बचपन से लेकर किशोरावस्था तक मानव शरीर आठ से दस घंटे नींद की मांग करता है। मगर विडंबना कि मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के तेज विस्तार ने इसी आयुवर्ग की नींद पर सबसे ज्यादा हमला बोला है। जीवन-शैली में हुए बदलावों और चिकित्सा से जुड़े सारे मानक और संकेतक इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि जैसे-जैसे देश और दुनिया में सोशल मीडिया का उपयोग बढ़ रहा है, हमारी नींद की समयावधि और गुणवत्ता घटती जा रही है। समस्या सिर्फ नींद में कमी नहीं, बल्कि सोने के वक्त डिजिटल पर्दे की रोशनी हमारी आंखों और दिमाग के रास्ते हमारे समस्त तंतुओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। यह ‘प्रकाश सर्कैडियन लय’ नींद की उस स्वाभाविक या आंतरिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है, जो चौबीस घंटे की अवधि में शरीर और मस्तिष्क को आराम देकर नए सिरे से तैयार करती है।

देर रात तक मोबाइल चलाने से शरीर की ऊर्जा घट रही है

दुनिया भर में ऐसे कई अध्ययन और सर्वेक्षण हो चुके हैं जो बताते हैं कि बिस्तर पर जाने के बाद भी मोबाइल फोन का देर रात तक इस्तेमाल वैश्विक रूप से बढ़ गया है। इससे शरीर उस ऊर्जा और स्फूर्ति से वंचित होने लगा है, जो पर्याप्त नींद मिलने पर स्वत: हासिल कर लेता है। विकसित देशों में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि वहां करीब पंचानबे फीसद किशोरों के पास स्मार्टफोन है, जिनमें से पैंतालीस फीसद ने स्वीकार किया है कि मोबाइल पर वे लगभग हर वक्त ‘आनलाइन’ रहते हैं। किशोरों और युवाओं की यह प्रवृत्ति वैश्विक है, इसलिए यह आयुवर्ग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के नजरिए से सर्वाधिक जोखिम वाली स्थिति में है।

विकासशील देशों के 15 करोड़ लोग समस्या से जूझ रहे हैं

वर्ष 2012 में अमेरिका की यूनिवर्सिटी आफ वारविक के चिकित्सा संस्थान के अध्येताओं ने नींद पर एक व्यापक शोध किया था। उसमें पता चला कि भारत जैसे विकासशील देशों के पंद्रह करोड़ लोग नींद से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहे हैं। असल में पहले माना जाता था कि नींद की कमी और दिमागी चिंताओं से ज्यादातर विकसित देशों के लोग पीड़ित हैं। मगर कई एशियाई और अफ्रीकी मुल्कों में कराए गए इस नए अध्ययन में पता चला कि इन मुल्कों की 16.6 फीसद आबादी नींद की कमी से होने वाली समस्याओं की चपेट में है। यह आंकड़ा विकसित देशों की नींद संबंधी परेशानियों से पीड़ित 20 फीसद आबादी के काफी करीब है, इसलिए इसमें संदेह नहीं कि नींद के संकट के मामले में भारत जैसे देश यूरोप-अमेरिका के देशों को जल्द ही पीछे छोड़ सकते हैं।

काल सेंटर और बीपीओ सेवाओं में लाखों लोग परेशान

यह तो तय है कि नींद की गुणवत्ता और मात्रा की नींव पर ही हमारी दिनचर्या तय होती है। इसका असर देशों की कुल उत्पादकता पर भी पड़ रहा है। इससे सड़क दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। भारत में, जहां पिछले दो-तीन दशक में काल सेंटरों और बीपीओ सेवाओं ने लाखों-करोड़ों रोजगार पैदा किए हैं, वहां यह तथ्य अक्सर रेखांकित किया जाता है कि इन पेशों ने लाखों युवाओं की स्वाभाविक नींद छीन ली है। नींद में खलल, उसमें कमी या निद्रा चक्र गड़बड़ाने से तनाव, रक्तचाप और हृदयरोग जैसी बीमारियां फैल रही हैं। इसका असर हमारे सामाजिक व्यवहारों पर भी पड़ रहा है।

