पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में भाजपा की अगुआई में राजग की सरकार तो बन गई। लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आने के बाद भी भाजपा और उसकी सहायक इकाई संघ लोकतंत्र की कसौटी को लेकर कठघरे में खड़े कर दिए जा रहे हैं। हर फैसले, हर नियुक्ति, हर पुरस्कार को विपक्ष विचारधारा के उग्र संघर्ष में तब्दील कर लेता है और उसके निशाने पर होता है संघ। कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है और छिटपुट जगहों पर ही वामपंथियों की मौजूदगी बची है। संघ के ‘अच्छे दिन’ के मौसम में विपक्ष भी समझ चुका है कि उसके खिलाफ लड़ेंगे नहीं तो मरेंगे। इसी टकराव पर देश के मूर्धन्य संघ विचारक व लेखक राकेश सिन्हा से मुकेश भारद्वाज की बातचीत के मुख्य अंश :
सवाल : चाहे जेएनयू विवाद हो या पुरस्कार वापसी या कैसा भी वैचारिक मतभेद- केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद हर विवाद के केंद्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। आरोप है कि केंद्र सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के पास है। विपक्ष के इस हल्ला बोल को आप कैसे देखते हैं?
* कारण साफ है कि देश में वामपंथियों को अपना आखिरी किला भी ध्वस्त होता हुआ दिख रहा है। राजनीति में इनकी निरर्थकता लगभग जगजाहिर है और अकादमिक संस्थानों में जो रही-सही उपस्थिति है वह भी अस्ताचल की ओर है। ऐसे में यह अशांति और आक्रोश जो असल में कुंठा का ही स्खलन है, किसी विचार के लिए न होकर तरस के योग्य ही है।
सवाल : वामपंथ का दावा जनसंघर्ष का रहा है। तो फिलहाल आप इनके संघर्ष को कैसे देख रहे हैं?
* वामपंथ में उग्रता और संघर्ष की अद्भुत क्षमता है। लेकिन भारतीय वामपंथ के तो जैसे मायने ही अलग हैं। यहां वामपंथ हमेशा ही सत्ता साक्षेप रहा है। आज इन्हें सरकारी संस्थानों में प्रतिनिधित्व दे दिया जाए, सब शांत हो जाएगा। ये सरकार के ऐसे अंग-संग चलेंगे जैसे कभी जुदा ही न थे।
भारतीय शैक्षणिक संस्थानों में अभी तक वामपंथी सुरों का ही वर्चस्व रहा है, और यह जंग उसी को कायम रखने की तो है…
* अपनी सत्ता साक्षेप प्रवृत्ति के कारण ही वामपंथियों ने अकादमिक क्षेत्रों में अपनी अप्रतिम प्रभुता स्थापित की। इससे उन्हें बौद्धिक नेतृत्व तो मिल गया लेकिन इनकी पार्टियों को इसकी कीमत अपना जनाधार खोकर चुकानी पड़ी। यही वजह है कि मौजूदा दौर में इन पार्टियों से भी बड़ा कद उन छद्म धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों का है। लेकिन ये सब भी अपना अस्तित्व तभी तक बनाए रखेंगे जब तक ये यहां नीति निर्धारण में शुमार हैं। इधर सत्ता का प्रश्रय हटा और उधर यह बौद्धिक आतंकवाद भी नेस्तनाबूद हो जाएगा। जेएनयू में यही हो रहा है। लिहाजा यहां छटपटाहट ज्यादा है।
सवाल : इन दिनों ऊंचे पदों पर हर नियुक्तियों के बाद संघ के आदमी, संस्थानों के भगवाकरण का हल्ला मच जा रहा है।
* अभी तक अपनी इसी बौद्धिक धौंस के कारण ही वामपंथियों ने आरएसएस को हाशिए पर रखा हुआ था। लेकिन अब जब हर जगह संघ के लिए दरवाजे खुल रहे हैं, उसकी आवाज की गूंज है तो वामपंथियों में छटपटाहट है। कौतुहल भी है। संघ हमेशा अपनी विचारधारा पर अडिग रहा है। लेकिन चूंकि देश के बौद्धिक संस्थानों के द्वार पहले सिर्फ इनके लिए खुले थे और जब दूसरे भी आ रहे हैं तो सिंहासन डोलता हुआ दिख रहा है। लिहाजा खबर भी यही बनती है कि आरएसएस का आदमी बन गया है। उसकी योग्यता पर कोई ध्यान केंद्रित नहीं करता।
सवाल : तो आपका संदेश है कि वैचारिक क्षेत्रों में संघ के वर्चस्व के सच को स्वीकार कर लेना चाहिए?
