बिहार में हुई जाति जनगणना पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार के बाद से इस मुद्दे पर विपक्षी दलों से सियासत तेज कर दी है। विपक्षी दलों की मांग है कि पूरे देश में जाति जनगणना कराई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार द्वारा किए गए जाति-आधारित सर्वेक्षण की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई जनवरी 2024 तक के लिए स्थगित कर दी है।
विशेष रूप से, कोर्ट ने राज्य पर जाति-सर्वेक्षण पर कार्य करने से रोक लगाने के लिए रोक या यथास्थिति का कोई भी आदेश पारित करने से इनकार कर दिया। पीठ ने मौखिक रूप से कहा कि हम राज्य सरकार या किसी भी सरकार को निर्णय लेने से नहीं रोक सकते। आइए जानते हैं, जातीय जनगणना को लेकर भारत का क्या रहा है इतिहास।
वर्ष 1872 में शुरुआत
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरूआत साल 1872 में की गई थी। अंग्रेजों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया। आजादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया। हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी। इन दलों ने राजनीति में तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया।
मंडल कमीशन का गठन हुआ
साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था। मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफारिश की, लेकिन इस सिफारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका। इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए। चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए।

आखिरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राजी होना पड़ा। 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए। इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई, आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।
देश भर में विरोध
जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है। इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं। इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे गलतियों से भरे और अनुपयोगी थे।
केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी। वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज्यादा थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सतीश देशपांडे बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना तो देर सवेर होनी ही है, लेकिन सवाल ये है कि इसे कब तक रोका जा सकता है। राज्य कई तरह की अपेक्षाओं के साथ ये जातिगत जनगणना कर रहे हैं।