24 घंटे में एक से अधिक बार नींद लेना जरूरी है

शोधकर्ताओं और चिकित्सकों का मत है कि इंसान का शरीर चौबीस घंटे में एक से अधिक बार नींद लेने के हिसाब से बना है। यानी रात के अलावा दिन में भी, खासकर दोपहर के भोजन के बाद एक हल्की झपकी लेकर व्यक्ति खुद को तरोताजा और स्वस्थ रख सकता है। मगर बढ़ती भागदौड़ और आधुनिक शहरी जीवन- जिसमें देर रात तक दफ्तर में काम करने और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने आदि गतिविधियों ने नींद में व्यवधान उत्पन्न कर दिया है। इससे लोगों में एक खास तरह का अनिद्रा रोग पैदा हो जाता है, जिसमें लोगों की रात में कई बार नींद खुलती और फिर दोबारा सोने में दिक्कत आती है।

पूरी नींद नहीं लेने से कार्य क्षमता पर भी पड़ रहा असर

यों तो पूरी दुनिया को यह समझ में आ गया है कि मनुष्य की दिनचर्या नींद की मात्रा और गुणवत्ता से काफी हद तक प्रभावित होती है। कम नींद ली जाए और वह गहरी न हो, तो शारीरिक और मानसिक, दोनों प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। आस्ट्रेलिया की विक्टोरिया यूनिवर्सिटी आफ वेस्टर्न के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2018 में नींद की कमी के आर्थिक नतीजों का आकलन करके बताया था कि आस्ट्रेलिया में नींद की कमी के कारण करीब 17.88 अरब आस्ट्रेलियाई डालर का वार्षिक नुकसान होता है। यह क्षति आस्ट्रेलिया की जीडीपी का डेढ़ फीसद है। यह नुकसान वाहनों की दुर्घटनाओं, नींद की कमी से पैदा स्वास्थ्य समस्याओं पर हुए खर्च, कार्यक्षमता पर हुए असर आदि के कारण होता है। शोध से संबंधित ‘स्लीप सर्वे’ बताता है कि वैसे तो दुनिया का हर तीसरा व्यक्ति इस समय नींद की खामियों से जूझ रहा है, पर आस्ट्रेलिया में 33 से 44 फीसद, अमेरिका में 30 फीसद और ब्रिटेन में 37 फीसद लोगों की नींद संबंधी समस्याएं हैं।

पिछले सत्तर-अस्सी वर्ष में आए आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों के कारण मनुष्य की नींद का औसत वक्त बीस फीसद तक घट गया है। एक शोध के मुताबिक 1940 के दशक में ज्यादातर लोग रात में करीब आठ घंटे की औसत नींद लेते थे। पर अब यह औसत घटकर सात घंटे रह गया है। यह आकलन अमेरिका में बर्कले स्थित कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मैट वाकर का है। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह भी साबित किया है कि अगर दिन में काम के दौरान कुछ देर की झपकी ले ली जाए, तो उससे मस्तिष्क और शरीर की कोशिकाओं की नींद की कमी से हुए नुकसान की कुछ हद तक भरपाई हो सकती है। इसके बारे में दो साल पहले ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी आफ लीड्स में किए गए एक अध्ययन में यह नतीजा निकाला गया कि काम के दौरान दोपहर में अगर बीस मिनट की झपकी ले ली जाए, तो कर्मचारियों की रचनात्मकता और उत्पादकता पर सकारात्मक असर पड़ता है। यह नींद मधुमेह, दिल के रोगों और अवसाद के खतरे को भी कम करती है।

वैज्ञानिकों का मत है कि दोपहर की नींद असल में व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य की निशानी होती है, पर साथ में इससे यह भी साबित होता है कि शहरियों को रात में पर्याप्त नींद नहीं मिल पा रही है। शोधकर्ता भारतीय मूल के नीरेन रामलखन ने दावा किया था कि दुनिया के कई शहरों में तो लोग रात में औसतन पांच घंटे की नींद ले पा रहे हैं और इसमें भी कहीं-कहीं एक घंटे की कमी पड़ रही है। यह एक खतरनाक चलन है और इसकी भरपाई दोपहर की नींद से हो सकती है। इसलिए जरूरी है कि कर्मचारियों को दोपहर की नींद लेने को प्रोत्साहित किया जाए। ऐसा न करके अगर कर्मचारियों को सप्ताहांत में नींद पूरी करने को मजबूर किया जाता है, तो इसके गंभीर नतीजे निकल सकते हैं।