* आज की तारीख में आरएसएस एक ऐसी हकीकत है जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। महज आंखें बंद कर लेने से कबूतर बिल्ली की मार से बच नहीं सकता। कोई इस बात का जवाब दे कि आरएसएस अगर गलत विचारधारा है तो इसका तेजी से प्रसार क्यों हो रहा है?
सवाल : आरोप तो यह है कि सरकार पर दबाव डाल कर संघ अपनी विचारधारा थोप रहा है?
* विचारधारा को थोपने का कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन हम बौद्धिक विकास को समग्रता से विकसित करना चाहते हैं। हमारा रवैया मौजूदा बुद्धिजीवियों जैसा नहीं है जो आरएसएस के प्रति पक्षपाती रवैया रखते हैं। त्रासदी यह है कि ये लोग तो आरएसएस की विचारधारा का आलोचनात्मक विवेचन करने में भी विश्वास नहीं रखते। हम तो यही चाहते हैं कि शिक्षण संस्थानों में गुरु गोलवलकर और नंबूदरीपाद दोनों को पढ़ाया जाए।
सवाल : तो भारतीय विमर्श में संघ की स्वीकार्यता की क्या तैयारी है?
* वामपंथियों को यह समझना होगा कि आरएसएस के प्रति जिस वैचारिक अस्पृश्यता का उन्होंने पोषण किया था उसके दिन अब लद गए हैं। यह एक नए युग की शुरुआत है। इन सबने मिलकर भारतीय विमर्श को विकलांग कर दिया था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। वामपंथियों को राष्ट्रभक्ति की दुहाई देते-देते ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे से परहेज करना होगा। सिर्फ उनके चाहने भर से या इनकी विचारधारा के अनुरूप ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ या ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ को राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वामपंथ का जो बौद्धिक आधिपत्य है उसे बौद्धिक स्तर पर ही तोड़ा जाएगा न कि बुलडोजर से।
सवाल : जेएनयू के संकट को आप कैसे देख रहे हैं?
*जेएनयू में जो दिख रहा है, संकट वह नहीं है। संकट यह है कि जेएनयू ने जो प्रतिष्ठा अर्जित की, उसके मंच पर यह सब हो रहा है। परिसर में ऐसी घटनाएं होती रही हैं जो देश की अखंडता पर सवाल उठाती हैं। कांग्रेस ने कई दशक पहले ऑल इंडिया रिवाल्यूशनरी स्टूडेंट्स फेडरेशन को प्रतिबंधित किया था। लेकिन जेएनयू में इससे जुड़ी डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन खुलेआम काम कर रही है। दुखद यह भी है कि जेएनयू और जामिया में एक ‘आर्गेनिक’ संबंध बन गया है जिसके कारण यह बहस होती ही रहती है कि भारत एक बहुराष्ट्रवादी देश है। राम एक मिथ है या असलियत, इस पर बौद्धिक विवाद हो सकता है लेकिन उस पर विरोध प्रदर्शन का क्या औचित्य है? हम अगर मोदी, संघ या भाजपा पर आपके विरोध पर सवाल करें तो वह तो फासीवाद होगा लेकिन देश की अखंडता पर किसी के भी विरोध पर हम मुखर सवाल खड़ा करेंगे।
सवाल : कन्हैया कुमार पर देशद्रोह के आरोप को लेकर सरकार और इसके मुखर समर्थन के कारण संघ दोनों कठघरे में हैं।
* जेएनयू में कन्हैया की मौजूदगी में पाकिस्तान जिंदाबाद और देश विरोधी नारे लगे। यह अगर देश द्रोह नहीं है तो हमें फिर देश द्रोह की नई परिभाषा ही तलाश करनी होगी। यह ध्यान रहे कि भारतीय राष्ट्रवाद पर सवाल खड़ा करना उनके लिए सहज हो सकता है पर हमारे लिए असहज है, था, रहेगा।