जलवायु परिवर्तन से बढ़ती चुनौतियां प्रकृति और मानवता दोनों के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। वर्ष 2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा। इतना ही नहीं, यह पहला वर्ष भी होगा, जब दुनिया का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज हुआ। इस तरह वर्ष 2024 अब तक के सबसे गर्म वर्ष में दर्ज भी हो गया। यूरोपीय जलवायु एजंसी ‘कोपरनिकस’ ने इस सच्चाई पर मुहर लगाते हुए इस नए वर्ष के पहले ही हफ्ते में इस बात की पुष्टि भी कर दी। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है। वर्ष 1850 से वैश्विक तापमान के माप की शुरूआत हुई। तब से संग्रहित आंकड़ों को देखने और तुलनात्मक अध्ययन के बाद इस दिशा में सक्रिय एजंसियां इस निष्कर्ष पर पहुंचीं कि वर्ष 1850 के बाद से अब तक का सबसे गर्म वर्ष 2024 रहा।
बीते वर्ष के महीनों पर निगाह डालें, तो चिंता और बढ़ती है। 2024 में जनवरी से जून तक का हर महीना अब तक का सबसे गर्म महीना रहा, यानी यह भी एक रेकार्ड है। ‘कोपरनिकस’ के अनुसार, पिछले वर्ष यूरोप में सूखा, जंगल में आग, बाढ़ और रेकार्ड गर्मी का भी सामना करना पड़ा। हालांकि अमेरिका का लास एंजिल्स अभी भी आग के चलते बहुत बुरी स्थिति में है।
इसे पहले भी समझौता मानने से इनकार कर चुके हैं ट्रंप
विडंबना देखिए कि प्रकृति को बचाने की मुहिम का महत्त्वपूर्ण सदस्य अमेरिका अब इससे अलग हो गया है। वहां नए राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेते ही डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से बाहर होने की औपचारिक घोषणा कर दी। पेरिस समझौता, जलवायु संकट पर काबू पाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक संधि है। इतना ही नहीं, उन्होंने आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले अपने समर्थकों को कारण बताते हुए इसे अनुचित और एकतरफा बताया। यह पहली बार नहीं है, जब ट्रंप ने ऐसा किया हो। अपने पहले कार्यकाल के दौरान भी वह ऐसा कर चुके हैं। हालांकि तब अमेरिका चार महीने ही बाहर रह पाया, क्योंकि तत्कालीन राष्ट्रपति बाइडेन के आते ही फिर शामिल हो गया था।
कामकाजी महिलाओं की चुनौतियां, दिन-प्रतिदिन नौकरी को लेकर बढ़ता जा रहा दबाव
अब यह भले ही ट्रंप की चालाकी हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका को अब अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर वार्षिक आंकड़े जारी करने की आवश्यकता नहीं है। यह जलवायु संकट संबंधी वास्तविकता और आंकड़ों को जुटाने के लिहाज से घातक होगा। साथ ही, इस दिशा में वैश्विक स्तर पर उठाए जा रहे कदमों की पारदर्शिता में कमी आना तय है।
आर्थिक रूप से कमजोर देशों को ज्यादा मुश्किलें
अमेरिका के समझौते से हटने के यह भी मायने हैं कि इससे कमजोर और आर्थिक रूप से कमजोर देशों की स्थिति और ज्यादा मुश्किल होती जाएगी। पहले ही अपर्याप्त बजट या गरीबी के कारण चुनौती है। अब तो ऐसा लगता है कि अमेरिका का यह कदम जलवायु संंकट से निपटने के लिए प्रयासरत सभी देशों और इसके विनाशकारी प्रभावों से जूझ रहे लोगों के लिए किसी बुरे सपने जैसा है। इसे बेहद दुखद और प्रकृति विरोधी कदम ही कहा जाएगा। अमेरिका के इस कदम के बावजूद ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में चीन दुनिया में दूसरे क्रम पर है। अमेरिका के हटने से आए अंतर को पाटने के लिए अब सबकी निगाहें चीन और यूरोपीय संघ पर होंगी।
