सुशील कुमार सिंह
तार्किक और नैतिक पक्ष यह है कि समावेशी विकास के माध्यम से केवल शहर ही नहीं, बल्कि गांवों में भी तेजी से बदलाव आया है, लेकिन यह पूरा हुआ है, यह कहना बेमानी होगा। औपनिवेशिक काल का इस्पाती ढांचे वाला प्रशासन मौजूदा समय में प्लास्टिक के ढांचे जैसा हो गया है जो नौकरशाही से ‘सिविल सर्वेंट’ बन गया है। जबकि स्वतंत्र भारत में जनता की सरकार पहले भी थी और अब भी है। पर अब शासन का प्रारूप बदल गया है और यह परंपरागत शासन व्यवस्था सुशासन, अभिशासन, ई-शासन के तमाम दौर से आगे बढ़ता हुआ मोबाइल-शासन (एम-गवर्नेंस) तक पहुंच गया है।
समावेशी विकास केवल रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित न होकर शांति और खुशहाली से भरे जीवन के लक्ष्य तक पहुंच चुका है। पड़ताल बताती है कि जब दो अक्तूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू हुआ, तभी से देश में समावेशी विकास की कार्यशाला शुरू हुई। हालांकि यह कार्यक्रम विफल रहा, मगर इसकी विफलता ही पंचायती राज व्यवस्था की बड़ी वजह बनी।
अस्सी के दशक में पांचवीं पंचवर्षीय योजना में जब गरीबी उन्मूलन की बात आई तब एक बार फिर समावेशी भारत के बड़े प्रयास की झलक दिखी। बावजूद इसके आज भी कमोबेश हर चौथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और यही आंकड़ा अशिक्षित का भी है। जब किसी विकास की प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गों मसलन अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, सभी जाति और संप्रदाय आदि के लोग शामिल होते हैं तो ऐसी विकासात्मक पहल को समावेशी विकास की संज्ञा दी जाती है।
साल 1992 से 1997 के बीच की आठवीं पंचवर्षीय योजना समावेशी विकास के लिए जानी जाती है और यह 24 जुलाई 1991 के उदारीकरण के बाद की पहली पंचवर्षीय योजना थी जिस पर काफी हद तक विकास का ताना-बाना टिका था। दौर बदला और विचार के साथ विज्ञान बड़ा हो गया। परंपरागत शासन व्यवस्था ने मोबाइल-शासन तक की यात्रा कर ली, मगर समावेशी विकास समय के साथ पटरी पर उतना नहीं दौड़ पाया, जितना नीतियों और संकल्पनाओं में इसे सहेजा गया था। हालांकि नए ढांचों, पद्धतियों और कार्यक्रमों को नया स्वरूप देते हुए सरकार की ओर से तमाम प्रयास किए गए हैं, साथ ही शासन के प्रारूप में भी निरंतर बदलाव होता रहा।
इसी का एक बड़ा उदाहरण मोबाइल-शासन भी है। शासन और प्रशासन में सूचना प्रौद्योगिकी का समन्वित प्रयोग करना ई-शासन का पर्याय है, जबकि मोबाइल-शासन ई-शासन का एक उप-डोमेन है जो यह सुनिश्चित करता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के माध्यम से लोगों को इलेक्ट्रॉनिक सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकें।
साल 2019 के बजट में समावेशी विकास को समेटने का प्रयास दिखाई देता है जिसमें आगामी पांच वर्षों के लिए बुनियादी ढांचे पर सौ लाख करोड़ का निवेश, अन्नदाता को बजट में उचित स्थान देने, हर हाथ को काम देने के लिए नए कारोबार के साथ सूक्ष्म, मध्यम व लघु उद्योग पर जोर देने के अलावा, नारी सशक्तिकरण, जनसंख्या नियोजन और गरीबी उन्मूलन की दिशा में कई कदम उठाने की बात कही गई। सुसज्जित और स्वस्थ समाज यदि समावेशी विकास की अवधारणा है तो मोबाइल-शासन इसकी पूर्ति का मार्ग है।
भारत सरकार का लक्ष्य मोबाइल फोन की व्यापक पहुंच का उपयोग करना और सार्वजनिक सेवाओं विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में आसान और चौबीस घंटे पहुंच को सक्षम बनाने व मोबाइल ढांचा के साथ मोबाइल ऐप की क्षमता का उपयोग बढ़ा कर मोबाइल-शासन को बड़ा करना है। गौरतलब है कि इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने साल 2012 में मोबाइल-शासन के लिए रूपरेखा विकसित और अधिसूचित की थी।
