तमिलनाडु में भाजपा के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई है। राज्य भाजपा अध्यक्ष के अन्नामलाई के एक विवादास्पद इंटरव्यू को लेकर सूबे में भाजपा की सहयोगी अन्ना द्रमुक बेहद नाराज है। अन्नामलाई 2020 में सियासत में आए। इससे पहले वे कर्नाटक कैडर के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे। भाजपा उम्मीदवार की हैसियत से उन्होंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा पर द्रमुक उम्मीदवार से हार गए। मार्च में अन्नामलाई ने बयान दिया था कि भाजपा को अन्ना द्रमुक से गठबंधन तोड़कर अगला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ना चाहिए। इससे अन्ना द्रमुक के भीतर खासा असंतोष दिखा था। तब भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अन्ना द्रमुक के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री ईके पलानीस्वामी से मुलाकात के बाद सफाई दे दी कि तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक के साथ भाजपा का गठबंधन बरकरार रहेगा।
इसके बाद अमित शाह सूबे में वेल्लूर आए और एक जनसभा में बयान दिया कि तमिलनाडु की 39 में से कम से कम 25 सीटें भाजपा को जीतनी चाहिए। इस पर भी अन्ना द्रमुक के भीतर बेचैनी दिखी और उसके नेताओं को लगा कि भाजपा कहीं बंटवारे में 25 सीटें तो नहीं चाह रही। हालांकि भाजपा की तरफ से सफाई आ गई कि अमित शाह का आशय राजग की सीटों से था। इसके अगले दिन अन्नामलाई ने इंटरव्यू देकर कह दिया कि तमिलनाडु की सियासत को नेताओं के भ्रष्टाचार से नुकसान पहुंचा है। पार्टी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री तक को अदालत से सजा मिली है। इसी बयान को अन्ना द्रमुक ने जयललिता पर हमला मान लिया।
जयललिता की मौत के बाद अन्ना द्रमुक की पहले जैसी सियासी ताकत ही नहीं बची
तुरंत प्रस्ताव पारित कर पार्टी ने एक तरफ तो इस बयान की निंदा की दूसरी तरफ अन्नामलाई को अनुभवहीन और पार्टी अध्यक्ष के लिए अयोग्य बताते हुए उनके खिलाफ कारर्वाई की मांग कर डाली। पार्टी के नेता डी जयकुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने तक की धमकी दे दी। हकीकत यह है कि जयललिता की मौत के बाद अन्ना द्रमुक की पहले जैसी सियासी ताकत ही नहीं बची है, ऊपर से यह द्रविड़ पार्टी अब भाजपा को अपने लिए घाटे का सौदा मान रही है। पलानीस्वामी और पनीरसेल्वम के धड़ों में भी बंटी है पार्टी। पार्टी ने सफाई भी दी है कि सुप्रीम कोर्ट से जयललिता को कोई सजा नहीं हुई। सजा तो शशिकला को हुई थी। जयललिता का तो फैसला आने से पहले ही निधन हो गया था। भाजपा भी अब सफाई दे रही है कि अन्नामलाई ने इंटरव्यू में जयललिता का नाम लिया ही नहीं था।
मांझी का मर्म
बिहार की सियासत इन दिनों गरम है। एक तरफ नीतीश कुमार ने पटना में गैर राजग दलों की बैठक बुलाई है तो दूसरी तरफ उनकी सहयोगी हिंदुस्तान अवाम पार्टी उनके महागठबंधन से अलग हो गई है। जीतनराम मांझी हैं इस पार्टी के मुखिया। बिहार सरकार में उनके एमएलसी पुत्र संतोष कुमार सुमन पार्टी के इकलौते मंत्री थे। उन्होंने इसी हफ्ते अनुसूचित जाति-जनजाति कल्याण मंत्री के पद से इस्तीफा क्या दिया, भाजपा को नीतीश पर वार करने का अवसर मिल गया। मांझी की पार्टी के विधानसभा में चार विधायक हैं। मांझी को नीतीश कुमार ने ही खुद इस्तीफा देकर बिहार का मुख्यमंत्री बनाया था। उनके बेटे ने इस्तीफा देने के बाद फरमाया कि अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए उन्हें यह कदम उठाना पड़ा। नीतीश कुमार उन पर पार्टी के जद (एकी) में विलय का दबाव बना रहे थे।
कमाल तो यह देखिए कि नीतीश ने आरोप को नकारा भी नहीं। शुक्रवार को साफ कह दिया कि मांझी अंदरखाने भाजपा से मिले हैं। इसीलिए उनके सामने विकल्प रखा कि या तो पार्टी का विलय करो अन्यथा जिनके साथ मिले हो, उनके साथ ही चले जाओ। मांझी का अतीत बड़ा रोचक है। उन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव राजद और कांगे्रस से मिलकर लड़ा था। फिर अगस्त 2020 में अलग हो गए और अगले महीने भाजपा गठबंधन में शामिल हो गए। पिछले साल नीतीश ने भाजपा को छोड़कर राजद से हाथ मिलाया तो मांझी गठबंधन में ही बने रहे।
सहयोगी की असहयोगी तस्वीर
भाजपा के नेता एकनाथ शिंदे पर अहसान जताते रहते हैं कि मुख्यमंत्री तो देवेंद्र फडनवीस को होना चाहिए था, यह तो आलाकमान ने कृपा कर दी शिंदे पर। शिंदे कठपुतली छवि से निकलने की कोशिश में हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक चुनावी सर्वेक्षण पर आधारित विज्ञापन अखबारों में पहले पन्ने पर छपवा दिया। जिसमें खुद के फडनवीस से ज्यादा लोकप्रिय होने का उल्लेख भी था। अपने साथ प्रधानमंत्री की तस्वीर छपवाई, फडनवीस की नहीं। भाजपाई बौखला गए। एक तरफ तो फडनवीस मुख्यमंत्री शिंदे के साथ पहले से तय सार्वजनिक कार्यक्रम में नहीं गए ऊपर से शिंदे पर विज्ञापन के खंडन का दबाव बनाया।
नतीजतन अगले ही दिन राज्य सरकार ने फिर वैसा ही नया विज्ञापन छपवाया, जिसमें शिंदे के साथ फडनवीस की तस्वीर भी थी। दरअसल दोनों के रिश्तों में गांठ शिंदे के सांसद पुत्र के एक बयान से भी पड़ी थी। भाजपाई अपने सहयोगी दल पर लगातार फब्तियां तो कसते ही रहे हैं। कभी शिंदे की पार्टी को ठाणे तक सीमित बताते हैं तो कभी शिंदे के कब्जे वाली लोकसभा सीटों पर अपना दावा जताते हैं। भाजपा के सूबेदार चंद्रशेखर बावनकुले का तो कुछ ज्यादा ही आक्रामक रवैया रहा है अपनी सहयोगी पार्टी के प्रति।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)