राकेश सिंहा
सन 1943 की घटना है। मद्रास में रेलवे कर्मचारी लक्ष्मीनारायण मूर्ति को नौकरी से निष्कासित कर दिया गया। एक अतिसामान्य कर्मचारी पर ‘अनुशासनात्मक’ कार्रवाई करने में रेलवे से अधिक गृह विभाग के सर्वोच्च अधिकारी शामिल थे। कारण था, मूर्ति के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक बड़े पदाधिकारी को आगामी गतिविधियों के बारे में भेजे गए पत्र का खुफिया विभाग द्वारा पकड़ा जाना।
यह अकेली घटना नहीं है। दिल्ली में एक रेलवे कर्मचारी का संघ से संबंध का मुद्दा उठा और उसे कारण बताओ नोटिस दिया गया। पहले मामले में गृह विभाग के सचिव और दूसरे मामले में दिल्ली के मुख्य आयुक्त के आदेश से कार्रवाई की गई। दिसंबर 1943 में पंजाब सरकार ने फरमान जारी कर सरकारी कर्मचारियों की संघ में भागीदारी को प्रतिबंधित कर दिया। और पूरे देश में संघ के स्वयंसेवकों को चिह्नित कर कार्रवाई तेज हो गई। गृह विभाग के सचिव रिचर्ड टोट्नहम ने लिखा था- ‘‘संघ एक राजनीतिक संगठन है और खकसार की तुलना में (सरकार के विरुद्ध) इसमें बहुत अधिक क्षमता है।’’
सरकारी महकमे में संघ की उपस्थिति पर खुफिया विभाग ने रोचक टिप्पणी की थी, ‘‘संघ के स्वयंसेवकों को चिह्नित करना कठिन कार्य है, क्योंकि प्रत्येक को छद्म नाम दिया जाता है। उदाहरण के लिए, पंजाब के दिलबाग राय सेठ, जो सरकारी कर्मचारी है और ओम प्रकाश वैद्य जो सेना में है, वे कमश: प्रसन्नचित्त और विष्णु सहाय के नाम से संघ में जाने जाते हैं।’’
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद से ‘सत्ता के हस्तांतरण’ तक संघ के स्वयंसेवकों के पत्रों को बीच में रोकना, सरकारी दफ्तरों, स्थानीय निकायों में कार्यरत ऐसे लोगों पर कठोर कार्रवाई करना साम्राज्यवादी दमन का हिस्सा बन गया था। साम्राज्यवादियों की परेशानी का कारण था। वे संघ को कांग्रेस आंदोलन, आजाद हिंद फौज और स्थानीय स्तरों पर साम्राज्यवाद-विरोधी गतिविधियों- तीनों जगह पाते थे।
उनके लिए कठिनाई का कारण था कि इन सब जगहों पर उनकी सक्रियता में संघ का झंडा, बैनर, नाम नहीं था। अत: संस्था पर कार्रवाई करने के लिए देश भर से संघ स्वयंसेवकों की साम्राज्यवाद विरोधी गतिविधियों के साक्ष्य एकत्रित किए गए। खुफिया विभाग की रपट में आशंका व्यक्त की गई थी कि आजाद हिंद फौज और संघ मिलकर किसी हिंसक क्रांतिकारी योजना को अंजाम दे सकते हैं।
सरकार ने 1940 में स्वयंसेवी संस्थाओं की सूची बनाई थी, जिसमें संघ को सबसे मजबूत स्वयंसेवी संस्था के रूप में दिखाया गया था। इसे कमजोर करने के लिए अगस्त 1940 में सरकार ने स्वयंसेवी संस्थाओं के शारीरिक कार्यक्रमों पर प्रतिबंध लगा दिया। 1938-39 में संघ की गतिविधियों में तेजी आ गई थी। इसके प्रति युवाओं और राष्ट्रीय नेताओं का आकर्षण बढ़ने लगा था।
दिल्ली में तीन दिनों के कार्यक्रम में विनायक दामोदर सावरकर, प्रो राम सिंह और लाला ज्ञानचंद उपस्थित थे, तो महाराष्ट्र के चंदा में संघ कार्यक्रम में मराठी दैनिक ‘केसरी’ के संपादक जेएस करींदकर, नागपुर में पंजाब के राष्ट्रवादी नेता गोकुलचंद नारंग की उपस्थिति थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एन वी गाडगिल ने संघ के कार्यक्रम की अध्यक्षता की। 4 अप्रैल 1939 को ‘केसरी’ ने इसका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया।
पुणे के संघचालक गोविंदराव प्रधान के 25 मार्च, 1939 के भाषण को खुफिया विभाग ने उद्धृत किया। इसमें उन्होंने ललकारते हुए कहा था कि ‘‘जिन देशों की जनसंख्या मात्र 7-8 करोड़ है उन देशों ने दुनिया का नक्शा बदल दिया है, तो क्या 28 करोड़ हिंदू इस देश को स्वतंत्र नहीं कर सकते?’’
