसंद है कि मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं उनको लगता है कि कुछ तो परिवर्तन लाने के लिए प्रयास हुआ है। लेकिन आज भी स्वच्छ पानी जैसी बुनियादी जरूरतों का अभाव दिखता है।

निजी तौर पर मुझे बहुत तकलीफ होती है जब देखती हूं कि चमकती सड़कों के नीचे बस्तियां उतनी ही बेहाल हैं, जो दशकों पहले मैंने देखी थीं उस 1977 वाले चुनाव में, जब मुख्य मुद्दा था इंदिरा को हराना। वास्तव में गरीबी की रेखा हटा कर गरिमा की रेखा बनाने की आवश्यकता है, ताकि एक नए मापदंड के जरिए हम देख सकें भारतवासियों का हाल। जहां जाती हूं, आजकल दिखते हैं भगवा झंडे, जो राम मंदिर निर्माण के बाद लगाए गए हैं। गहरी श्रद्धा और उम्मीद से लगाए हैं लोगों ने ये ध्वज, लेकिन रामराज्य अभी बहुत दूर है।