भारत में लोकतंत्र स्थापित होने के पीछे कितनी पीढ़ियों का त्याग, समर्पण, कर्मठता और बलिदान का प्रेरणापूर्ण इतिहास राष्ट्र की अस्मिता को परिभाषित करता है। अगर व्यावहारिकता में इसे समझने का प्रयास करें तो यह एक सामान्य अपेक्षा है कि इन्हीं प्रवृत्तियों और मूल्यों को देश की नीतियों तथा योजनाओं और समस्त कार्यकलाप को हर स्तर पर प्रभावित करना चाहिए।

ऐसा तभी संभव होगा जब भारत जैसे देश में लगातार लोगों के समक्ष यह पक्ष उभरता रहे कि किसी भी देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भागीदारी का कोई भी तरीका, अवधारणा या प्रेरणा रही हो, सभी में राष्ट्रहित और देशवासियों के प्रति प्रेम सर्वोपरि था। वे जहां भी और जब भी ऐसे आंदोलनों में शामिल हुए या उनका नेतृत्व किया, किसी ने भी अपने या अपने परिवार के हित साधन के लिए यह नहीं किया। हर मनुष्य के सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन के नैसर्गिक अधिकार को समझने में सभ्यताओं को कितनी ही शहस्त्राब्दियां लगी होंगी, इसका अनुमान प्रत्येक सजग और सतर्क नागरिक कर सकता है, और करता है।

इसे जाना-समझा तो बहुतों ने, लेकिन उसके लिए विस्तृत स्तर पर सार्थक प्रयास बीसवीं सदी में भी आवश्यक बने रहे, आज भी बने हैं। मानव जाति की मूलभूत एकता को अनेक विविधताओं के साथ स्वीकार्य कराने की आवश्यकता को प्रत्येक मनुष्य-मात्र के लिए आवश्यक मान कर लोगों को इससे पूरी तरह अवगत कराने वालों में गांधी, भीमराव आंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला अग्रणी पंक्ति में शामिल हैं।

अर्नोल्ड टायनबी ने विश्व को बताया कि मनुष्यता के विकास और प्रगति के लिए एक ही मार्ग है, जो गांधी, अशोक और रामकृष्ण परमहंस ने दिखाया है। भारत के वैश्विक उत्तरदायित्व निर्वाह को आज हर देश में इसी अपेक्षा के साथ देखा जा रहा है। क्या उसने अपने में सहृदयता, शांति, सद्भाव, सहयोग, विविधता की स्वीकार्यता, विश्व-बंधुत्व की भावना को आत्मसात कर लिया है और उसे अपने विकास, आचार-विचार- व्यवहार में अपेक्षित स्थान दे दिया है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? इसे स्वीकार कर व्यावहारिक स्वरूप देना भारत की नैसर्गिक नियति है।

3 जून 1926 को गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था: ‘‘सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि का अनुशासन और विनय होता है। अनुशासन और विनय से मिलने वाली स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की द्योतक है; उससे व्यक्ति की अपनी और पड़ोसियों की भी हानि होती है।’’

इस समय देश के समक्ष समस्याओं और उनके समाधान को इन्हीं शब्दों को समझ कर पूरी तरह जाना-पहचाना, व्यावहारिकता में उतारा और ऐसा समाधान निकाल जा सकता है, जो भारत की प्राचीन संस्कृति, चिंतन और भविष्य दृष्टि की व्यावहारिकता को विश्व के समक्ष उजागर कर सकेगा। मगर भारत में सत्ता, व्यवस्था और जनता के बीच जो निर्बाध विश्वास और पारस्परिकता का संबंध बनना चाहिए था, उस पर अनेक प्रकार के कुठाराघात होते रहे हैं, और हो रहे हैं। इसका मूल कारण हर स्तर पर चयनित जनप्रतिनिधियों के क्षितिज का लगातार संकुचित होते जाना ही मुख्य है।

यह तो सर्वविदित है कि जनप्रतिनिधियों की साख लगातार घट रही है। यह निश्चय ही लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत चिंताजनक स्थिति मानी जाएगी। इसका निराकरण भी जन प्रतिनिधियों को ही करना है। ऐसा कर पाना शायद गांधी के समक्ष आई रंगभेद समाप्त करने की चुनौती से भी कठिन है।

गांधी ही नहीं, स्वतंत्रता संग्राम के अनेकानेक जाने-पहचाने चेहरों को याद करने पर यह पूरी तरह उजागर हो जाता है कि उन सभी ने अपने क्षितिज को विस्तृत किया था, और जो ऐसा कर सकता है वह स्वार्थ से ऊपर उठ जाता है। स्वच्छंदता उसके आसपास फटकती भी नहीं है। वह चाहे देश के मंत्रिमंडल का सदस्य हो या तहसील स्तर पर कार्य करने वाला लेखपाल, जनहित उसके लिए संतुष्टि का सबसे बड़ा प्रदाता होगा।

देश की कितनी ऊर्जा इस प्रकार की चर्चाओं और जांचों में व्यय होती है कि अमुक व्यक्ति ने अनैतिक ढंग से कितना धन-संचयन किया! जिनका आचरण भावी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय होना ही चाहिए, वे अपने नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्व को भूल कैसे सकते है?

