अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने दूसरी बार राष्ट्रपति पद संभालते ही शुल्क संग्राम छेड़ दिया, जो जैसे को तैसा के सिद्धांतों पर चलता है। इससे पहले स्थिति यह थी कि व्यापार में मानवीयता का आधार रहता था। पिछड़े देशों को संरक्षण देने की बात भी होती थी। सामर्थ्यवान देश अधिक शुल्क चुका देते और तीसरी दुनिया के पिछड़े देश कम शुल्क पर अपना माल निर्यात कर देते थे। मगर डोनाल्ड ट्रंप ने अधिक निर्यात पर अधिक शुल्क और आयात पर कम शुल्क को लूट करार दिया। वह एक नया सिद्धांत लेकर आए, यानी जितना शुल्क आप लगाएंगे, उतना ही हम भी लगाएंगे। व्यापार में मानवीय नहीं, अधिक से अधिक लाभ कमाने का आधार चलता है।

अमेरिका, जो शुरू से ही पूंजीवादी देश रहा, वह इसका सबसे बड़ा तरफदार बन कर सामने आया। मगर इस शुल्क युद्ध के अजब रंग-ढंग हैं। जब अनुचित लगे तो व्यापार वार्ता करके शत्रु देशों पर थोपे गए शुल्क घटा दो। जाहिर है, यहां लक्ष्य अधिक से अधिक लाभ और कर राजस्व कमाने का है। मानवीय विकास उपेक्षित रह गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने सत्ता संभालते ही अंतरराष्ट्रीय विनिमय में डालर की प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए अपने निर्यात पर अधिक शुल्क लगाने वाले देशों पर अमेरिका से निर्यात करते हुए भी अधिक शुल्क लगाने की घोषणा कर दी। ट्रंप की सबसे अधिक नाराजगी चीन से थी, जिस पर 145 फीसद तक शुल्क लगा दिया गया। मगर ऐसा व्यापार अपनी बात पर नहीं टिकता।

लाभ हो, तो कल के शत्रु आज परम मित्र बन जाते हैं

व्यापारिक लाभ हो, तो कल के शत्रु आज परम मित्र बन जाते हैं। नया उदाहरण चीन का है। जब अमेरिका को अपने व्यापारिक हितों पर ठेस लगती दिखी, तो उसने चीन पर थोपे शुल्क को घटा दिया और उन पर पुनर्विचार के लिए तैयार हो गया। धौंस देकर यह समृद्ध देश और उनका अगुआ न केवल व्यापार में लाभ कमाना चाहता, बल्कि अपने सामर्थ्य की हेकड़ी जमाने के लिए दुनिया में शांति का मसीहा भी बन जाता है। ट्रंप ने चौबीस घंटे में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध रुकवाने की घोषणा की थी।

इजराइल और हमास का युद्ध बंद करना भी उनके अनुसार चुटकी की बात है। मगर हर बात धौंस से नहीं चलती। कुछ बातें संवेदना के स्तर पर आहत देशों को मुकाबला करने के लिए मजबूर करती रहती हैं। समृद्ध देशों की बातें बहरे कानों की नजर हो जाती हैं। पता लगता है कि लड़ाई इसलिए करवाई, क्योंकि हथियार बेचने थे और युद्धरत देशों के अमूल्य खनिज पर कब्जा करने की मंशा थी। अमेरिका जैसे समृद्ध देश युद्ध में यूक्रेन के जिंदा रहने को अपने पर निर्भर बता रहे थे। इसीलिए मुखर घोषणाओं के बावजूद स्वनियुक्त इस मध्यस्थ को शांति स्थापित करने में मुंह की खानी पड़ी।

डोनाल्ड ट्रंप के बयानों में यह दर्द बार-बार उभरा है कि उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच छिड़े संघर्ष रुकवाने का श्रेय नहीं मिला, क्योंकि भारत ने तो सिरे से अमेरिका की इस वर्चस्ववादी घोषणा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और दूसरी ओर, पाकिस्तान भी चुप रहा। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे के अंदाज में ट्रंप बार-बार शांति का मसीहा होने का दावा करते रहे, लेकिन किसी युद्धरत देश ने उनके इस दावे को स्वीकार नहीं किया। डोनाल्ड ट्रंप के मन में दर्द सवाया हो गया है। उनका कहना है कि वह भारत और पाकिस्तान से संवाद कर उन्हें पूर्ण युद्ध के द्वार से वापस ले आए। यह इतनी बड़ी सफलता थी, लेकिन इसका उचित श्रेय उन्हें नहीं मिला।

