हाल में एक नाबालिग ब्रिटिश लड़की ने पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराई है कि फेसबुक के मेटावर्स नामक प्रबंध में उसके डिजिटल अवतार का यौन शोषण किया गया। फेसबुक का यह नया तकनीकी मंच एक ऐसी आभासी त्रिआयामी जगह है, जिसमें लोग अपने डिजिटल अवतार बनाकर दूसरे लोगों के डिजिटल अवतारों से बात कर सकते हैं, उनके साथ खेल या कोई अन्य काम कर सकते हैं।
ब्रिटिश पुलिस का कहना है कि लड़की के वर्चुअल अवतार को कुछ लड़कों के वर्चुअल अवतारों ने झुंड की शक्ल में घेर लिया और इस तरह मेटावर्स में उसका यौन शोषण किया गया। भले इस घटना में लड़की को कोई शारीरिक आघात नहीं पहुंचा, लेकिन आभासी दुनिया के वास्तविक जैसे लगने वाले अनुभवों के कारण उसे हुआ मानसिक आघात वैसा ही है, जैसे असलियत में बलात्कार की शिकार कोई महिला अनुभव करती है।
इस त्रिआयामी आभासी दुनिया और सोशल मीडिया आदि मंचों से जुड़े पर्दे पर दिखने वाली घटनाओं के अहसास में एक बड़ा अंतर यह है कि मेटावर्स में सामने दिख रही चीजें और घटनाएं ज्यादा वास्तविक लगती हैं। वहां तकरीबन वैसा ही अहसास होता है, मानो सब कुछ सच में घटित हो रहा है।
ताजा घटना की जांच कर रही ब्रिटिश पुलिस इस तथ्य से सहमत है कि मेटावर्स ने आभासी अपराधों का एक नया रास्ता खोल दिया है। यहां लोग अपनी मर्दवादी मानसिकता को तुष्ट करते हुए महिलाओं के विरुद्ध सारे अपराध कर सकते हैं और इसके लिए उन्हें सीखचों के पीछे भेजना मुश्किल होगा, क्योंकि वास्तव में उन्होंने शारीरिक स्तर पर घटना को अंजाम नहीं दिया।
पर इन ‘वर्चुअल’ अपराधों का स्त्रियों से जुड़ा पहलू यह है कि इनका भावनात्मक और मानसिक असर महिलाओं के मन पर पूरी उम्र रह सकता है। उन्हें यह अहसास हो सकता है कि डिजिटल तौर पर उनका यौन उत्पीड़न करने वाले मर्दों ने न सिर्फ उन्हें प्रताड़ित करके अपना अहं तुष्ट किया, बल्कि वे कानून के शिकंजों से भी आजाद हैं। यह एक अजीब दुविधा वाली स्थिति है।
महिलाओं के उत्पीड़न का यह पहला वाकया नहीं है। यह घटना अपने किस्म की नई है, लेकिन डिजिटल बलात्कार और सोशल मीडिया पर ‘ट्रोलिंग’ की ऐसी अनेक घटनाएं हो चुकी हैं। ट्विटर और फेसबुक आदि मंचों पर सक्रिय रहने वालों में से कुछ लोग इसी तरह किसी चर्चित व्यक्ति की गलती या बयान के इंतजार में रहते हैं और फिर भूखे भेड़ियों की तरह उन पर टूट पड़ते हैं।
खासकर महिलाओं को इस तरह काफी ‘ट्रोल’ किया जाता है। फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर महिलाओं का उपहास उड़ाने, उन्हें बेवजह कठघरे में खड़ा करने और उन्हें दोषी ठहराने की एक ऐसी परंपरा देश में विकसित होती लग रही है, जिसके तहत लोग किसी मामले को पूरी तरह समझे बिना फैसला देने की भूमिका में आ जाते हैं।
सोशल मीडिया पर ऐसी हरकतों और टीका-टिप्पणियों को साइबर अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। इसके लिए पहले से कुछ कानून भी हैं और उनके तहत कुछ लोगों को दंडित भी किया जा चुका है। हालांकि ऐसी गिरफ्तारियों और दंड देने की व्यवस्था की जमकर आलोचना भी हो चुकी है। मगर इसमें संदेह नहीं कि ऐसे विचार, जो कंप्यूटर, मोबाइल आदि के जरिए, इंटरनेट के माध्यम से स्त्रियों के खिलाफ द्वेष पैदा करते, ‘चाइल्ड पोर्न’ को बढ़ावा देते या निजता का उल्लंघन करते हों, कानून की नजर में अपराध हैं। फेसबुक और वाट्सएप जैसी सोशल मीडिया कंपनियां दबाव पड़ने पर जागरूकता के कुछ अभियान हमारे देश में चला चुकी हैं। मगर इन उपायों के बावजूद ‘ट्रोलिंग’ और ‘साइबर बुलिंग’ जैसी कई समस्याओं का कोई अंत नजर नहीं आ रहा है।