भारत छोड़ो आंदोलन में घुसकर हिंसा, तोड़-फोड़ और आक्रामकता बढ़ाने का आरोप संघ पर था। अगस्त 1940 में लगाया गया प्रतिबंध संघ की शाखा को प्रभावित नहीं कर पाया। स्थान-स्थान पर संघ ने खुलकर उल्लंघन किया। केंद्र सरकार के दबाव की स्थानीय अधिकारियों ने यह कह कर उपेक्षा की थी कि कार्रवाई ‘‘संघ को और सहानुभूति देगी और कानून-व्यवस्था पर काबू पाना कठिन होगा।’’
संघ में युवाओं की बढ़ती भागीदारी से कांग्रेस नेतृत्व भी अपने संगठन के संबंध में आत्मालोचन कर रहा था। अभिलेखागार की फाइलों में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस और महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष शंकरराव देव के बीच पत्राचार इसका गवाह है। बोस ने 30 अक्तूबर, 1938 को लिखे गए पत्र में संघ की युवाओं में बढ़ती लोकप्रियता का कारण जानना चाहा। देव ने 6 नवंबर को दो पृष्ठों का उत्तर भेजा था।
जब बोस को 1939 में महात्मा गांधी के समर्थकों द्वारा त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया, तब वे 20 जून, 1940 को संघ संस्थापक डा. हेडगेवार से मिलने नागपुर गए थे। नागपुर से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ ने प्रमुखता से इस समाचार को प्रकाशित किया था।
ब्रिटिश साम्राज्य 1942 के आंदोलन को धीमा और कांग्रेस, मुसलिम लीग तथा साम्राज्यवादी सरकार के बीच बैठकों, समझौतों के दौर को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रोत्साहित करने में लगा था। उसका भय चौहद्दी के बाहर आजाद हिंद फौज से और भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से था। किसी हिंसक विद्रोह को संभालना उसके लिए कठिन था। अंतत: सरकार ने नए प्रतिबंध के आदेश द्वारा संघ को घेरना शुरू किया।
1945 में परेड और कैंप को रोकने के लिए आदेश जारी किया गया। गृह मंत्रालय की फाइलों में रोचक टिप्पणियां हैं। हालांकि इस प्रतिबंध में संघ का नाम नहीं लिया गया था, पर लिखा गया था कि परेड और प्रशिक्षण शिविर संघ की खासियत है, अत: इसका सबसे अधिक प्रभाव संघ पर ही पड़ेगा। एक अधिकारी की टिप्पणी है- यह इसकी जड़ पर प्रहार है। संघ पर लगातार हो रही दमनकारी कार्रवाइयों का मुद्दा राष्ट्रवादी जमुनालाल मेहता ने आरएम मैक्सवेल, जो वाइसराय की कार्यपालिका परिषद का सदस्य था, के सामने उठाया। मैक्सवेल ने कार्रवाई को साम्राज्यवाद के हित में उचित बताया।
इसके पूर्व की पृष्ठभूमि ब्रिटिश राज के सामने थी। संघ ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बड़ी संख्या में स्वयंसेवकों की भागीदारी और सजा ने संघ के समर्थन-आधार को बढ़ाया था। संघ ने हिंदुओं को संगठित करते हुए साम्राज्यवाद-विरोध को अपनी प्राथमिकता बनाकर रखा। इसने इसके और हिंदू महासभा के बीच दूरी बढ़ाने का काम किया।
कांग्रेस आंदोलनों में सक्रियता महासभा को नागवार गुजरी थी। इसने इस भ्रम का भी अंत कर दिया कि संघ हिंदू महासभा के नेतृत्व के इशारे पर चलता है। जब पहली बार 1933 में सरकार ने स्थानीय निकायों के कर्मचारियों को संघ की गतिविधियों में भाग लेने से प्रतिबंधित किया, तब मध्यप्रांत और बरार की विधान परिषद में 7-8 मार्च, 1934 को दो दिनों की चर्चा संघ पर हुई थी। और सरकार को परास्त होने की शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था।
स्वतंत्रता आंदोलन में संघ साम्राज्यवाद-विरोध में अपना स्वयं का मंच, झंडा, नेतृत्व खड़ा करने की जगह कांग्रेस और क्रांतिकारी दोनों ही आंदोलनों को सक्रिय सहयोग देता रहा। इसी कारण ‘परेड एंड कैंप एक्ट’ के तहत इसके कार्यालयों, स्वयंसेवकों के घरों और प्रशिक्षण शिविरों पर पुलिस कार्रवाई तेज कर दी गई थी। संघ की राष्ट्र, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रति अपनी मौलिक विचारधारा रही है, पर वैचारिक मतांतर में इसने साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन को कमजोर होने नहीं दिया।
भारत के इतिहास लेखन पर जिस वैचारिक-राजनीतिक ताकतों का वर्चस्व रहा, वे तथ्य से तर्क गढ़ने की जगह तर्कों से तथ्य ढूंढ़ते रहे। इसने इतिहास को विचारधारा की प्रयोगशाला बना दिया। संघ की भूमिका का आकलन और इतिहास में उल्लेख ही स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पूर्णता प्रदान करेगा।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)