महात्मा गांधी भारत में अपने सत्याग्रह के प्रयोग से कम ही दिनों में इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि यह धरती अहिंसा और सद्भाव की है, लिहाजा हिंसा और कटुता को छोड़ संघर्ष के रचनात्मक प्रयोग अगर आजमाएं जाएं तो वह न सिर्फ देश के बल्कि मानवता के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी। 1920 में उनका असहयोग का आह्वान ऐसा ही एक प्रयोग था, जो अंग्रेजी हुकूमत को यह एहसास दिला गया कि भारतीय न सिर्फ स्वराज के मुद्दे पर एक हैं बल्कि वे आत्मनिर्भरता जैसे रचनात्मक संकल्प को पूरा करने के लिए भी तन-मन और धन से प्रतिबद्ध हैं।
यही कारण है कि गांधी ने एक अगस्त, 1920 को जब असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तो उनके आह्वान पर विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में जाना छोड़ दिया, वकीलों ने अदालत में जाने से इनकार कर दिया और कई कस्बों-नगरों में श्रमिक हड़ताल पर चले गए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुईं, जिनमें छह लाख श्रमिक शामिल थे और इनसे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ। इसके उलट एक दूसरा तथ्य यह भी है कि लोग धन और संसाधन की किल्लत के बीच एक-दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए और रचनात्मक सहयोग और सौहार्द की मिसालें हर जाति और मजहब के लोगों ने मिलकर एक साथ रचीं।
‘मेरी चले तो हमारा गवर्नर जनरल किसान होगा’
चंपारण सत्याग्रह से लेकर जीवन के आखिरी क्षण तक महात्मा गांधी की चिंता के केंद्र में लगातार देश के किसान रहे हैं। किसानों-मजदूरों की दुर्दशा देखकर ही उन्होंने ‘अंतिम जन’ के साथ न्याय की बात देश-समाज के सामने रखी थी। मृत्यु से ठीक एक दिन पहले यानी 29 जनवरी, 1948 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा, ‘मेरी चले तो हमारा गवर्नर जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वजीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान है।’
इसी तरह पांच दिसंबर, 1929 को ‘यंग इंडिया’ में वे लिखते हैं, ‘असल बात यह है कि (किसानों के लिए) कितना भी किया जाए, वह किसानों को उनका वाजिब हक देर से देने के सिवाय और कुछ नहीं है।’ हालांकि गांधी ये बात तब कह रहे थे जब भारत के किसान अंग्रेजी हुकूमत और जमींदारों के दोहरे चंगुल में फंसे थे। पर जो बात समझने की है वह यह कि वे इस बात पर लगातार जोर देते रहे कि किसानों की स्थिति बेहतर होनी ही चाहिए। उनके सपनों के भारत में किसानों की सशक्त और केंद्रीय भूमिका थी।
हिंसा हरगिज नहीं बर्दाश्त
महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता संघर्ष को अहिंसक शील के साथ आगे बढ़ाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि भारतीय जनमन अहिंसक संघर्ष के लिए स्वाभाविक तौर पर तैयार है। असहयोग आंदोलन के दौरान इस अहिंसक शपथ का पूरे देश में भरसक पालन हुआ भी। पर फरवरी 1922 को किसानों के एक समूह द्वारा जब संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगाने की खबर आई तो गांधी दहल गए और उन्होंने असहयोग आंदोलन तत्काल वापस ले लिया। ल्ल