जाहिर है, मोबाइल-शासन के कई लाभ हैं, जैसे- पैसे की बचत, नागरिकों को बेहतर सेवाएं, पारदर्शिता, कार्य में शीघ्रता, आसान पहुंच और बातचीत सहित किसी प्रकार का भुगतान व सरकार की योजनाओं की पूरी जानकारी तीव्रता से पहुंच जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ई-शासन आसान, प्रभावी और आर्थिक-शासन भी है और इससे सुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस वक्त भारत की एक सौ तीस करोड़ से अधिक की आबादी में एक सौ सोलह करोड़ लोग मोबाइल और स्मार्टफोन का उपयोग कर रहे हैं। हालांकि इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि कितनों के पास मोबाइल फोन दो या उससे अधिक हैं। फिलहाल यह भारी-भरकम आंकड़ा दर्शाता है कि देश मोबाइल केंद्रित हुआ है और सरकार की योजनाओं की पहुंच का यह एक अच्छा तकनीक व रास्ता बना है।
राष्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना, मिट्टी स्वास्थ कार्ड योजना, इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार, ई-वीजा, ई-अदालत, राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड आदि सहित कई कार्यक्रमों के संचालन में मोबाइल एक बड़ा जरिया बन गया है। सूचना का आदान-प्रदान, किसी प्रकार की रिपोर्ट व जानकारी मसलन खेती-बाड़ी, अदालत से जुड़ी जानकारी, ई-याचिका, ई-सुनवाई, ई-सुविधा आदि ई-शासन के उप-डोमेन मोबाइल-शासन का ही पर्याय हैं जो इन सेवाओं में पारदर्शिता, जवाबदेहिता और प्रभावशीलता का भी उदाहरण है।
समावेशी विकास रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी व रोजगार समेत कई बुनियादी अर्थों से युक्त है। यह शासन की कसौटी भी है। भारत में साल 2025 तक नब्बे करोड़ से अधिक लोग सीधे इंटरनेट से जुड़ जाएंगे, जबकि मौजूदा स्थिति में यह आंकड़ा साठ करोड़ के आसपास है। जाहिर है, इंटरनेट से जुड़ाव मोबाइल-शासन को और ताकत देगा। समावेशी विकास से कमोबेश सभी का नाता है।
जनसांख्यिकीय दृष्टि से देखें तो भारत स्वयं में अनूठा दिखता है जहां बासठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी पंद्रह से उनसठ वर्ष के बीच की है। यह संख्या 2035 तक कुल आबादी का पैंसठ फीसद पहुंच जाने की संभावना है और यही संख्या मोबाइल से तेजी से जुड़ रही है। पर चुनौती भी इसी के बीच है। देश में नौकरियों के नब्बे फीसद से अधिक अवसर सूक्ष्म, छोटे और मझोले (एमएसएमई) क्षेत्र उपलब्ध कराता है।
इसे मजबूत करने के लिए सरकार बीते कुछ वर्षों से कदम उठा रही है। हालांकि कोविड-19 की महामारी के चलते कामकाजी आबादी का एक बड़ा वर्ग तबाह हो गया है। सरकार के समक्ष भी इससे उपजी समस्याओं को पटरी पर लाने की चुनौती है।समावेशी विकास का एक लक्ष्य 2022 तक दो करोड़ घर बनाने और किसानों की आय दोगुनी करने का भी है। हालांकि यह लक्ष्य समय पर हासिल हो पाएगा या नहीं, अभी कहना कठिन है।
मार्च 2019 तक सरकार का लक्ष्य पचपन हजार से अधिक गांवों में मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध कराना और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देना था। जनधन खाते, डेबिट कार्ड, आधार कार्ड, भीम ऐप आदि को जन-जन तक पहुंचाना भी सरकार का लक्ष्य ही था, ताकि लोगों को डिजिटल लेनदेन से जोड़ा जा सके और सारी योजनाओं का सीधा लाभ मिल सके। यहां मोबाइल-शासन को बाकायदा सक्रिय देखा जा सकता है।
समावेशी इंटरनेट सूचकांक में भारत छियालिसवें स्थान पर है। गौरतलब है कि विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की सालाना शिखर बैठक के शुरू होने से पहले समावेशी विकास सूचकांक जारी किया जाता है जिसमें भारत की स्थिति निरंतर बेहतर देखी जा सकती है। फिलहाल मोबाइल-शासन और समावेशी विकास देश में एक क्रांति ला सकते हैं। कारपोरेट क्षेत्र, उद्योग और खेत-खलिहानों के सुशासन को लेकर भी मोबाइल एक अचूक तकनीक है। इतना ही नहीं दक्ष सरकार का हुनर भी इसी में छिपा है।
सुशासन की क्षमताओं को लेकर ढेर सारी उम्मीदें हैं। जो सुशासन लोक विकास की कुंजी है अब उसे पाने के लिए मोबाइल-शासन की राह पर चलना अपरिहार्य हो गया है। सरकार की प्रक्रियाओं को जन-केंद्रित बनाने के लिए मोबाइल-शासन ही उपाय है। समावेशी विकास की चुनौती को देखते हुए नवीन लोक प्रबंध की प्रणाली में ढलना होगा। वर्तमान दौर डिजिटल गवर्नेंस का है। ऐसे में मोबाइल शासन की अपरिहार्यता से कैसे इंकार किया जा सकता है।