शायद यही वे वजहें हैं, जिनके मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट तक को यह टिप्पणी करनी पड़ी कि देश में अब स्मार्टफोन जैसी चीजों का प्रयोग बंद कर देना चाहिए, ताकि महिलाओं और पूरे समाज को सोशल मीडिया जैसे तमाम आनलाइन खतरों से बचाया जा सके। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक अगर कोई सोशल मीडिया कंपनी यह कहकर बचने की कोशिश करे कि ऐसी सामग्री की रोकथाम की तकनीक नहीं है, तो यह उसका गलत तर्क होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि चूंकि ऐसे मामले ट्रोलिंग और बाल शोषण आदि से जुड़े होते हैं, इसलिए केंद्र सरकार इसकी व्यवस्था करे, जिससे कि फेसबुक, वाट्सएप आदि सोशल मीडिया के मंचों को उन पर मौजूद किसी भी आपत्तिनजक सामग्री के स्रोत की जानकारी देने के लिए बाध्य किया जा सके। अदालत की चिंताएं अपनी जगह सही हैं, पर यहां एक पेचीदा सवाल यह है कि सरकार इस बारे में आखिर कैसी व्यवस्था बना सकती है।
आज से करीब पांच वर्ष पूर्व केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया की निगरानी के उद्देश्य से ‘सोशल मीडिया हब’ बनाने का फैसला करते हुए कहा था कि सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मामलों में जेल और जुर्माने की सजाएं होंगी। बताया गया था कि अगर किसी व्यक्ति की टिप्पणी आदि से दूसरे शख्स को ठेस पहुंचेगी, तो फिर उसे लिखने वाले को अधिकतम तीन साल की जेल हो सकती है।
ऐसी आनलाइन सामग्री ‘शेयर’, ‘फारवर्ड’ या ‘रीट्वीट’ करने वालों को भी यही सजा मिलेगी। इसके लिए सरकार ने अलग से कानून बनाने के बजाय मौजूदा भारतीय दंड संहिता और आइटी एक्ट 2000 की धारा में बदलाव का प्रस्ताव दिया था, जो दस विशेषज्ञों की समिति से सरकार को मिली रपट के आधार पर तैयार किया गया था। प्रस्ताव था कि भादसं की धारा 153स के तहत ही आनलाइन घृणा फैलाने, साइबर अपराध या साइबर गुंडागर्दी करने पर कार्रवाई की जाए। इस धारा के तहत जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर किसी को धमकी या गलत संदेश दिया जाता है, तो तीन साल तक जेल हो सकती है।
इसी तरह भादसं की धारा 505अ के तहत अगर किसी आधार पर हिंसा फैलाने वाली टिप्पणी करने या सामग्री लिखने पर एक साल जेल या पांच हजार रुपए का आर्थिक दंड दिया जा सकता है। इसके लिए हर राज्य में महानिदेशक स्तर का एक अधिकारी साइबर पुलिस बल का मुखिया बनाने का निर्देश दिया गया था। हालांकि तब आमजन ही नहीं, खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी टिप्पणी की थी कि ऐसी व्यवस्थाएं देश में ‘निगरानी राज’ बनाने जैसा होगा। इस तरह 2019 में सरकार ने ‘सोशल मीडिया हब’ बनाने के प्रस्ताव वाली अधिसूचना वापस ले ली थी।
इसमें दो राय नहीं कि सोशल मीडिया और मोबाइल इंटरनेट को लेकर पूरा देश और समाज दुविधा में है। लोगों के लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि इन आधुनिक तकनीकों का कैसे इस्तेमाल करें और किस तरह इन पर नियंत्रण पाया जाए। इंटरनेट मंचों के गैरवाजिब इस्तेमाल के मामलों को देखते हुए अक्सर इनके नियंत्रण की बात उठती रही है।
उपयोग और बेजा इस्तेमाल के ये दो छोर ही इंटरनेट और सोशल मीडिया के नियंत्रण की सरकारी व्यवस्थाओं की मांग उठाते और यह दुविधा पैदा करते हैं कि कहीं ऐसा नियंत्रण अभिव्यक्ति की आजादी के हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन न करने लग जाएं तथा ये माध्यम सिर्फ सरकारी भोंपू बनकर न रह जाएं।
ऐसे में, जब हर कोई सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों से जुड़ना चाहता है- यह माहौल बनाने की जरूरत भी पैदा हो गई है कि लोगों को इनके सही इस्तेमाल के तौर-तरीके बताए जाएं। सोशल मीडिया को ज्यादा सुरक्षित और जवाबदेह बनाने का काम उन लोगों को ही करना होगा जो इस तकनीकी दुनिया को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।