सरकारों की तमाम कोशिशों के बाद आज भी जम्मू-कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का पलायन जारी है। इसलिए नहीं की वो असुरक्षित महसूस करते हैं बल्कि इसलिए कि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। जीविका का कोई अच्छा साधन भी नहीं है। वो सरकारी नौकरी नहीं करते और कोई निजी नौकरी उनके पास है नहीं। ऐसे में किसी युवा को प्रदेश के बाहर कोई बेहतर नौकरी का विकल्प मिलता है तो वो अपने माता-पिता के साथ घाटी छोड़कर चला जाता है।

कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हिंसक घटनाओं के बाद भी वहीं रुके रहने वाले में से एक गंजू परिवार भी है। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी अब बेहतर भविष्य की तलाश में है। अनंतनाग डिग्री कॉलेज से आर्ट्स में ग्रेजुएट गंजू परिवार के 26 वर्षीय अशीष आज अच्छी नौकरी की तलाश में हैं। वो कहते हैं, ‘मैं यहां से जाने पर गंभीरता से विचार कर रहा हूं। मुझे गलत मत समझना… ऐसा सुरक्षा कारणों से नहीं है। हमें ऐसी कोई समस्या नहीं है। मैं यहां से जाने की सोच रहा हूं क्योंकि मुझे नौकरी की जरुरत है। सरकारी नौकरियां हमारे लिए नहीं हैं और जो निजी क्षेत्र की नौकरियां उपलब्ध हैं, उनमें पैसा बहुत कम मिलता है।’ ये भी पढ़ें- विस्थापित कश्मीरी पंडितों पर तो सरकार मेहरबान, पर जो मजबूरी में वहीं रहे उन्हें साल रहा टिके रहने का दर्द- पीड़ितों की आपबीती

आशीष कहते हैं कि उनके चचेरे भाई पुनीत थपलू और उनके बीच में अंतर साफ नजर आता है। 30 साल के थपलू इंजीनियर हैं, जिन्होंने हाल के दिनों में बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप की अपनी नौकरी छोड़ी दी। अभी वो साइबर सिटी गुरुग्राम में कॉफी शॉप खोलने पर विचार कर रहे हैं। पुनीत थपलू कहते हैं, ‘बाहर रहने वालों की स्थिति बेहतर हैं, अवसर बेहतर हैं। जो लोग पीछे रह गए, आज वो आर्थिक रूप से पिछड़ गए।’

थपलू के माता-पिता कश्मीर में वानपोह स्थित अपने संयुक्त परिवार को छोड़कर आ गए थे और ऐसा दूसरी बार है जब वो घाटी में वापस आए। पहली बार वो साल 1994 में गंजू परिवार के विवाह में शामिल होने के लिए आए थे। पेशे से इंजीनियर थपलू कहते हैं, ‘इस बार, मैंने वानपोह और उस घर का दौरा किया, जहां हमने पहली बार परिवार के  सभी लोगों को छोड़ दिया था। यह मेरे लिए भावनात्मक पल था।’

अशीष की एक बड़ी बहन शीतल हैं जो थपलू परिवार के साथ रहने के लिए दिल्ली गई थीं और आज दिल्ली यूनिवर्सिटी में एचआरएम में पीएचडी कर रही हैं। इसी तरह उनकी छोटी बहन कोमल कश्मीर में ही बड़ी हुई और यहीं आशीष की तरह पढ़ाई की, मगर वहां रोजगार की संभावना बहुत कम है। ये भी पढ़ें- 2017 में पीएमओ में नौकरी के लिए लगाई थी गुहार, आज तक है जवाब का इंतजार- कश्मीर नहीं छोड़ने वाले पंडित अब हो रहे विस्थापन को मजबूर

हालांकि अनंतनाग में डायलगाम गांव निवासी सुनील भान केंद्र की भाजपा सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर करते हैं। वो कहते हैं कि उन्हें इस सरकार से बहुत उम्मीद थी, मगर गैर-प्रवासी कश्मीरी पंडित परिवारों की दुर्दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।