महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के नेता अजीत पवार (Ajit Pawar) ने अपने चाचा शरद पवार (Sharad Pawar) को पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया। इसके बाद अजित पवार गुट ने चुनाव आयोग (EC) को पत्र लिखा और अपने गुट को असली एनसीपी के रूप में मान्यता देने की मांग की।
पार्टियों में टूट के कई मामले सामने आए
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अजित पवार और शरद पवार दोनों ने बाद में बुधवार को अलग-अलग बैठकें कीं। वहीं रविवार को अजित पवार के शपथ ग्रहण में 16 या 17 विधायक मौजूद थे। भारत के राजनीतिक दलों में नेतृत्व के मुद्दों पर विभाजन असामान्य नहीं है। इसी साल चुनाव आयोग ने शिवसेना के बीच एक विवाद पर फैसला लेते हुए पार्टी का आधिकारिक नाम और साथ ही ‘धनुष और तीर’ चिन्ह एकनाथ शिंदे गुट को दे दिया था।
विधायिका के बाहर एक राजनीतिक दल में विभाजन के सवाल पर सिंबल आर्डर, 1968 के पैरा 15 में कहा गया है कि जब चुनाव आयोग संतुष्ट हो जाता है कि किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रतिद्वंद्वी वर्ग या समूह का दावा मजबूत होता है कि वही असली पार्टी है तो आयोग उसे पार्टी के रूप में मान्यता देता है।
यह फैसला मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों (जैसे शिव सेना) के विवादों पर लागू होता है। पंजीकृत लेकिन गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों में विभाजन के लिए चुनाव आयोग आमतौर पर गुटों को अपने मतभेदों को आंतरिक रूप से सुलझाने या अदालत का दरवाजा खटखटाने की सलाह देता है।
सिंबल आर्डर 1968 के तहत पहला विभाजन कांग्रेस में हुआ
1968 के आदेश के तहत निर्णय लेने वाला पहला मामला 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में पहला विभाजन हुआ था। के कामराज, नीलम संजीव रेड्डी, एस निजलिंगप्पा और अतुल्य घोष के नेतृत्व में पार्टी के पुराने नेताओं ने इंदिरा गांधी को निष्कासित कर दिया था। इंदिरा गांधी कांग्रेस से अलग हो गईं और पार्टी निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली पुरानी कांग्रेस (O) और इंदिरा के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस (J) में विभाजित हो गई। पुरानी कांग्रेस ने बैलों की जोड़ी के पार्टी के आधिकारिक चिन्ह को बरकरार रखा जबकि अलग हुए गुट को बछड़े के साथ गाय का चिन्ह दे दिया गया।
1968 से पहले चुनाव आयोग ने चुनाव संचालन नियम, 1961 के तहत अधिसूचनाएं और कार्यकारी आदेश जारी किए थे। 1968 से पहले किसी पार्टी का सबसे हाई-प्रोफाइल विभाजन 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का हुआ था। दिसंबर 1964 में एक अलग समूह ने EC से संपर्क किया था और सीपीआई (Marxist) के रूप में मान्यता की मांग की थी। इस दौरान गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के सांसदों और विधायकों की सूची प्रदान किया था, जिन्होंने इसका समर्थन किया था।
चुनाव आयोग ने इस गुट को सीपीआई (M) के रूप में मान्यता दी क्योंकि उसने पाया कि अलग हुए समूह का समर्थन करने वाले सांसदों और विधायकों की संख्या अधिक थी। अब तक ऐसे लगभग सभी विवादों में पार्टी प्रतिनिधियों/पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों के स्पष्ट बहुमत ने किसी एक गुट का समर्थन किया है, तो उसको मान्यता मिली है। इस साल की शुरुआत में शिवसेना के मामले में पार्टी के अधिकांश निर्वाचित प्रतिनिधि एकनाथ शिंदे के पक्ष में चले गए।
कांग्रेस का हुआ था बंटवारा
जब भी चुनाव आयोग पार्टी संगठन के भीतर समर्थन के आधार पर प्रतिद्वंद्वी समूहों की ताकत का परीक्षण नहीं कर सका तो उसने केवल निर्वाचित सांसदों और विधायकों के बीच बहुमत का परीक्षण करने की कोशिश की है। पहले कांग्रेस विभाजन के मामले में चुनाव आयोग ने कांग्रेस (O) और अलग हुए गुट दोनों को मान्यता दी, जिसके अध्यक्ष जगजीवन राम थे। कांग्रेस (O) की कुछ राज्यों में पर्याप्त उपस्थिति थी और वह सिंबल आर्डर के पैरा 6 और 7 के तहत पार्टियों की मान्यता के लिए निर्धारित मानदंडों को पूरा करती थी।
1997 से नया नियम
हालांकि इस सिद्धांत का पालन 1997 तक किया गया। लेकिन चीजें तब बदल गईं जब चुनाव आयोग ने कांग्रेस, जनता दल आदि में विभाजन का निपटारा किया जिसके कारण सुखराम और अनिल शर्मा की हिमाचल विकास कांग्रेस, निपमाचा सिंह की मणिपुर राज्य कांग्रेस, ममता बनर्जी की TMC, लालू प्रसाद की राजद, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल आदि का निर्माण हुआ।
तब ECI ने महसूस किया कि केवल सांसद और विधायक होना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधियों ने अपनी मूल (अविभाजित) पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीता था। फिर चुनाव आयोग ने एक नया नियम पेश किया जिसके तहत अलग हुए समूह को खुद को एक अलग पार्टी के रूप में पंजीकृत करना होगा और केवल राज्य या केंद्र में अपने प्रदर्शन के आधार पर राष्ट्रीय या राज्य पार्टी का दर्जा पाने का दावा करना होगा।