विदेशी व्यापार में आयात आधारित व्यवस्थाएं आमतौर पर मार खाती हैं। भारत को भी निर्यात आधारित व्यवस्था बनाने का हमारा सपना है। इसीलिए अगर हमने ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया तो अमेरिका के साथ भी व्यापारिक समझौता करके अपनी अर्थव्यवस्था को आयात और निर्यात के जरिए पांच ट्रिलियन डालर का बना देने की उम्मीद की जा रही थी। जब अचानक कोई देश अपने आप को अधिक ताकतवर समझते हुए किसी दूसरे देश पर अधिक शुल्क लगा दे और इसके बाद यह भी कहे कि किसी और देश से आपको कोई वस्तु विशेष जैसे कच्चा तेल या आयुध नहीं खरीदने हैं, चाहे वे कितने भी सस्ते मिलते हों, तो यह अजीब है।

यही पिछले दिनों अमेरिका के अधिक शुल्क लगा देने के फैसले से हुआ है। भारत में आशंका पैदा हो गई थी कि इस तरह के फैसले से कहीं हमारी अर्थव्यवस्था पर गंभीर असर न पड़े और यहां अब कुछ उद्योग इस तरह के शुल्क लगाने के फैसलों से निरुत्साहित न हो जाएं। इसके अलावा, यहां बेरोजगारी और महंगाई का दौर न शुरू हो जाए। मगर अब तक ऐसा भारत में नहीं हुआ है। आशंका जताई जा रही थी कि शायद अचानक अमेरिकी शुल्क बढ़ जाने से भारत के सूचकांक में गिरावट होगी और यहां के लोग मुश्किलों का सामना करेंगे। मगर फिलहाल ऐसा नहीं हुआ है, इसलिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। यों भी, भारत लंबे वक्त से आत्मनिर्भर होने की कोशिश कर रहा है।

भारत में चलने वाले उद्योगों में आएगी शिथिलता यहां भी रोजगार पर असर पड़ेगा

अमेरिका ने जब शुल्क लगाया तो जो निर्यात हम अमेरिका को कर रहे हैं, उन सभी पर हमें इसका भार वहन करना होगा। इसके बाद निर्यात और आयात के बीच के शुल्क में जो अंतर रह जाएगा, उससे देखना होगा कि देश के सकल घरेलू उत्पाद को कितना नुकसान होता है। भारत को अमेरिका या किसी भी और देश से व्यापार करते हुए हमें यह देखना होगा कि अगर उसकी मुद्रा के सामने भारतीय रुपया दबता है, तो हमें समझौते में व्यावहारिक रुख अपनाना होगा।

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जिस प्रकार भारत अब विदेशी व्यापार में विविधिकरण की नीति अपना रहा है, उसमें हमारा मुख्य लक्ष्य यही है कि अगर हम अपनी-अपनी मुद्रा में व्यापार करें, तो यह ज्यादा सुविधाजनक होगा, क्योंकि उससे हमारी आयात मांग अधिक होने पर भी उस मुद्रा का अतिमूल्यन नहीं होता और हमारा रुपया अपने मूल्य पर स्थिर रहता है जो एक विकासशील देश के लिए बहुत जरूरी है। जहां तक अमेरिका का सवाल है, वहां पहले कम शुल्क था। मगर अब उसका शुल्क 25 फीसद तक चला गया है। ऐसे में भारत में चलने वाले उद्योगों में शिथिलता आएगी और इस तरह यहां भी रोजगार पर असर पड़ेगा। वस्तुओं की मांग घटेगी, तो उसका उत्पादन पर असर पड़ेगा और इस तरह रोजगार के साथ-साथ वस्तुओं की कीमतों पर भी इसका असर पड़ेगा।

हमारे सकल घरेलू उत्पाद की रफ्तार में केवल 0.40 फीसद कमी आएगी

इस प्रकार, अमेरिका से विदेशी व्यापार को बढ़ाकर हम जिस विकास का सपना देख रहे थे, उसमें फिलहाल शिथिलता आएगी। इसके बावजूद अगर शुल्क लगा कर अमेरिका समझता है कि उसके इस फैसले से भारत के सामने कोई मुश्किल खड़ी होगी, तो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमेरिका के ताजा फैसले से निपटने के लिए आर्थिक मोर्चे पर हम कौन-सी रणनीति अपनाते हैं। अर्थशास्त्री अंदाजा लगा रहे हैं कि अगर इसका कोई बड़ा असर भी पड़ेगा तो हमारे सकल घरेलू उत्पाद की रफ्तार में केवल 0.40 फीसद कमी आएगी। अगर उसकी जगह हम मुक्त व्यापार के समझौतों की गति पश्चिमी देशों और तीसरी दुनिया के अन्य चुने हुए देशों के साथ बढ़ा दें तो यह नुकसान और भी कम हो जाएगा।