जब देश के अनेक भागों में यह चर्चा आम हो जाए की अमुक सरकारी विभाग में कमीशन की दर यह है, तो व्यवस्था को जनता की पैनी दृष्टि का सम्मान अवश्य करना चाहिए। स्वतंत्रता आंदोलन के समय तो सभी ने हामी भारी थी कि पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को वे सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार आगे लाने में सहभागी बनेंगे।

मगर कितने ही इसे भूल गए, अपने और अपनों में ही सिमट कर रह गए। इसी कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग ‘चुनाव’ की सारी प्रक्रिया ही दूषित हो गई है। इसे स्वीकार करना ही चाहिए, क्योंकि ऐसा न करने से किसी सार्थक और स्वीकार्य सुधार की संभावना ही नहीं बनेगी। और, ऐसे सुधार न होने से अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति का हर तरफ और हर स्तर पर शोषण होता रहेगा। उसे न्याय मिलना असंभव हो जाएगा। ऐसे भी अनेक उदाहरण सामने आते रहते हैं कि कुछ लोगों को सर्वोच्च स्तर पर कुछ घंटों में ही न्याय उपलब्ध हो जाता है। कुछ की पीढ़ियां न्यायालयों के चक्कर लगाते बीत जाती हैं। इसका जनमानस में सामान्यीकरण हो चुका है, जो अंत्यंत चिंता का विषय है।

जब सत्ता से निकटता या उसमें भागीदारी व्यक्ति केंद्रित हो जाती है, सोच-समझ का दायरा सिमट जाता है, तब भ्रष्टाचार को फलने-फूलने के लिए सही जमीन मिल जाती है और वह गाजर घास की तरह अनियंत्रित होकर फैलता जाता है। अगर साठ साल पहले तरुणों और युवाओं के समक्ष हर ओर त्याग, सदाचरण और जनसेवा चर्चित थे, तो आज स्वार्थ, भ्रष्ट आचरण और कुछ लोगों का अकूत धन-संग्रह ही सामान्य जनचर्चा में उभरता है। सत्ता की चकाचौंध निश्चित ही उन पर प्रभाव डालती है, वे चाहे राजनीति में जाएं, सरकारी सेवा या किसी उद्योग में सम्मिलित हों। अनुकरणीय’ जब इसे समझ नहीं पाते तब भारत का लोकतंत्र संविधान की आत्मा से और दूर चला जाता है।

यह कितने आश्चर्य की स्थिति है कि पश्चिम की अवधारणाओं की नकल में पारंगत विशिष्ट वर्ग और मानवधिकारों का परचम लहराने वाले स्वतंत्रता को स्वच्छंदता का पर्याय मान लेते हैं। राजनीति से बाहर, लेकिन वैचारिकता में दलगत राजनीति के आधार पर अपने को स्थापित करने वाले लोग कभी वस्तुनिष्ठ दृष्टि से राष्ट्रीय समस्याओं की विवेचना करने में सफल नहीं हो पाते हैं।

स्वायत्तता का निर्वाह वही कर सकता है, जो स्वच्छंदता को उसका पर्याय न मान बैठा हो। इस सारी स्थिति को बदलने के लिए दीर्घकालीन नीतियों की आवश्यकता होगी, जो राष्ट्रीय स्तर पर जन स्वीकृति पा चुकी हों। भारत के समग्र और समेकित विकास का रास्ता गांव के सरकारी स्कूलों के दरवाजे से होकर जाता है। प्रारंभ यहीं से करना होगा। इसलिए शिक्षकों को प्रारंभिक और सेवाकालीन प्रशिक्षण देनेवाले संस्थानों में जितन भी निवेश क्यों न करना पड़े, देश को करना चाहिए।

एक संतुष्ट अध्यापक प्रशिक्षक ही मूल्य-आधारित, राष्ट्रप्रेम से भरपूर और जनसेवा के लिए समर्पित कार्य संस्कृति किसी भी संस्था में स्थापित कर सकता है। उसका प्रभाव अंतत: हर क्षेत्र में दिखाई देगा। मानव का अस्तित्व मनुष्यत्व के आधार पर ही संभव बना रहेगा, और उसका स्रोत आचार्यत्व से ही प्रस्फुटित होगा।