ये फित्ना आदमी की खाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के, दुश्मन उस का आसमां क्यूं हो
-मिर्जा गालिब
दो इंसानों के बीच दोस्ती होती है, वहीं दो देशों के बीच जो संबंध बनते हैं उसे कूटनीति कहते हैं। आजादी के बाद सुदूर तत्कालीन सोवियत रूस से जो भारत के संबंध बने थे उसका आधार दुनिया में शक्ति संतुलन बनाए रखना था। कोई भी दो देश वृहत्तर स्तर पर राजनीतिक व आर्थिक कारणों से ही कूटनीतिक संबंध बनाते हैं। इसके लिए अनुदान जैसे कार्यक्रम भी चले। कोई बड़ी शक्ति अगर किसी छोटी शक्ति को आर्थिक अनुदान देती है तो उसके पीछे सार्वभौमिक हित की भावना देती है। इक्कीसवीं सदी के अभी तक के महानायक ट्रंप ऐसी कवायद को गैरजरूरी मान रहे हैं। वे बीसवीं सदी की वैश्विक अर्थव्यवस्था को बदलने की चाहत रखते हुए दुनिया को कई तरह के झटके दे रहे हैं। दूसरे देशों के लिए की गई नेकियों का नगाड़ा बजाते ट्रंप पर बेबाक बोल।
2024 का आखिरी महीना जिन आशंकाओं को लेकर बेचैन था फरवरी के अंत में उसका नगाड़ा बजने लगा। भारतीय कूटनीति को अंदाजा नहीं था कि डोनाल्ड ट्रंप पहले से की गई नेकी को दरिया से निकाल कर उसका नगाड़ा बजाने लगेंगे। इसमें भारत का नाम गूंजेगा। भारत का नाम इस तरह गूंजा कि पक्ष और विपक्ष समझ नहीं पा रहा था, इसका ठीकरा किस पर फोड़ा जाए। डोनाल्ड ट्रंप की राजनीतिक शैली बता रही है कि वे बीसवीं सदी में बनी वैश्विक व्यवस्था को पलट देना चाहते हैं। अपने ‘ट्रंपवाद’ की छन्नी से उन सभी मूल्यों को अलग कर देना चाहते हैं जिनसे बीसवीं सदी की वैचारिक अट्टालिका का निर्माण हुआ था।
ट्रंप की नीतियों के विश्लेषण में मुश्किल यह है कि उनकी कही गई कई बातों की मियाद छोटी होती है। फिलहाल सबको असमंजस में उलझा कर रखना ही उनकी राजनीतिक शैली का ‘ट्रंप कार्ड’ है। डोनाल्ड ट्रंप कह रहे हैं कि हम भारत जैसे देश को पैसा क्यों दें? हमारा यानी अमेरिका का क्या? एक देश की दूसरे देश से रिश्ते को आम रिश्तों की तरह नहीं आंका जा सकता है। इसलिए इसे ‘कूटनीति’ का नाम दिया गया है। एक देश दूसरे देश से बहुत सारे समीकरणों के तहत कूटनीतिक रिश्ते बनाता है। कूटनीतिक रिश्ते के पीछे इतने गहरे कारण होते हैं कि हमें संस्कृति, सिनेमा, विज्ञापन, सड़क, अस्पताल तक में जाकर इसे खोजना होगा।
राज कपूर की निर्देशित फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’। फिल्म के केंद्र बिंदु में सर्कस है। इस सर्कस में रूस की कंपनी आती है। यह भारत-सोवियत दोस्ती का वह दौर था जब हिंदुस्तान में सोवियत संघ की बेहतरीन तस्वीर दिखाई जाती है। सिर पर लाल टोपी रूसी जैसे गाने हर हिंदुस्तानी ऐसे गाता है जैसे ‘सात समंदर’ पार के दो देश बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ और रणनीति के गले मिल रहे थे। कुछ समय पहले ‘ओटीटी’ पर आई ‘जुबली’ इस फिल्मी पटकथा के पीछे अपनी कथा ले जाती है। ‘जुबली’ में भारतीय सिनेमा घरानों से विदेशी कंपनी के लोग संपर्क करते हैं। वे भारतीय सिनेमाकारों को कहते हैं कि आप हमारे हिसाब से सिनेमा बनाइए हम आपको फंड से मालामाल कर देंगे। आगे का यही संघर्ष है कि विदेशी पूंजी के सामने स्वदेशी सोच वाले सिनेमाकार कब तक टिक पाएंगे? टिक पाएंगे या भी नहीं?