2025 में होने वाले काप-30 जलवायु शिखर सम्मेलन ब्राजील के अमेजन शहर बेलेम में होगा। इसके लिए आंद्रे कोरेया को प्रमुख बनाया गया है। उन्होंने भी प्रमुख बनते ही इस बारे में न केवल चिंता जताई, बल्कि चेतावनी दी और साथ ही यह भी कहा कि वे, राष्ट्रपति ट्रंप के पेरिस समझौते से अमेरिका को वापस लेने के फैसले का विश्लेषण कर रहे हैं, लेकिन इतना तो तय है कि वार्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही। साथ ही, यह भी कि अब विश्व को ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े ऐतिहासिक उत्सर्जक देश ने एक दशक में दूसरी बार जलवायु परिवर्तन से लड़ने के वैश्विक प्रयासों से ही जैसे बाहर कर दिया है।
जलवायु संकट पर किसी का ध्यान तक नहीं
अब विश्व के सामने बड़ी ऊहापोह वाली स्थिति है। इधर, कुछ ऐसे भी हैं जो संगठित होकर जलवायु संकट को झुठलाने का प्रयास करते हैं। कहीं न कहीं इसके पीछे स्वार्थ झलकता है। इस संबंध में तर्क भी दिए जाते हैं कि हजारों साल पहले न केवल कई पहाड़, जीव-जंतु विलुप्त हुए, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं से बड़ा परिवर्तन हुआ है। तब तो जलवायु संकट पर किसी का ध्यान तक नहीं था और न ही ऐसी कोई बात थी। वहीं डेनमार्क सरकार के पर्यावरण मूल्यांकन संस्थान के पूर्व निदेशक ब्योर्न लोम्बर्ग जलवायु संकट को मीडिया का खेल बताते हैं, ताकि ऐसे संवेदनशील विषय पर लोगों का ध्यान खिंचे और लोग उनसे जुड़े रहें। मगर इस सच्चाई से वे इनकार नहीं कर सकते कि जलवायु संकट का असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। सर्दियों के दिन घट रहे हैं। बेमौसम बरसात हो रही है। गर्मियों के दिन बढ़ गए हैं। कहीं अत्यधिक बर्फबारी हो रही है, तो कहीं जंगलों में आग लग रही है।
जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए 2030 तक प्रति वर्ष 387 अरब डालर तक खर्च करने की आवश्यकता होगी। 2050 तक यह राशि काफी अधिक हो जाएगी। इतनी रकम जुटाना असंभव सा लगता है, क्योंकि जलवायु संकट से परेशान देशों का 2022 में योगदान महज 115.9 अरब डालर था। इधर, चीन ने भी थोक में कर्ज बांटा है। कर्ज न चुका पाने वाले देशों की संख्या 22 से बढ़ कर 59 हो गई है। हालात ये हैं कि ब्याज चुकाने के लिए इन्हें और कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में पर्यावरण में सुधार के लिए इनसे कैसे आर्थिक सहयोग की उम्मीद की जा सकती है? इसमें कोई दो राय नहीं कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में जलवायु संकट से निपटने की वैश्विक पहलों को तगड़ा झटका लगने वाला है। मगर उम्मीद की जा सकती है कि हिंद प्रशांत के अन्य देशों को ही ऐसी पहल करनी होगी, ताकि अमेरिका के बगैर इस मुद्दे पर परस्पर सहयोग बढ़ाएं और मुहिम जारी रहे।
इसी प्रकृति से अमेरिका का अस्तित्व
अमेरिका के रवैए से ताकत के बदलते संतुलन को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ी हैं। ऐसे में, हिंद प्रशांत क्षेत्र के अहम देश जैसे भारत, जापान और दक्षिण कोरिया को इस दिशा में और सक्रिय होना होगा। बदलती परिस्थितियों में यही मिल कर न्यायोचित हरित परिवर्तन ला सकने में सक्षम होंगे। इसके अलावा स्टील, लोहा और सीमेंट जैसे चुनौती भरे उद्योगों की समस्याओं को दूर करने के साथ उनमें ग्रीन हाइड्रोजन जैसे नए वैकल्पिक ईंधन का इस्तेमाल कर इन उद्योगों को और हरित बनाने में कारगर पहल कर सकते हैं। कुछ भी हो, ट्रंप को नहीं भूलना चाहिए कि इसी प्रकृति से अमेरिका का अस्तित्व है। अमेरिका और कुछ उसके पिछलग्गुओं को छोड़ कर एकजुट तमाम देश, जलवायु परिवर्तन के लिए काफी कुछ बदलने की तैयारी में हैं। काप-30 सम्मेलन अब तक हुए सम्मेलनों से बेहद अलग और खास होगा। इससे दुनिया को नया संदेश, नई राह मिलना तय है।