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उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच बहुत नफरत है। दोनों ही परमाणु संपन्न देश हैं। कटुता इतनी थी कि संघर्ष का अगला चरण परमाणु बम का इस्तेमाल था। उन्होंने कहा कि इस परमाणु युद्ध को रोक देना उनकी बड़ी उपलब्धि है। दुनिया भी उनकी प्रशंसा नहीं कर रही। भारत-पाक दोनों परमाणु शक्ति हैं। एक बड़ी और एक छोटी। जरा भी समानता उनमें नहीं है। मगर वे इतने आक्रोश से भरे हुए थे कि कुछ भी कर सकते थे। ट्रंप ने इसे आधार बनाते हुए कहा कि तब मैंने हस्तक्षेप किया, मैंने कहा कि हमें आपसे बहुत व्यापार करना है। इसलिए शांति बनाइए और व्यापार बढ़ाइए।

अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि यह व्यापार की ताकत ही है, जो राजनीति के फलक बदल देती है। संवाददाता सम्मेलन में जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने भारत और पाकिस्तान से संपर्क किया था? ट्रंप बोले, हां किया था। मगर ऐसी अपीलें तो सारी दुनिया से हो रही थीं। हमारी अपील ने असर किया, क्योंकि हमने कहा कि हम व्यापार के बारे में बात करेंगे। संघर्षरत देश मान गए। भारत के साथ उनका गुस्सा बाकी है। अब हम नया संदेश लाए हैं। भारत अपने व्यापार को जारी रखने के लिए शुल्कों पर पुनर्विचार के लिए मान गया।

भारत दुनिया में सबसे अधिक शुल्क लगाने वाला देश है जो व्यापार को असंभव बना रहा है। मगर अमेरिका का दबदबा इतना है कि भारत अपना शुल्क सौ फीसद तक घटाने के लिए तैयार है। हमसे दुनिया के डेढ़ सौ देशों ने इसके लिए संपर्क किया, लेकिन हम सबके साथ शुल्क घटाने के लिए तैयार नहीं। हां, भारत को रियायत दी जा सकती है, लेकिन वह कम से कम यह तो माने कि हमने भारत-पाक मामले में बड़ी सफलता हासिल की है। अब हर कोई हमारे साथ सौदा करना चाहता है।

ट्रंप ने कहा कि उभरते देशों के निवेश को ऐसा सुरक्षित माहौल देंगे कि वे और उभर सकें। इसीलिए हमने भारत-पाक में समझौता करवाया। ‘आपरेशन सिंदूर’ के तहत सात मई को भारत ने पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हमले किए। पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई को नाकाम कर दिया गया। याद रखना चाहिए था कि भारतीय शौर्य और पाकिस्तानी कायरता का यह संघर्ष द्विपक्षीय था, लेकिन पता नहीं, अमेरिका इसमें कहां से चला आया! शांतिपूर्ण संदेश तो हर देश दे रहा था, अमेरिका ने भी दिया। अमेरिका के राष्ट्रपति एक व्यापारी हैं, कई चीजों को लाभ-हानि के स्तर पर देखते हैं। इसलिए संघर्ष विराम का श्रेय वे खुद लेना चाहते हैं। तीसरा पक्ष बन कर मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहते हैं।

अगर इस दृष्टि से देखें, तो संघर्ष का यह तेवर आतंकवादी घटनाओं के जवाब में आतंकी ढांचा नष्ट करने का था, लेकिन जब यह आदेश पूरा हो गया, तो पाकिस्तान की पहल पर भारत ने युद्धविराम कर दिया। जीतने वाला भी नजर आ रहा है, पिटने वाला भी नजर आ रहा है। बीच में व्यापार के तराजू को हथियार बना कर डोनाल्ड ट्रंप बीच में कहां से आ गए? इसलिए बार-बार दोहराने के बावजूद उनकी इस बात को कोई नहीं मानता कि सैन्य संघर्ष रुकवाने में उनकी व्यापार शक्ति का बहुत बड़ा हाथ है। युद्ध इसलिए रुका, क्योंकि पाकिस्तान को अपना पासा पलटता नजर आ रहा था। वह एक निर्लज्ज पराजय लेकर अपनी जनता को झूठ का एक और लालीपाप नहीं पकड़ा सकता था।