इसके अलावा, सरकार ने यह फैसला भी कर रखा है कि हम भारत की घरेलू दस्तकारियों का विकास करेंगे और उनके अनोखेपन से सारी दुनिया में उनकी मांग अपने आप बढ़ जाएगी। यह सही है कि इस नीति पर पिछले दिनों में काम नहीं किया जा सका, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नीति को भी उसके शीर्ष तक पहुंचाया जाए। इसके लिए सहकारिता निवेश का पूरा इस्तेमाल किया जा सकता है जो कि अधिक रोजगारपरक होगा और इसके साथ ही अपनी लागत के मामले में भी सावधान रहते हुए हम अपनी विदेशी मुद्रा की कमाई को बढ़ा सकते हैं।

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शुल्क लगाने का ऐसा फैसला उस समय आया है, जबकि भारत का इसरो नई-नई उपलब्धियां हासिल कर रहा है। अभी हमने निसार उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करके पूरी बदलती दुनिया और उसके मौसम की पहचान भी करनी शुरू कर दी है। इस ज्ञान का इस्तेमाल नए निवेश के लिए किया जा सकता है और इस तरह उसकी लागत घटाकर निवेशकों के लिए अधिक लाभ छोड़ा जा सकता है। भारत का घरेलू निवेशक पहले ही स्वतंत्र होकर चलने में विश्वास करता है। याद रखने की जरूरत है कि भारत के पास बहुत बड़ा मांग बाजार है। कोई भी देश जो विदेशी व्यापार से कमाई करना चाहता है, भारत जैसे मांग-प्रबल देश की उपेक्षा नहीं कर सकता। अमेरिका को भी जल्दी या देर से इसकी पहचान करनी होगी और 25 अगस्त की छठी व्यापार बैठक में इसका बिम्ब हमें नजर आ सकता है।

कच्चे तेल का एक बहुत बड़ा ग्राहक खुद भी है अमेरिका

यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि शुल्क और हर्जाना किसी भी देश के लिए अधिक विपरीत प्रभाव नहीं पैदा कर सकते। भारत के लिए तो बिल्कुल नहीं, जिसने अपने कृषि क्षेत्र और डेयरी क्षेत्र के हित को करोड़ों किसानों की खातिर बचाने के लिए अमेरिका की मांग से समझौता करने से इनकार कर दिया। व्यापार दोनों पक्षों का बराबरी का रिश्ता होता है। इसके सामने कोई किसी दूसरे के आगे क्यों झुके? भारत को भी अगर कुछ समय के लिए कोई आर्थिक अड़चन पेश आती है तो दीर्घकाल में दुनिया हमारे इस न झुकने की तारीफ करेगी। हम रूस से स्थायी दूरी क्यों बरतें? जबकि उसके कच्चे तेल का एक बहुत बड़ा ग्राहक खुद अमेरिका भी है और उसके द्वारा दिए सुरक्षा उपकरणों से और उसके द्वारा दी गई, उसके निर्माण और इस्तेमाल की तकनीक से हमने ‘आपरेशन सिंदूर’ में विजय हासिल की। इससे पहले अमेरिका ने अधिक शुल्क लगाने की जिद पकड़ी थी। हमने जवाब देने की बजाय बातचीत की प्रक्रिया अपनाई। इसमें अगर इस तरह दबाव की राजनीति कोई देश अपने आर्थिक सामर्थ्य के बल पर करता है तो इसका जवाब यही है कि इस कृषि प्रधान देश में जो वांछित कृषि क्रांति है, उस पर जोर दिया जाए।

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हमारी कृषि बेहतर होगी तो हमारे अनाज के भंडार अपने आप करोड़ों किसानों का दुख-दर्द हर कर महंगाई पर लगाम लगा देंगे। घरेलू निवेशक भी कमर कस तैयार हो जाएं और नवउद्यमों के साथ एक ऐसा घरेलू निवेश का माहौल पैदा करें कि हमें दूसरों का मुखापेक्षी न होना पड़े। वैसे भी हमरे देश की सरहद पर एक तरफ पाकिस्तान है, दूसरी तरफ चीन है। अब बांग्लादेश को भी हम अपना नहीं कह सकते। ऐसी हालत में अपने सुरक्षा प्राचीरों को दृढ़ करना बहुत आवश्यक हो जाता है। सवाल है कि ऐसी स्थिति में अगर रूस अपनी आधुनिक तकनीक के साथ हमारी मदद के लिए आता है तो किसी और देश के व्यापारिक हितों के लिए हम इस मदद से इनकार क्यों करें!