अच्छे दिन लाने के लुभावने वादे के दम पर प्रचंड बहुमत के साथ देश की सत्ता पर काबिज हुई भारतीय जनता पार्टी की सरकार देश के लोगों के लिए अच्छे दिन ला पाई या नहीं इस पर तो मतभेद हो सकता है। लेकिन बिहार चुनाव के हौलनाक नतीजों के बाद ‘बुरे दिन’ जरूर भाजपा का मुंह ताक रहे हैं। यह चुनाव और इसका परिणाम किसी एक राज्य का चुनाव कह कर दरकिनार नहीं किया जा सकता। ऐसे फैसलानुमा जनादेश में एक संदेश समाया हुआ है। एक चेतावनी है कि मंच से मजमा लगा कर वोट बटोरने के दिन अब लद गए हैं।
कहना न होगा कि पार्टी को इसका इल्म पहले ही हो गया था। यही कारण है कि भाजपा के सर्वशक्तिमान अध्यक्ष अमित शाह पहले ही चुप्पी साध गए थे। हालांकि उनका ‘मैं आठ तारीख के बाद बोलूंगा’ का जुमला भारी भरकम और आशा से परिपूर्ण था। पर हकीकत और उम्मीद में एक महीन लकीर ही होती है। जाहिर है कि अब बोलने को रहा क्या? उनकी जगह पर पार्टी के मंत्री, वरिष्ठ नेता और दूसरे छोटे-बड़े सिपाहियों ने इतना कुछ बोल दिया कि वह सब पार्टी को भारी पड़ गया। आलम यह रहा कि खुद शाह भी इस पर लगाम लगाने में नाकाम रहे वरना उन्होंने जो बड़बोले नेताओं की क्लास ली थी उसके बाद चुप होना चाहिए था लेकिन उसके बाद तो सब ‘शाह’ रुख ही हो गया।
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चुनाव के दौरान आरक्षण और असहिष्णुता को लेकर इतना कुछ हो गया कि देश की सत्तारूढ़ पार्टी का रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा का गठजोड़ भी कुछ न कर पाया। सत्ता में पार्टी को डेढ़ वर्ष हो गए लेकिन इस डेढ़ वर्ष में ‘अच्छे दिनों’ का हासिल तो शून्य ही रहा। भीड़ का गणित बहुत सीधा है। आप साथ लेकर चलो। किसी राज्य की बोली लगाओ और फिर जब भीड़ अपना इंसाफ दिखाए तो दूसरे राज्य की झोली भर दो। जम्मू-कश्मीर के लिए अस्सी हजार करोड़ बिहार में हार की आशंका की गोद से ही उपजे थे।
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वादों और दावों से लोगों का पेट नहीं भरता। इनको जमीनी हकीकत से दो-चार होना पड़ता है। सत्ता में होकर आपके आसपास दिखने वाला लाव-लश्कर आपको आम जनता से इतना दूर कर देता है कि उसका मिजाज भी भांपना मुश्किल हो जाता है। डेढ़ साल बाद भी यह हो जाएगा, वो कर देंगे और ऐसा ही होगा, कुबूल नहीं हो सकता। आप जो देना चाहते थे, वह नहीं दे पाए। नतीजा आपके सामने पहले दिल्ली और फिर अब बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में सामने आया है। अगला नंबर पंजाब और उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु का है।
देश की सत्ता पर दो कार्यकाल तक काबिज रही यूपीए के पतन का कारण एक कठपुतली प्रधानमंत्री को ठहराया गया। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथों में सरकार का रिमोट रहता था। जब लोगों को कठपुतली प्रधानमंत्री मंजूर नहीं तो कठपुतली सरकार कैसे मंजूर हो सकती है। सरकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रतिछाया बन कर कामकाज कर रही प्रतीत हो रही थी। बहुलतावादी संस्कृति का संवाहक देश हिंदुत्व के एजंडे को कैसे स्वीकार करता? प्रख्यात पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी का बयान – सरकार का कामकाज कांग्रेस की तर्ज पर है, बस गाय और जोड़ दी गई है – ध्यान देने लायक है। यही समझने का समय है कि संघ के संकेत पर राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्री बनाना और बात है और कामकाज चलाना और। क्या अब भी सरकार सबक नहीं लेगी कि वह संघ की छाया से बाहर आए।
सहिष्णुता के मुद्दे पर किसी विदेशी ताकत की जुर्रत नहीं कि वह भारत की तरफ इल्जाम भरी उंगली उठा सके। खास तौर से पाकिस्तान की, जहां ‘तीन में न तेरह में’ टाइप जावेद मियांदाद देश के टोटे होने की भविष्यवाणी करते फिरें। देश की सहिष्णुता को इतनी ठेस ‘पुरस्कार वापसी’ करने वाले साहित्याकारों ने नहीं पहुंचाई जितनी सरकार के बड़बोले नेताओं ने। गली-गली घूम कर देश में सहिष्णुता पर बोलने वालों के लिए पाकिस्तान का टिकट कटाने वाले नेताओं के लिए प्रधानमंत्री ने क्या किया?
क्या पार्टी ने किसी स्तर पर भी यह कोशिश की कि जो लोग असहिष्णुता का आरोप लगा रहे हैं उनके विश्वास को बहाल करने के लिए कुछ करे। प्रधानमंत्री, जो देश विदेश में अपनी वाकपटुता की धूम मचा कर आते हैं, ही अपना मौन तोड़ देते। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से याराने का दम भरना और बात है और अमेरिका में देश के प्रति लोगों के विश्वास को बहाल रखना और बात। लोगों के स्मृति पटल पर अभी भी उन दिनों की याद ताजा है जब प्रधानमंत्री को वीजा देने से इनकार कर दिया गया था।
इन नतीजों की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी के 18 महीने के शासनकाल में बिल्कुल बेजान पड़ी कांग्रेस में जान आ गई। कांग्रेस प्रफुल्लित है। बिहार के नतीजे पार्टी के लिए मोदी से मिला दीपावली उपहार है। पंजाब में कांग्रेस पहले ही अकाली दल-भाजपा गठबंधन पर आंखें तरेर रही है। यही हालात रहे तो अगले वर्ष एक और झटका भाजपा को मिल सकता है।
बिहार का एक और संकेत साफ है जो नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस की तिकड़ी ने दिया है कि अगर विपक्ष एकजुट हो गया तो चाहे फिर आपका वोटों का हिस्सा सबसे ज्यादा हो तो भी आपको मुंह की खानी पड़ती है।
एकजुट विपक्ष की हस्ती को नकार कर उसका मजाक भर उड़ाने से आप अपना राजनीतिक सफर आसान नहीं कर सकते। मोदी तो बिहार को अपना विकास का मॉडल बांट न पाए, लेकिन बिहार ने उनको अपना सबक सिखा दिया और वह भी इतना सख्त कि दो तिहाई बहुमत से जीतने का दावा करने वाले अमित शाह अदृश्य हो गए और मोदी को अपना बधाई संदेश नीतीश कुमार के नाम लिखना पड़ा।
चुनाव में हार क्यों हुई? कैसे हुई? कैसे न होती? क्या समीकरण रहे? जातीय गणना में कहां दोष रहा? आरएसएस की क्या भूमिका रही? आंकड़ेबाज अब सारा ध्यान इसी पर केंद्रित करेंगे। कारण जो भी हो पर, असल में सरकार को इस जनादेश का संदेश समझना होगा कि अब बातों से, विदेश दौरों से, इशारों से, मौन से बात नहीं बनने वाली। यही समय है सबक लेकर कुछ कर दिखाने का। उम्मीद कम ही है पर…