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना ने अमेरिका के पर्ल हार्बर पर हमला किया। विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों और जनता का मनोबल बढ़ाने के लिए अमेरिकी सरकार ने ‘वाय वी फाइट’ कड़ी में सात फिल्में बनाईं जिनका निर्देशन फ्रैंक कापरा ने किया था। इसमें युद्ध की प्रस्तावना से लेकर फासीवादी शक्तियों के उदय की कहानी है। इसका एक बिंदु ‘फूट डालो और राज करो’ भी है। इनमें युद्ध के असली दृश्यों का इस्तेमाल किया गया था। अब नजर डालिए पिछले पांच दशकों के अमेरिकी सिनेमा पर। ज्यादातर अमेरिकी सिनेमा में खलनायक को रूसी दिखाया जाता है। रूसी एजंट अमेरिका में हर तरह के अपराध कर अमेरिका की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देना चाहते हैं।
भारत में रूसी दोस्त से लेकर अमेरिका में रूसी खलनायक तक। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से दुनिया में बहुत कुछ बदला। समझ लिया गया कि अपना प्रभुत्व जमाने के लिए प्रत्यक्ष युद्ध का ज्यादा हासिल नहीं है। हथियारों पर खर्च करने, जान-माल को ताक पर लगाने से बेहतर है कि दूसरे देशों की सीमा के अंदर दोस्ती का हाथ बढ़ा कर प्रवेश करो। अगर अमेरिका और यूरोप के विकसित देश विकासशील देशों में पैसे खर्च कर रहे हैं तो इसलिए कि वहां के बाजार में उन्हें आसानी हो। अगर बढ़िया सड़क, अस्पताल और लोकतंत्र नहीं होगा तो कारोबार करना भी मुश्किल होगा। विकासशील देशों की स्वास्थ्य सुविधाएं, संस्कृति, सड़क और राजनीतिक स्थिति आपके कारोबार के लिए अहम हैं। आप दूसरे देश को संकट से बचाने की कोशिश इसलिए करते हैं ताकि आपका राजनीतिक व कारोबारी प्रभुत्व किसी तरह के संकट में न आए।
याद करें, मनमोहन सिंह ने अमेरिका से परमाणु करार के लिए अपनी गठबंधन की सरकार तक को संकट में डाल दिया था। सरकार का सहयोगी वामपंथी धरा इसके खिलाफ था। उस वक्त की उदारवादी नीतियों के कारण यह करार मनमोहन सिंह सरकार के लिए करो या मरो का सवाल बन गया था। अमेरिका के लिए भी यह करार उतना ही अहम था। भारत ने ‘डब्लूटीओ’ और ‘गैट’ की नीतियों के साथ चलने में भलाई समझी। अर्थव्यवस्था की किताब में सरकारी क्षेत्रों को बोझ के नाम से तारांकित कर दिया गया। अमेरिका से चली उदारवादी नीतियों के लिए भारत ने अपना राजमार्ग खोल दिया था और उस समय दोनों जगहों की सरकार ने इसका फायदा उठाया था।
फिर अब ऐसा क्या हो गया है कि अमेरिका अपने भारत जैसे सहयोगी को आए दिन साख के संकट में डाल रहा है। इसकी एकमात्र वजह यही है कि आज की तारीख में यूरोपीय देश से लेकर अमेरिका तक आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। अब अगर आप संकट में हैं तो आपका कोई दुश्मन भी होगा। दुश्मन किसे दिखाया जा सकता है? अमेरिका से लेकर जर्मनी के नए नायक फ्रेडरिक मर्ज़ (Friedrich Merz) के पास इसका एक ही सूत्र है-प्रवासी। एंजेला मर्केल के उदारवादी जर्मनी के संकटों को दूर करने के लिए मर्त्ज ने भी कड़े प्रवासी प्रावधानों का समर्थन किया था। एक दशक पहले मर्त्ज का जो रुख उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी बाधा था आज वे उन्हीं अनुदारवादी वजहों से जर्मनी के चांसलर बनने के करीब पहुंच गए हैं। दुनिया के नक्शे पर जर्मनी ऐसा देश है जिसका अलग इतिहास रहा है। मर्त्ज कहते हैं कि जर्मनी और यूरोप को अमेरिका से ‘मुक्ति’ लेनी होगी।
कूटनीति में विदेशी अनुदान का अपना अर्थशास्त्र है। आज ट्रंप जिस भारत की मदद वापस लेने का नगाड़ा बजा रहे हैं, वही भारत कई देशों को अनुदान देता है। कोरोना महामारी के समय भारत ने अपना उदारवादी रुख बरकरार रखा था। तब विपक्ष ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाए थे कि भारतीयों की जरूरतों की अनदेखी करते हुए अन्य देशों को कोरोना की किट और वैक्सीन दी गई। यह वैश्विक कूटनीति का हिस्सा है कि आपको अपने नागरिकों के साथ उनका भी सोचना है जिनके पास आपसे कम संसाधन हैं।
कोरोना महामारी ने एक सबक देने की कोशिश की थी कि दुनिया का एक भी आदमी संक्रमित हुआ तो पूरी दुनिया के संक्रमित होने का खतरा हो जाएगा। उस वक्त लगा था कि कोरोना के बाद पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति बदल जाएगी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और देश व दुनिया राजनीति व कूटनीति के मसले पर पुराने ढर्रे पर ही आ गए।
बीसवीं सदी के सार्वभौमिक मूल्यों के तहत एक लोकतांत्रिक देश दूसरे लोकतांत्रिक देश को मजबूत करने में मदद करता रहा है। बस नजर इस बात पर रखनी होती है कि मदद, दखल में न तब्दील हो जाए। रूस हो, यूरोपीय देश या अमेरिका सब अपने राजनीतिक व आर्थिक प्रभुत्व की खातिर ही अन्य देशों को अनुदान देते रहे हैं।
भारतीय से लेकर पश्चिमी संस्कृति में दान के पीछे पुण्य कमाने का मोह होता है। अमेरिका जैसा देश अनुदान का दान करता है तो बदले में राजनीतिक व आर्थिक प्रभुत्व का पुण्य चाहता है। मुश्किल यह है कि अब आप अपने घर के खर्चे नहीं संभाल पा रहे हैं तो हर जगह कटौती की जरूरत महसूस कर रहे हैं। अपने खर्चों से परेशान अमेरिका जैसा देश कह रहा है, दान का काम तो पहले अपने घर के लिए होना चाहिए।
घर-बाहर के इस रिश्ते पर फिलहाल किसी ‘ट्रंपवाद’ के तहत भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती क्योंकि अमेरिकी जनसंचार माध्यमों में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक ट्रंप अपने पिछले कार्यकाल में तीस हजार से ज्यादा बार अपनी बात से पलट चुके हैं। फिलहाल तो उन्होंने अपने जिन ‘दोस्तों’ को धर्मसंकट में डाल रखा है उनके दिल से कूटनीतिक आह निकल रही होगी, हुए तुम दोस्त जिसके…।